35 सालों तक प्यास बुझाने वाला कुंआ आज…

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खारियां (सच कहूँ/सुनील कुमार)। आधुनिकता की चकाचौंध में आज इंसान अपने आसपास की पुरातन धरोहर रूपी इमारतों के स्वर्णिम इतिहास से बेखबर है। जिन इमारतों व धरोहरों की वजह से आज जिनकी पीढ़ियां फल-फूल रहीं हैं, वहीं धरोहर आधुनिक समाज से अपने अस्तित्व को बचाने की जंग लड़ रही है। आज सच कहूँ आपको जिले की एक ऐसी ही प्राचीन धरोहर से रूबरू करवा रहा है। जो आज के समय में बिल्कुल खंडहर हालात में है। खारियां से संवाददाता सुनील कुमार की रानियां तहसील के गांव गिंदड़ा में बनी एक ऐसी प्राचीन धरोहर से संबंधित पढ़िए विस्तृत रिपोर्ट।

आज से करीब 81 साल पूर्व विक्रम संवत 1999 यानी वर्ष 1942 में गांव गिंदड़ा में ग्रामीणों ने अपने दैनिक जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की आपूर्ती के लिए करीब 100 फीट गहरे व साढ़े 4 फीट चौड़ाई के एक कुएं का निर्माण करवाया था। इस कुएं के निर्माण कार्य को गिंदड़ा निवासी कालुराम पुत्र हीरालाल सुथार व राजस्थान के गांव रणजीतपुरा निवासी निक्कुराम सुथार ने ग्रामिणों के सहयोग से करीब दो सालों में संपूर्ण कर वर्ष 1944 में शुरू कर दिया था। हालांकि उस समय कुएं का पानी कड़वा था, जिसमें कुएं के तीन ओर बने तालाब में बरसात का पानी इक्ट्ठा कर कुएं में डाला जाता था। जिसके बाद इस मीठे पानी का प्रयोग ग्रामीण अपनी दैनिक जरूरतों को पूरा करने में करते थे। कुएं की गहराई ज्यादा होने के कारण पानी को आसानी से निकालने के लिए इस पर दो सतम्भ बनाए गए। जिनके बीच एक मजबूत लकड़ी के डंडे पर लकड़ी का भूण यानी पहिया लगाया हुआ था।

ल्ल ऊंट की सहायता से ग्रामीण निकालते थे पानी: जिसके ऊपर करीब 90 फूट लम्बा चमड़े का रस्सा व करीब 50 लीटर पानी की क्षमता वाली चमड़े की लाद यानी थैले को ऊंट की सहायता से खींचकर बाहर निकाला जाता था। फिर इसको पक्की इंटों से बनी होद/जमीन के ऊपर बनी पानी की टंकी में डाला जाता। जहां से अलग-अलग नालियों के माध्यम से दो खैल/छोटी टैंकी में पानी पहुंचता था। इसके पश्चात सभी अपनी अपनी टैंकी से पानी घड़ों के माध्यम से दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती।

इस दौरान पानी की सेवा में चेतन राम पुत्र शेराराम नोखवाल व रावता राम पुत्र कुश्ला राम सिंहमार ने करीब 14 वर्षों तक अपने ऊंट के साथ कुआं से पानी निकालने की लम्बी सेवा की। उस वक्त गांव में करीब 70 मुस्लिम परिवार व 70 हिन्दू परिवारों की लगभग 550 की आबादी निवास करती थी। इस कुएं के तीन तरफ जोहड़ बनाया गया, जिसमें बारिश का पानी एकत्रित होने पर उस मीठे पानी को कुएं में डाला जाता था। करीब 45 वर्ष पूर्व घरों में भाखड़ा का पानी पहुंचना शुरू हो गया। जिसके पश्चात ग्रामीण प्राचीन कुएं से दूर होते चले गए। ग्राम पंचायत ने वर्ष 1980 में मोटर की सहायता से कई बार पानी बाहर निकाला और फिर इसे अपने हालात पर छोड़ दिया। जिसके बाद इसमें गंदी गैंसे बनने लगी जो आसपास के घरों के लिए नुकसानदायी होने लगी। परिणामस्वरूप करीब वर्ष 2000 में ग्राम पंचायत ने इससे निकलेने वाली गैंसों व किसी अप्रिय घटना की शंका से स्थाई तौर पर छत लगाकर बंद कर दिया। जो गांव की प्राचीन धरोहर आज अपने अस्तित्व से जंग लड़ रही है।