देश की लोकतांत्रिक राजनीति गाहे-बगाहे किसानों, और अन्य लोगों की चर्चा कर लेती है। भले आखिरी में परिणाम वही हो, वहीं ढाक के तीन पात। ऐसे में पहला ज्वलंत सवाल यही है कि क्या राजनीति ने कभी देश के भावी भविष्य को याद करने की भूल की? उत्तर नहीं है किसी के पास। ऐसे में सवालों की एक लंबी कड़ी उत्पन्न होती है। क्या नौनिहाल देश का हिस्सा नहीं? क्या उनके स्वास्थ्य, शिक्षा और मूलभूत सुविधाओं की जिम्मेदारी सरकारों की नहीं? क्या बच्चों की दुनिया समाज से अलग है? जिनका ध्यान करती हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली दिखती नहीं। दुर्भाग्य से यही विचार मन को उधेड़ता है कि बच्चों के प्रति इतना तटस्थता भरा रवैया क्यों?
बच्चों की नैसर्गिक आवश्यकता पोषक आहार, शिक्षा और स्वास्थ्य आदि है। क्या आज के दौर में ये मूलभूत आवश्यकताओं को हमारी व्यवस्था पूरी करने में सक्षम हो पाई है। तो उत्तर ‘न’ में ही मिलेगा। जिस वक़्त देश में बच्चों के लिए स्वास्थ्य सुविधाएं आवश्यक होती हैं, उस दौर में आक्सीजन की कमी बच्चों की मौत का कारण बनती है। जिस उम्र में बच्चों को सम्पूर्ण पोषण की आवश्यकता होती है, उस दरमियान उन्हें अपनों के द्वारा ही हवस का शिकार बनाया जाता है। जिस समय बच्चों के हाथों में कलम और किताब होनी चाहिए। तब उनके हाथ मजदूरी करने के लिए बांध दिए जाते हैं। फिर बचपन कहाँ सुरक्षित है?
पहले बात बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराधों की करते हैं। एक रिपोर्ट्स के मुताबिक 2015 के आंकड़ों के अनुसार मध्यप्रदेश में 12, 859, बिहार 12,420 और उत्तर प्रदेश में 11,420 बाल अपराध के मामले दर्ज किए गए। इसी के अंतर्गत केंद्रीय महिला एवं बाल विकास विभाग ने एक अध्ययन में पाया कि बच्चों के खिलाफ यौन शोषण के मामले बढ़ रहे हैं, तो उसके साथ देश का माहौल ऐसा भी नहीं कि मात्र बच्चियां इन हरकतों से पीड़ित हों। इस कलुषित और हवसीपन ने समाज के लड़के और लड़कियों दोनों का भक्षण करने की कोशिश की है, जो एक आदर्शवादी देश की छवि को कलंकित और अमर्यादित करने का काम कर रही है।
यूनिसेफ द्वारा जारी रिपोर्ट-2016 में कहा गया कि यहाँ पाँच वर्ष से कम उम्र के 69 बच्चे प्रति वर्ष मौत के मुंह में समा जाते हैं। ‘दुनिया में बच्चों की स्थिति’ के अंतर्गत पेश की गई यूनिसेफ की रिपोर्ट बताती है कि राज्य में शिशु मृत्यु दर प्रति हजार 52 है। वहीं जन्म के एक माह के भीतर प्रति हजार में से 36 बच्चे मौत का शिकार हो जाते हैं। इसी तरह पांच वर्ष की आयु तक के 42.8 प्रतिशत बच्चों का वजन औसत से कम है। इसके साथ 42 फीसद बच्चे नाटे हैं। वहीं एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक पंजाब के मात्र 5.9 फीसद, उत्तर प्रदेश के 5.3 प्रतिशत, राजस्थान में बच्चों को 3.4 फीसद और गुजरात के 5.2 प्रतिशत बच्चों को ही समुचित मात्रा में आहार मिल पा रहा हैं।
ऐसे में जब केंद्र और राज्य सरकारों में समन्वयन न होने के कारण केंद्र की योजनाओं में गड़बड़ी होने का रोना रोया जाता है। सरकारी योजनाओं को देखकर ऐसा लगता है, कि केवल खानापूर्ति और दिखावट की दुकान के रूप में इन्हें नियंत्रित और संचालित किया जा रहा हैं। वहीं पोषण की कमी बच्चों में अन्य रोग की भी वाहक बनती है, जिसका सीधा सबूत यह है कि देश के 58 फीसदी बच्चे खून की कमी की गिरफ्त में हैं। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 2015-16 के आंकड़े दिखाते हैं कि भारत के सात करोड़ से अधिक बच्चे एनीमिया के शिकार हैं। इसके साथ देश के बच्चों में स्वच्छता के प्रति उदासीनता भी कुपोषण के लिए कुछ हद तक जिम्मेदार होती हैं।
फिर ऐसे में सवाल लाजिमी हैं कि बच्चों को स्वास्थ्य और स्वच्छता के प्रति सजग क्यों नहीं बनाया जा रहा? ये कुछ चंद स्थितियां हैं, जो बच्चों की वास्तविक स्थिति से रूबरू कराती हैं, जिसको मद्देनजर रखते हुए, भावी भविष्य को बचाने का प्रयास सरकारों को करना चाहिए।
-महेश तिवारी