श्रीलंका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे पिछले दिनों भारत आए। वे यहां तीन दिन रहे। राष्ट्रपति निर्वाचित होने के बाद यह उनकी पहली विदेश यात्रा थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें जीत की बधाई देते हुए भारत आने का निमंत्रण दिया था। गोटबाया राजपक्षे के सत्ता में आने के साथ ही भारत-श्रीलंका संबंधों को लेकर चर्चा का दौर शुरू हो गया था। इसकी एक बड़ी वजह यह थी कि गोटबाया श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति महिन्द्रा राजपक्षे के भाई हंै, जिन्हे चीन से बेहतर संबंधों के लिए जाना जाता है।
लेकिन जब गोटबाया अपनी पहली अधिकृत विदेश यात्रा पर भारत आए तो चर्चा का रूख बदल गया है, अब जानकर इसे भारत की कूटनीतिक जीत बता रहे हैं। यह पहला अवसर है जब किसी देश में सत्ता परिवर्तन के महज कुछ ही घंटों बाद हमारे विदेशमंत्री व्यक्तिगत रूप से प्रधानमंत्री का बधाई संदेश लेकर गए हो। विदेशमंत्री एस.जयशंकर ने गोटाबाया को बधाई देने के साथ भारत यात्रा का न्यौता दिया।
गोटबाया भारत आए और चले गए। उनका तीन दिन का भारत दौरा केवल मेल मुलाकात तक ही सिमट कर रह गया। दोनों देशों के बीच किसी तरह का कोई औपचारिक समझौता नहीं हुआ। हॉ, दोनों देशों के प्रमुखोें ने आर्थिक और सुरक्षा संबंधी मसलों पर मिलकर काम करने पर सहमति जरूर जताई है। यहां प्रश्न यह उठ रहा है कि गोटबाया को लेकर भारत ने इस तरह की हड़बड़ी क्यों दिखाई।
आनन-फानन में हुए इस दौरे से आखिर भारत को क्या मिला। कंही ऐसा तो नहीं कि भारत गोटबाया के इस दौरे के जरिये पूर्व में की गई किसी गलती पर पर्दा डाल रहा हो। श्रीलंका में शासन सत्ता के सर्वोच्च स्तर पर राजपक्षे भाईयों के आने के बाद भारत के माथे पर जो चिंता की जो लकीरे खींच आई है, क्या भारत गोटबाया के दौरे से उसे हल्का करना चाह रहा था। यह सभी प्रश्न गोटबाया की भारत यात्रा के बाद जवाब तलाश रहे हैं।
हालांकी गोटबाया और पीएम मोदी की बातचीत के बाद भारत ने श्रीलंका को 45 करोड़ डॉलर देने की घोषणा की। इसमें से 40 करोड़ डॉलर आधारभूत परियोजनाओं और 5 करोड डॉलर आंतकी हमलों से सुरक्षा के उपायों के लिए दिए जाएंगे। दूसरी ओर राजपक्षे श्रीलंका के कब्जे में मौजूद भारतीय मछुआरों और उनकी नावे छोड़ने को राजी हुए। श्रीलंका, भारत के दक्षिण में स्थित एक छोटा-सा द्वीपीय देश है।
दोनों देशों के बीच दशकों पुराने सांस्कृतिक संबंध हैं। सांस्कृतिक संबंध से इतर विचारधारा के आधार पर भी दोनों देश के दूसरे के काफी निकट है। औपनिवेशिक स्वतंत्रता, नि:शस्त्रीकरण एवं सैन्य करारों के मामले में श्रीलंका भारत के पंचशील के सिद्वातों को स्वीकार करता है। वह भारत के इस विचार से भी सरोकार रखता है कि हिंद महासागर को महाशक्तियों की सैन्य प्रतिस्पर्धा से दूर रखा जाए।
यद्यपि भारत और श्रीलंका के बीच मजबूत संबंधों का इतिहास रहा है, लेकिन पूर्व राष्ट्रपति महिन्द्रा राजपक्षे का झुकाव चीन की ओर होने के कारण पिछले कुछ समय से भारत-श्रीलंका के संबंध ठहराव की स्थिति में थे।
राजपक्षे के कार्यकाल के दौरान चीन ने श्रीलंका की ढांचागत परियोजनाओं में भारी निवेश किया था। इन्ही के कार्यकाल में श्रीलंका ने चीन को हंबनटोटा बंदरगाह और एयरपोर्ट के निर्माण का ठेका दिया था। चीन ने कोलंबो बंदरगाह को विकसित करने में बड़ी भूमिका निभाई है, जबकि भारत ने कोलंबों बंदरगाह पर ईस्टर्न कंटेनर टर्मिनल बनाने को लेकर श्रीलंका के साथ एक समझौता किया है। इसके चलते भारत आने वाला बहुत सारा सामान कोलंबो बंदरगाह से होकर आता है।
