हालांकि यह कहना अन्याय होगा कि सरकार न तो फसली उत्पाद का न्यूनतम समर्थन खरीद मूल्य बढ़ायेगी और न ही न्यूनतम समर्थन खरीद मूल्य पर अधिकतम फसल की खरीद सुनिश्चित करेगी, बेहतर हो कि किसान अपने उत्पादन की लागत घटाये, लेकिन सरकारी रवैये और कर्ज माफी से संतुष्ट हो जाने के रूप में किसान संगठनों द्वारा पेश नरमी का यथार्थ यही है।
यथार्थ यह भी है कि न्यूनतम समर्थन खरीद मूल्य को लागत के डेढ़ गुना तक बढ़ाने को लेकर केन्द्र सरकार हाथ खड़े कर चुकी है। इसके लिए सरकारों के अपने तर्क हैं। उत्पादक से उपभोक्ता के बीच सक्रिय दलालों के मुनाफे को नियंत्रित करने में भी सरकारों की कोई खास रुचि दिखाई नहीं दे रही। यह रुचि पैदा करना जरूरी है। इसके लिए जन दबाव बनाने के जो भी शांतिमय तरीके हों, आजमाने चाहिए।
लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि सरकार और बाजार दोनों ही कभी भी किसान के नियंत्रण में नहीं रहे। जब तक किसान अपनी फसल के भण्डारण की स्वावलंबी क्षमता हासिल नहीं कर लेता, तब तक आगे भी ऐसी कोई संभावना नहीं होने वाली। लिहाजा, सरकार, कर्ज और बाजार के भरोसे खेती करना अब पूरी तरह जोखिमभरा सौदा है। अत: यह जरूरी है कि फसल उत्पादन लागत में कमी के उपायों पर अमल शुरू हो। लेकिन यह कैसे हो?
कृषि में लागत मूल्य के मुख्य 10 मद हैं:- भूमि, मशीनी उपकरण, सिंचाई, बीज, खाद, कीट-खरपतवारनाशक, मड़ाई, भण्डारण, समय और आवश्यक श्रम। जो भूमिहीन किसान, दूसरों के खेत किरायेदारी पर लेकर खेती करते हैं, उनकी भूमि किरायेदारी लागत घटाने के लिए जबरन किया गया कोई भी प्रयास अंतत: सामाजिक विद्वेष खड़ा करने वाला साबित होगा। जैसे-जैसे खेत मालिक की शर्त पर श्रम की उपलब्धता घटती जायेगी, यह लागत स्वत: कम होती जायेगी; यह भरोसा रखें।
दूसरा पहलू देखें, तो सस्ते श्रम की उपलब्धता घटने से खेती में श्रम की लागत बढ़ी है। इसका एक पक्ष यह भी है कि बुआई, सिंचाई, निराई, कटाई, मड़ाई आदि के जो काम मानव श्रम से संभव थे, अब उन्हें आधुनिक मशीनी उपकरणों से करने की बाध्यता है। किंतु भारत के ज्यादातर किसानों के पास कृषि जरूरत के सभी उपकरण खरीदने की क्षमता नहीं है।
इस तरह आधुनिक मशीनी उपकरण, बड़े किसानों के लिए तो एक मुश्त लागत का मद है, लेकिन छोटे किसानों को हर फसल पर इनकी सेवा के लिए ठेकेदारों को दाम चुकाना पड़ता है, जोकि काफी अधिक होता है। हमारे वैज्ञानिक व इंजीनियरों ने सस्ते, स्वावलंबी और लंबी आयु वाले कृषि उपकरण ईजाद तो कई किए, लेकिन इनमें से ज्यादातर के व्यापक उत्पादन को सरकारों ने प्रोत्साहन नहीं दिया। बायोवेद संस्थान, श्रृंगवेरपुर (इलाहाबाद) में एक बैल मात्र से चलने वाला कोल्हूनुमा ट्यूबवैल बिना बिजली-डीजल तीन इंच पानी देता है।
सरकार, बिजली में तो सब्सिडी देती है, लेकिन बिना बिजली चलने वाले उपकरणों को प्रोत्साहित करने में दिलचस्पी नहीं रखती। बिना मवेशी, बिजली, ईंधन चलने वाले ‘मंगलसिंह टरबाइन’ को ईजाद करने वाले किसान मंगलसिंह (जिला ललितपुर, उ.प्र.) को तो उलटे हतोत्साहित किया गया। शेष जो कृषि उपकरण उद्योगपतियों और व्यापारियों की शरण में पहुंचे, वे किसान तक महंगे होकर ही पहुंचे। लिहाजा, कृषि मशीनी उपकरण खरीद और उपयोग लागत घटाने का तात्कालिक उपाय यही है कि किसान मशीनी उपकरण खरीद तथा रखरखाव की सामिलात व्यवस्था करें।
