देश में भीषण गर्म हवाएं चल पड़ी हैं। ये हवाएं मुंबई में कहर बनकर टूट भी पड़ी हैं। (Danger of destruction) पिछले माह ‘महाराष्ट्र भूषण’ पुरस्कार समारोह के दौरान तेज धूप के कारण हुई तेरह लोगों की मौत की जानकारी स्वयं मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने दी थी। दिल्ली में भी गर्मी बेहाल करने के हालात पैदा करने लगी है। 43 डिग्री सेल्सियस से 45 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचे तापमान ने पूरी दिल्ली में लू के हालात उत्पन्न कर दिए हैं। पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत में भी यह गर्मी कहर बरपा रही है।इसी समय हैदराबाद विश्वविद्यालय के मौसम विभाग के ‘जर्नल आॅफ अर्थ सिस्टम साइंस’ में प्रकाशित अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि पिछले 49 साल में भारत में गर्मी का प्रकोप निरंतर बढ़ रहा है। लू चलने की घटनाएं हर दशक में बीते दशक से 0.6 बार अधिक हुई हैं। जबकि इसके विपरीत शीतलहर चलने की घटनाएं प्रत्येक दशक में बीते दशक से 0.4 मर्तबा कम हुई हैं। गर्मियों में जब लगातार तीन दिन औसत से ज्यादा तापमान रहता है तो उसे ‘लू’ कहते हैं। यदि सर्दियों में तीन दिन तक निरंतर औसत से कम तापमान रहता है तो उसे ‘शीतलहर’ कहा जाता है।
श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार तेज गर्मी या प्रलय आने पर सांवर्तक सूर्य अपनी (Danger of destruction) प्रचंड किरणों से पृथ्वी, प्राणी के शरीर, समुद्र और जल के अन्य स्रोतों से रस यानी नमी खींचकर सोख लेता है। नतीजतन उम्मीद से ज्यादा तापमान बढ़ता है, जो गर्म हवाएं चलने का कारण बनता है। आज कल मौसम का यही हाल है। जब हवाएं आवारा होने लगती हैं तो लू का रूप लेने लग जाती हैं। लेकिन हवाएं भी भला आवारा होती हैं? वे तेज, गर्म व प्रचंड होती हैं। जब प्रचंड से प्रचंडतम होती हैं तो अपने प्रवाह में समुद्री तूफान और आंधी बन जाती हैं। सुनामी जैसे तूफान इन्हीं आवारा हवाओं के दुष्परिणाम हैं। इसके ठीक विपरीत हवाएं ठंडी और शीतल भी होती हैं। आजकल आवारा पूंजी की तरह हवाएं भी आवारा व्यक्ति की तरह समूचे उत्तर व मध्य भारत में मचल रही हैं। तापमान 40 से 44 डिग्री सेल्सियस के बीच पहुंच गया है, जो लोगों को पस्त कर रहा है। अत: हर किसी की जुबान पर प्रचंड धूप और गर्मी जैसे बोल प्रचलित हो गए हैं।
लू सीधे दिमागी गर्मी को बढ़ाती है | Danger of destruction
धूप और लू के इस जानलेवा संयोग से कोई व्यक्ति पीड़ित हो जाता है, (Danger of destruction) तो उसके लू उतारने के इंतजाम भी किए जाते हैं। दरअसल लू सीधे दिमागी गर्मी को बढ़ा देती है। अत: इसे समय रहते ठंडा नहीं किया तो यह बिगड़ा अनुपात व्यक्ति को बौरा भी सकता है। बाहरी तापमान जब शरीर के भीतरी तापमान को बढ़ा देता है, तो हाइपोथैलेमस तापमान को संतुलित बनाए रखने का काम नहीं कर पाता। नतीजतन शरीर के भीतर बढ़ गई अनावश्यक गर्मी बाहर नहीं निकल पाती है, जो शरीर में लू का कारण बन जाती है। इस स्थिति में शरीर में कई जगह प्रोटीन जमने लगता है और शरीर के कई अंग एक साथ निष्क्रियता की स्थिति में आने लग जाते हैं। ऐसा शरीर में पानी की कमी यानी डी-हाईड्रेशन के कारण भी होता है। दोनों ही स्थितियां जानलेवा होती है। इस स्थिति के निर्माण हो जाने पर बुखार उतारने वाली साधारण गोलियां काम नहीं करती हैं। क्योंकि ये दवाएं दिमाग में मौजूद हाइपोथैलेमस को ही अपने प्रभाव में लेकर तापमान को नियंत्रित करती हैं। जबकि लू में यह स्वयं शिथिल होने लग जाता है।
