संसद के बहुत ही सफल सत्र के बारे में उल्लास के बीच विधायी प्रक्रिया के बारे में एक नया विवाद पैदा हो गया है और इससे एक महत्वपूर्ण मुद्दा सामने आया है। 17 विपक्षी दलों ने राज्य सभा के सभापति एम वेंकया नायडू को पत्र लिखकर सरकार पर आरोप लगाया है कि वह स्थायी समिति या प्रवर समिति की जांच के बिना जल्दबाजी में कानून बना रही है। उन्होंने शिकायत की है कि विपक्ष की आवाज को दबाया जा रहा है और कहा कि वर्तमान लोक सभा के पहले सत्र में 14 विधेयकों को पारित कर दिया गया है और इन्हें सदन की किसी भी समिति के पास नहीं भेजा गया है।
राज्य सभा के बारे में सभापति ने इन आरोपों को अस्वीकार किया है। अपने कार्यकाल के पांच सत्रों में उच्च सदन में दस विधेयक पहले पुरस्थापित किए गए इनमें से आठ विधेयकों को संबंधित विभागीय समितियों को जांच के लिए भेजा गया। इन दलों की शिकायत यह थी कि विपक्ष को विधेयकों का अध्ययन करने के लिए पर्याप्त समय नहीं दिया जा रहा है जिससे वे विधेयकों में संशोधन का सुझाव नहीं दे पा रहे और न ही अपने प्रश्नों का स्पष्टीकरण प्राप्त कर पा रहे हैं।
उनका मानना है कि सरकार द्वारा सदस्यों के विशेषाधिकारों, नियमों और स्थापित परंपराओं की अनदेखी राज्य सभा की भूमिका पर प्रश्न चिह्न लगा देगा। उनकी मांग है कि संसद में विचाराधीन सात महत्वपूर्ण विधेयकों को जांच के लिए प्रवर समिति को सौंपा जाए। इन दलों में कांग्रेस, तेलंगाना राष्ट्र समिति, सपा, द्रमुक, राकांपा, माकपा, भाकपा, राजद, बसपा, तेदेपा, आप, जद (एस), एमडीएमके, आईयूएमएल, पीडीपी और केरल कांग्रेस शामिल है। इस शिकायत का कारण यह है कि सरकार द्वारा पुरस्थापित कुछ महत्वपूर्ण विधेयक पारित किए जा चुके हैं जिनमें सूचना का अधिकार संशोधन विधेयक 2019 भी शामिल है। जिसके अंतर्गत मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों के वेतन और कार्यकाल में संशोधन किया गया है और उन्हें निर्वाचन आयोग के अधिकारियों के समक्ष रखा गया है।
इस विधेयक को लोक सभा ने पारित कर दिया था और राज्य सभा में इसे प्रवर समिति को भेजने का प्रस्ताव गिर गया था। विपक्षी दलों ने सदन के बीचोंबीच आकर इसका विरोध किया तथा कांग्रेस के एक नेता के अनुसार सरकार ने परंपराओं की अनदेखी कर कार्य किया है और संसद की विधायी प्रक्रिया का पालन नहीं किया है। कंपनी संशोधन अध्यादेश 2019 का स्थान लेने वाले विधेयक का लोक सभा में अनेक पार्टियों ने विरोध किया।
इसी तरह विधि विरुद्ध कार्यकलाप निवारण संशोधन विधेयक 2019 भी लोक सभा में पारित हो गया जिसके अंतर्गत सरकार किसी व्यक्ति को भी आतंकवादी घोषित कर सकती है। इस विधेयक के पक्ष में 284 मत पडे और विपक्ष में केवल 8 मत पडे। विपक्ष ने इस विधेयक को कठोर बताते हुए सदन से बहिर्गमन किया। जबकि विश्व में अनेक देशों में पहले से ऐसे काननूी प्रावधान विद्यमान हैं।
विपक्षी दलों को आशंका है कि इसका दुरूपयोग उनके विरुद्ध हो सकता है और वे इसे स्थायी समिति को भेजना चाहते हैं। तीन तलाक विधेयक भी लोक सभा और राज्य सभा में पारित हो गया है। इसमें तीन तलाक को अपराध बनाया गया है और विपक्षी दलों ने इसे प्रवर समिति को भेजने की मांग की। वे इसे जल्दबाजी में लाया गया कानून बता रहे हैं जबकि इस पर वर्षों से चर्चा हो रही है। विभागों से संबंधी स्थायी समितियों का गठन 1993 में हुआ था और वर्तमान में इनकी संख्या 24 है। प्रत्येक समिति में लोक सभा के 21 और राज्य सभा के 10 सदस्य होते हैं