इसके बाद सत्ता में आए पीएम रानिल विक्रमसिंघे की सरकार ने चीन के बढ़ते कर्ज को देखते हुए उसकी कई महत्वपूर्ण परियोजनाओं पर रोक लगाने के साथ भारत की तरफ दोस्ती का हाथ बढाया। मार्च 2000 में दोनों देशों के बीच मुक्त व्यापार समझौता हुआ। दिसंबर 2004 में सुनामी आपदा के पश्चात श्रीलंका सरकार के अनुरोध पर भारत ने जहाजों व हैलिकॉप्टरों से भारी मात्रा में राहत सामग्री भेजी ।
साल 2008 में भारत, श्रीलंका का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार रहा और उसके साथ द्विपक्षीय व्यापार 3.27 अरब अमरीकी डॉलर तक पहुंच गया था। उस वक्त भारत, श्रीलंका में निवेश करने वाला दूसरा सबसे बड़ा देश था। गृहयुद्ध के बाद भारत-श्रीलंका संबंधों में खटास आने लगी। इसका परिणाम यह हुआ कि श्रीलंका भारतीय हितों की चिंता किए बिना अपने विदेश मामलों का संचालन करने लगा।
तमिल चरमपंथी संगठन लिबरेश्सन टाइगर्स आफ तमिल ईलम(एलटीटीई) के साथ संघर्ष के दौरान जब श्रीलंका ने भारत सरकार से हथियार उपलब्ध करवाने को कहा तो तत्कालीन मनमोहनसिंह सरकार ने डीएमके के साथ गठबंधन होने के कारण श्रीलंका सरकार की मदद से इंकार कर दिया। उस वक्त गोटबाया राजपक्षे देश के रक्षा प्रमुख थे। भारत के इंकार के बाद श्रीलंका सरकार ने चीन और पाकिस्तान से मदद मांगी । हालांकी भारत और श्रीलंका जमीनी सीमाओं से जूड़े हुए न होने के कारण दोनों देशों के बीच सीमा विवाद जैसा कोई बड़ा मसला नहीं।
दोनों केवल समुद्री सीमा साझा करते हैं। समुद्री सीमा को लेकर भी भारत और श्रीलंका के मध्य कोई बड़ा विवाद नहीं है, पर समुद्री क्षेत्र पूरी तरह स्पष्ट नहीं होने के कारण अनेक बार दोनों देशों के मछुआरें एक दूसरे के इलाकों में प्रवेश कर जाते हैं। भारत और श्रीलंका के बीच विवाद की एक अन्य वजह तमिल समस्या है। जब तक तमिलों के पुनर्वास संबंधि अधिकार स्पष्ट नहीं हो जाते हंै, तब तक दोनों देशों के बीच कटुता के बिन्दू बने रहेगें।
सत्ता परिवर्तन के बाद भले ही श्रीलंका को लेकर भारत के दृष्टिकोण में कोई बदलाव न आए पर श्रीलंका का भारत के प्रति नजरिया नहीं बदलेगा इस बात को दावे के साथ नहीं कहा जा सकता है। अपने चुनाव प्रचार के दौरान गोटबाया ने अपने देश के मतदाताओं से वादा किया था कि अगर वे सत्ता में आते हैं, तो चीन के साथ रिश्तों को और मजबूत बनाएंगे। गोटबाया 13 लाख वोटों से चुनाव जीते है।
उनकी जीत से यह स्पष्ट है कि श्रीलंका के वोटर बदलाव को लेकर किस कदर आतुर थे। यद्यपि सजित प्रेमदासा संतुलित व्यापार नीति और मैत्रीपूर्ण अंतरराष्ट्रीय संबंधों को विकसित किए जाने के वादे के साथ चुनाव मैदान में उतरे थे। लेकिन मतदाताओं ने उनकी नीतियों को खारीज कर गोटबाया के पक्ष में मतदान किया।
कोई दो राय नहीं कि एक बार फिर श्रीलंका में अगले पांच साल तक राजपक्षे परिवार का शासन रहेगा। हो सकता है इस दौरान चीन वहां अपना वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास करे, जैसा कि वह पहले से करता आया है, ऐसे में भारत- श्रीलंका संबंध एक बार फिर नए मोड़ लेंगे इसमें संदेह नहीं है।
-एन.के.सोमानी
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