आज चिंतन का विषय न तो रूस-यूक्रेन युद्ध है और न मानव अधिकार, न कोई विश्व की राजनैतिक घटना और न ही किसी देश की रक्षा का मामला है। चिंतन एवं चिन्ता का एक ही मामला है लगातार विकराल एवं भीषण आकार ले रही गर्मी, सिकुड़ रहे जलस्रोत, विनाश की ओर धकेली जा रही पृथ्वी एवं प्रकृति के विनाश के प्रयास। बढ़ती जनसंख्या, बढ़ता प्रदूषण, नष्ट होता पर्यावरण, दूषित गैसों से छिद्रित होती ओजोन की ढाल, प्रकृति एवं पर्यावरण का अत्यधिक दोहन- ये सब पृथ्वी एवं पृथ्वीवासियों के लिए सबसे बड़े खतरे हैं और इन खतरों का अहसास करना ही विश्व का ध्येय है। प्रतिवर्ष धरती का तापमान बढ़ रहा है। आबादी बढ़ रही है, जमीन छोटी पड़ रही है। हर चीज की उपलब्धता कम हो रही है। आक्सीजन की कमी हो रही है। साथ ही साथ हमारा सुविधावादी नजरिया एवं जीवनशैली पृथ्वी और उसके पर्यावरण एवं प्रकृति के लिये एक गंभीर खतरा बन कर प्रस्तुत हो रहा है।
आकाश तत्व के बिना अस्तित्व असंभव
हवाएं गर्म या आवारा हो जाने का प्रमुख कारण ऋतुचक्र का उलटफेर और भूतापीकरण (ग्लोबल वार्मिंग) का औसत से ज्यादा बढ़ना है। इसीलिए वैज्ञानिक दावा कर रहे हैं कि इस बार प्रलय धरती से नहीं आकाशीय गर्मी से आएगी। आकाश को हम निरीह और खोखला मानते हैं, किंतु वास्तव में यह खोखला है नहीं। भारतीय दर्शन में इसे पांचवां तत्व यूं ही नहीं माना गया है। सच्चाई है कि यदि परमात्मा ने आकाश तत्व की उत्पत्ति नहीं की होती, तो संभवत: आज हमारा अस्तित्व ही नहीं होता। हम श्वास भी नहीं ले पाते। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ये चारों तत्व आकाश से ऊर्जा लेकर ही क्रियाशील रहते हैं। ये सभी तत्व परस्पर परावलंबी हैं। यानी किसी एक तत्व का वजूद क्षीण होगा तो अन्य को भी छीजने की इसी अवस्था से गुजरना होगा।
प्रत्येक प्राणी के शरीर में आंतरिक स्फूर्ति एवं प्रसन्नता की अनुभूति आकाश तत्व से ही संभव होती है, इसलिए इसे ब्रह्मतत्व भी कहा गया है। अत: प्रकृति के संरक्षण के लिए सुख के भौतिकवादी उपकरणों से मुक्ति की जरूरत है। क्योंकि हम देख रहे हैं कि कुछ एकाधिकारवादी देश एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियां भूमंडलीकरण का मुखौटा लगाकर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से दुनिया की छत यानी ओजोन परत में छेद को चौड़ा करने में लगे हैं। यह छेद जितना विस्तृत होगा, वैश्विक तापमान उसी अनुपात में अनियंत्रित व असंतुलित होगा। नतीजतन हवाएं ही आवारा नहीं होंगी, प्रकृति के अन्य तत्व मचलने लग जाएंगे। जलवायु परिवर्तन के कारण प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति भी बढ़ रही है और जलीय स्रोतों पर दोहन का दबाव बढ़ता जा रहा है। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में प्रकृति से उत्पन्न कठिन हालातों के साथ जीवन -यापन की आदत डालनी होगी तथा पर्यावरण संरक्षण पर गंभीरता से ध्यान देना होगा।
भले ही जलवायु परिवर्तन को लेकर दुनिया के देश लाख चिंता जता रहे हो, शिखर सम्मेलनों में नित नए प्रस्ताव पारित किए जा रहे हो, पर वास्तविकता तो यही है कि दुनिया के देश पिछले आठ साल से लगातार सबसे ज्यादा गर्मी से जूझते आ रहे हैं। वास्तव में यह अत्यधिक चिंता का विषय बनता जा रहा है। इस क्षेत्र में काम कर रहे विशेषज्ञों का तो यहां तक मानना है कि ग्लेशियर किनारे बसे शहरों के अस्तित्व का संकट भी मुहं बाएं खड़ा दिखाई देने लगा है। हांलाकि समय पर सूचनाओं और डिजास्टर मैनेजमेंट व्यवस्था में सुधार का यह तो असर साफ दिखने लगा है कि प्राकृतिक आपदाओं के चलते जनहानि तो न्यूनतम हो रही है पर जिस तरह से धन हानि हो रही है और आधारभूत संरचनाओं को नुकसान पहुंच रहा है वह भी अपने आप में गंभीर है।
प्रमोद भार्गव, वरिष्ठ लेखक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार (ये लेखक के निजी विचार हैं।)