और ये विभिन्न विभागों जैसे गृह, वित्त, रक्षा आदि से जुडे होते हैं। वे उन्हें सौंपे गए विधेयकों की जांच करते हैं। उनसे अपेक्षा की जाती है कि संसद का समय बचाने के लिए वे विधेयक के प्रत्येक खंड की जांच करें किंतु उनकी सिफारिशें बाध्यकारी नहीं होती हैं। लोकतंत्र में सांविधिक समितियां कानून बनाने में सहायता करती हैं। समितियों का आकार छोटा होता है इसलिए उनका कार्यकरण आसान होता है और वे विधेयकों की बारीकी से जांच कर पाते हैं।
इससे संसद का समय भी बचता है और विधेयकों की गहन जांच भी होती है। किंतु कानून भी राजनीति के अंग होते हैं और अक्सर किसी विधेयक को समिति को भेजने की मांग विधेयक को पारित करने में विलंब करना या उसे स्थगित करना या उसे समाप्त करने जैसा होता है। संसद में सभी विधेयकों के तीन वाचन होते हैं और द्वितीय वाचन में विधेयक को राज्य सभा की प्रवर समित या दोनों सदनों की संयुक्त समिति को सौंपा जा सकता है या राय जानने के लिए परिचालित किया जा सकता है। समिति की रिपोर्ट प्राप्त होने के बाद विधेयक पर खंडवार विचार होता है
और तृतीय वाचन में उसे पारित किया जाता है। इतनी सावधानी के बावजूद कई बार विधेयक के प्रारूपण में जल्दबाजी होती है और संसदीय जांच के अभाव में कई बार विधेयकों में खामियां रह जाती है जिसके चलते कई विधेयकों में बार-बार संशोधन करने पड़ते हैं। मोदी 2.0 सरकार में अब तक स्थायी या प्रवर समिति को सौंपे बिना 15 विधेयक पारित किए जा चुके हैं। यह संसद की कार्य क्षमता की सफलता का प्रतीक है या जल्दबाजी में विधेयक पारित करना है। इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है और इसका पता तभी चलेगा जब विधेयक लागू होंगे।
अन्य देशों में भाी तत्परता से विधेयक पारित किए जाते हैं। ब्रिटेन की संसद में 1985 में सरोगेसी अरेंजमेंट एक्ट तत्परता से पारित किया था और इसका कारण सरोगेसी के व्यवसायीकरण का उठा विवाद था और इसके द्वारा इसे अपराध बनाया गया था। ब्रिटेन में आतंकवाद निवारण अधिनियम 1974, दांडिक न्याय आतंकवाद और सुरक्षा अधिनियम 1998, आतंकवाद रोधी, अपराध और सुरक्षा अधिनियम 2001 और आतंकवादरोधी अधिनियम 2005 तत्परता से पारित विधान कहा जा सकता है और इन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा को गंभीर संकट को देखते हुए तत्परता से पारित किया गया था। तथापि ऐसे कानूनों की अनेक कारणों से आलोचना की जाती है। जिनमें संसदीय संवीक्षा न होना, खराब और अवांछित कानून पारित करना आदि प्रमुख है। इनसे विधान बनाने की प्रक्रिया पर अनावश्यक दबाव पडता है और इनको तत्परता से पारित करने में कार्यपालिका का वर्चस्व स्पष्टत: दिखायी देता है और जब विपक्ष सहयोग न दे रहा हो तो लंबे समय से चली आ रही समस्याओं के समाधान के लिए सरकार ऐसा मार्ग अपनाती है।
ब्रिटेन के पूर्व विधि मंत्री ने एक कानून को तत्परता से बनाने के बारे में कहा था कि संसद को कभी भी उस गति से विधान नहीं बनाने चाहिए जिसका मैं प्रस्ताव कर रहा हूं अन्यथा लोग यह मानेंगे कि ऐसा करने के पर्याप्त कारण हैं। आगेर्नाइजेशन फोर सिक्योरिटी एंड कोआपरेशन ने कुछ वर्ष पहले कहा था कि अनेक देश सुरक्षा के हित में मीडिया के विरुद्ध जल्दबाजी में कानून बना रहे हैं। भारत में संसद के समय की बबार्दी की भरपायी के लिए तत्परता से विधान बनाए जाने चाहिए। ये विधान जल्दबाजी में नहीं बनने चाहिए न ही आधे-अधूरे होने चाहिए।
डॉ. एस. सरस्वती