सामिलात व्यवस्था होगी, तो एक ही उपकरण 20-25 किसानों के काम आ सकेगा। उपकरण खराब होने पर ठीक करने के हुनर को भी किसान समूहों को खुद ही हासिल करना होगा। इससे लागत घटेगी, साझा बढ़ेगा। साझा बढ़ते ही लागत में कमी के कई मार्ग स्वत: खुल जायेंगे। मेरे पास श्रम है, आपके पास ट्यूबवैल। मैं आपकी दो बीघा खेत में गेहूं की बुआई, कटाई, मड़ाई मुफ्त कर दूंगा, आप मेरे दो बीघा गेहूं की तीन सिंचाई मुफ्त कर देना।
आप मुझे सरसों के अच्छे बीज दे देना; मैं आपको मटर के अच्छे बीज दे दूंगा। इसी तरह उपज की खरीद-फरोख्त भी बाजार की जगह, पहले आपस में होने लगेगी। इससे लागत घटेगी और मुनाफा बढ़ेगा। पारंपरिक खेती और बार्टर पद्धति का सदगुण यही था। श्रम लागत बढ़ाने वाले कुछ और कारणों को समाप्त करना जरूरी है, जिनका प्रवेश ट्रेक्टर और बाजारू बीज के साथ हुआ। कल्टीवेटर युक्त ट्रेक्टर यदि पूरे खेत में तीन बार जुताई करता है, तो इस दौरान वह किनारों पर कई गुना अधिक बार घूम जाता है।
परिणाम यह होता है कि किनारे दब जाते हैं। खेत किनारे से ढाल हो जाता है। लिहाजा, हर दो-चार साल बाद रोटावेटर लगाकर खेत को समतल कराने के लिए काफी अतिरिक्त खर्च करना पड़ता है। रोटावेटर की जुताई मंहगी भी है। जबकि बैल से जुताई, इसका एक समाधान है। जुताई उपकरण के डिजायन तथा जुताई के तरीके में सुधार कर भी इस अतिरिक्त श्रम खर्च को घटाया जा सकता है।
उर्वरक व कीटनाशकों से मुक्ति का एक ही उपाय है, वह है जैविक खाद। कंपोस्ट खाद, केचुंआ खाद, मानव मल की खाद और हरी खाद के अलावा गोमूत्र, गुड़ आदि के मिश्रण से जैविक खाद बनाने जैसे कई प्रयोग इधर चर्चा में आये हैं; इन्हे अपनायें। मवेशियों की संख्या बढ़ायें। मवेशियों की संख्या बढ़ाने के लिए चारे वाले पौधे व फसल तो लगायें ही, मवेशियों को उनके चारागाह लौटायें। जैसे ही किसान खेत से रासायनिक उर्वरक हटायेगा; जैविक खाद तीन लाभ एक साथ लायेगी।
जैविक खाद, केचुओं आदि भू-जीवों को न्योता देकर ऊपर बुला लेती है। लिहाजा, आप देखेंगे कि मिट्टी की उर्वरकता हर साल घटने की बजाय, बढ़ने लगेगी। जैविक खाद, मिट्टी के ढेलों को बांधकर रखती है। लिहाजा, कम सिंचाई में भी खेत में ज्यादा लंबे समय तक नमी बनी रहेगी। बहुत संभव है कि एक बारिश होने पर सरसों, चना, मटर जैसी फसलें बिना सींचे ही होने लगें। इससे सिंचाई खर्च घटेगा। कीटनाशक को खेत से बाहर करने के तीन साल के भीतर अपने बच्चों को कीट खिलाकर पालने वाली गौरैया जैसी चिड़ियां वापस लौट आयेंगी। इसके व्यापक लाभ होंगे।
किसान का सबसे ज्यादा खर्च समय और सिंचाई के रूप में होता है। नीलगाय, जंगली सुअर आदि जीवों को यदि उनके जंगल, झुरमुट और पेयजल स्त्रोत लौटा दिए जायें तो रखवाली में जाया होने वाला समय स्वत: बच जायेगा। महाराष्ट्र आदि में आज ऐसे इलाके कई हैं, जहां सिंचाई के लिए पानी 750 फीट गहरे से ऊपर लाना होता है।
जलसंचयन स्त्रोतों, छोटे बरसाती नालों, नदियों और इनके किनारे झड़ियों-जंगलों के पुनर्जीवित होते ही हम पायेंगे कि भू-जल स्तर स्वत: ऊपर उठ आया। मेड़बंदी ऊंची हो; खेत समतल हो; बूंद-बूंद सिंचाई तथा फव्वारा जैसी अनुशासित सिंचाई पद्धतियां इस्तेमाल हों, तो कम पानी में पूरे खेत में सिंचाई संभव है। स्पष्ट है कि इन कदमों के उठते ही सिंचाई लागत में अप्रत्याशित घटोत्तरी देखने को मिलेगी।
इस दिशा में सरकारों के कुछ कार्यक्रम हैं। उनका लाभ सभी तक कैसे पहुंचे; इसके लिए कुछ लोग, पंचायतों को सक्रिय करने में लगें तो कुछ बिना किसी की प्रतीक्षा किए खुद शुरूआत करने में। यह भी भारत के अन्नदाता की रक्षा का एक आंदोलन ही होगा। लेकिन इसमें हिंसा नहीं, साझा, सहकार और स्वावलंबन फैलेगा।
-अरुण तिवारी
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