एक राजा को अपने दरबार के किसी उत्तरदायित्वपूर्ण पद के लिए योग्य और विश्वसनीय व्यक्ति की तलाश थी। उसने अपने आस-पास के युवकों को परखना शुरू किया। लेकिन वह किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाया। तभी एक महात्मा का पदार्पण हुआ, जो इसी तरह यदा-कदा अतिथि बनकर सम्मानित हुआ करते थे। युवा राजा ने वयोवृद्ध संन्यासी के सम्मुख अपने मन की बात प्रकट की – “मैं तय नहीं कर पा रहा हूँ। अनेक लोगों पर मैंने विचार किया। अब मेरी दृष्टि में दो हैं, इन्हीं दोनों में से एक को रखना चाहता हूँ।”
“कौन हैं ये दोनों?” “एक तो राज परिवार से ही संबंधित हैं, पर दूसरा बाहर का है। उसका पिता पहले हमारा सेवक हुआ करता था, उसका देहांत हो गया है। उसका यह बेटा पढ़ा-लिखा सुयोग्य है।” “और राज परिवार से संबंधित युवक? उसकी योग्यता ‘मामूली’ है।” “आपका मन किसके पक्ष में है?” “मेरे मन में द्वंद्व है, स्वामी!” “किस बात को लेकर?” “राज परिवार का रिश्तेदार कम योग्य होने पर भी अपना है, और. . .” “राजन! रोग शरीर में उपजता है तो वह भी अपना ही होता है, पर उसका उपचार जंगलों और पहाड़ों पर उगने वाली जड़ी-बूटियों से किया जाता है। ये चीजें अपनी नहीं होकर भी हितकर होती हैं।” राजा की आँखों के आगे से धुंध छँट गई। उसने निरपेक्ष होकर सही आदमी को चुन लिया।
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