प्रसुताओं के लिए उम्मीद की किरण

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा डॉक्टरों की रिटायरमेंट उम्र बढ़ाकर 65 साल किए जाने का एलान और उनसे अपील की वे हर महीने की 9 तारीख को गर्भवती महिलाओं का नि:शुल्क इलाज करने का बीड़ा उठाएं, एक स्वागतयोग्य पहल है। चूंकि केंद्रीय कैबिनेट ने प्रधानमंत्री के एलान पर स्वीकृति की मुहर लगा दी है लिहाजा अब डॉक्टरों की जिम्मेदारी बनती है कि वे भी कसौटी पर खरा उतर प्रसुताओं की देखभाल के लिए आगे आएं। यह सच्चाई है कि देश में प्रसुताओं की हालत
चिंताजनक है और उचित इलाज के अभाव में हर वर्ष लाखों प्रसुताएं दम तोड़ती हैं। एक आंकड़े के मु ताबिक हर दस मिनट में प्रसव के दौरान एक प्रसुता की मौत होती है। संयुक्त राष्ट्र की विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट पर गौर करें तो भारत में वर्ष 1990 में गर्भधारण संबंधी जटिलताओं के कारण और प्रसव के दौरान तकरीबन 5,23,000 महिलाओं ने दम तोड़ा। दो राय नहीं कि पिछले डेढ़ दशक में बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं का विस्तार हुआ है और प्रसुताओं की मौत में कमी आयी है। लेकिन यह आंकड़ा अभी भी एक लाख सत्रह हजार के आसपास है जो विश्व में होने वाली कुल मौत का 22 फीसद है।
देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की बात करें तो यहां प्रति एक लाख जन्म पर मातत्वृ मृत्यु दर 300 है। यह आंकड़ा विश्व के सर्वाधिक पिछड़े कहे जाने वाले क्षेत्रों विशेषकर अफ्रीका और लातिन अमेरिकी देशों के समान है। उत्तर प्रदेश में शिशुओं की मृत्यु दर भी राष्टÑीय औसत से अधिक है। यहां जन्म लेने वाले 50 फीसद बच्चे कुपोषित होते हैं। उत्तर प्रदेश सरकार का लक्ष्य 2017 तक प्रति एक लाख जन्म पर मातृ मृत्यु दर को 200 से नीचे लाना है। लेकिन यह तभी संभव होगा जब राज्य में स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार और सुदृढ़ीकरण होगा। अगर उत्तर प्रदेश सरकार केंद्र सरकार की तर्ज पर डॉक्टरों की रिटायरमेंट उम्र 65 करती है तो 7000 डॉक्टरों की सेवा अवधि बढ़ जाएगी। सरकार चाहे तो इन डॉक्टरों की तैनाती प्रसुता महिलाओं के लिए कर मातृत्व मृत्यु दर में कमी ला सकती है। देश की बात करें तो प्रति एक लाख जन्म पर मातृत्व मृत्यु दर (एमएमआर) 212 है।

भारत को सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य (एमडीजी) के तहत इसे 2015 तक घटाकर 109 तक लाना था लेकिन लक्ष्य को साधा नहीं जा सका है। मातृ मृत्युदर का प्रमुख कारण महिलाओं में 30 फीसद रक्तस्राव, 19 फीसद एनीमिया, 16 फीसद संक्रमण, 10 फीसद जटिल व जोखिम वाले प्रसव एवं 8 फीसद मृत्युदर उच्च रक्तचाप संबंधी विकारों से होती है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि स्वास्थ्य जागरुकता के बाद आज भी गांवों में 43 फीसद प्रसव बेहद खतरनाक स्थिति में घरों में कराए जा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की पापुलेशन फंड-इंडिया की रिपोर्ट में कहा जा चुका है कि उत्तर प्रदेश और बिहार में 50 फीसद और राजस्थान में 41 फीसद से ज्यादा महिलाओं ने अपने घरों में शिशुओं को जन्म दिया। देश के अन्य राज्यों की हालात भी कमोवेश ऐसी ही है।  इससे न सिर्फ प्रसुताओं की जान जोखिम में पड़ रही है बल्कि वे खतरनाक बीमारियों की चपेट में भी आ रही हैं। इसके लिए सरकार की स्वास्थ्य संबंधी नीतियां जिम्मेदार हैं। यह किसी से छिपा नहीं है कि देश में अस्पतालों और डॉक्टरों की भारी कमी है। जहां डॉक्टर हैं वहां दवा नहीं है और जहां अस्पताल हैं वहां चिकित्सकीय उपकरण नहीं हैं। दूसरी ओर देश में प्रशिक्षित स्वास्थ्यकर्मियों की भी भारी कमी है। एक आंकड़े के मुताबिक देश में तकरीबन 70000 मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं और लगभग 20000 आंग्लिजरी नर्स मिडवाइफस् की कमी है।

मैदानी इलाकों में हजार की आबादी पर एक आशा कार्यकर्ता और पांच हजार की आबादी पर एक एएनएम होना चाहिए। लेकिन वर्तमान में ऐसा नहीं है। एक आंकड़े के मुताबिक दवा और उचित इलाज के अभाव में 20 वर्ष से कम उम्र की 50 फीसदी महिलाएं प्रसव के दौरान दम तोड़ती हैं। इसी तरह अस्पतालों में चिकित्सीय उपकरणों की भारी कमी और डाक्टरों की हीलाहवाली से तकरीबन 10 से 15 फीसद प्रसुताएं काल के गाल में समा जाती हैं। आज की तारीख में गांवों में डॉक्टरों की कमी की वजह से 90 फीसद प्रसुताएं स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए झोलाछाप डॉक्टरों पर निर्भर हैं। इसकी कीमत उन्हें जान देकर चुकानी पड़ती है। सेव द चिल्ड्रेन संस्था की मानें तो भारत मां बनने के लिहाज से सबसे खराब देशों में शुमार है। यहां यह भी ध्यान देना होगा कि देश के जिन हिस्सों में भूखमरी, गरीबी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार और जागरुकता की कमी है, वहां प्रसव के दौरान मातृत्व मृत्यु दर अधिक होता है। कम उम्र में लड़कियों का विवाह भी मातृत्व मृत्यु दर में वृद्घि का एक महत्वपूर्ण कारण है। दरअसल वे शीध्र मां बन जाती हैं जिससे उनमें खतरनाक बिमारियों पनपती हैं और साथ ही जान जाने का भी खतरा बना रहता है। आज जरुरत इस बात की है कि केंद्र व राज्य सरकारें प्रसुताओं के बेहतर स्वास्थ्य के लिए दीर्घकालीन रणनीति बनाएं और ईमानदारी से क्रियान्वयन करें।
लेखक रीता सिंह

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