आरआरबी-एनटीपीसी के परीक्षा-परिणाम में धांधली का आरोप लगाते हुए बिहार और उत्तर प्रदेश के छात्र आंदोलित हैं। गुस्साए अभ्यर्थियों ने एकाधिक ट्रेनों को भी आग के हवाले कर दिया, जिसके बाद विरोध-प्रदर्शन के औचित्य पर सवाल उठने लगे हैं। चर्चा होने लगी है कि सार्वजनिक संपत्तियों को नुकसान पहुंचाकर अपनी मांगें मनवाना क्या उचित है! निस्संदेह, विरोध एक ऐसा माध्यम है, जिसके द्वारा लोग अपनी शिकायत या नाराजगी जाहिर करते हैं, मगर यह भी सच है कि किसी भी हिंसक विरोध का समर्थन नहीं किया जा सकता। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर अचानक ऐसा क्या हो गया, जिससे युवाओं का गुस्सा इस तरह फूट पड़ा कि समझाने-बुझाने की कोशिशें भी कामयाब नहीं हो पा रही हैं। चूंकि यह आंदोलन स्वत:स्फूर्त ढंग से शुरू हुआ है और इसका कोई स्पष्ट नेतृत्व नहीं है, इसलिए मांगों को लेकर भी वैसी स्पष्टता नहीं दिख रही है। बहुत से अभ्यर्थी कह रहे हैं कि पहले चरण के टेस्ट के बाद अब दूसरे चरण की परीक्षा लेना उनके साथ धोखा है।
लेकिन रेलवे का दावा है कि मूल नोटिफिकेशन में भी यह बात कही गई थी कि जरूरत हुई तो दूसरे चरण की परीक्षा ली जा सकती है। दूसरा मसला चुने गए अभ्यर्थियों की क्वॉलिफिकेशन से जुड़ा है। चूंकि इसमें लेवल 2 से लेवल 6 तक के पद शामिल हैं तो इसमें अभ्यर्थियों की पात्रता भी दो लेवल- ग्रेजुएट और अंडर ग्रेजुएट- की है। दरअसल, किसी भी लोकतांत्रिक देश में प्रशासन तक अपनी बात पहुंचाने के लिए जनता विरोध का सहारा लेती है। यह एक ऐसा अधिकार है, जो संविधान द्वारा देश के नागरिकों को हासिल है। लोकतंत्र का एक मजबूत स्तंभ है यह। इतिहास के पन्ने बताते हैं कि ऐसे विरोध सफल हुए हैं। अंग्रेजी हुकूमत का विरोध हमें आजादी की सौगात दे गया। जाहिर है, छात्र नाराज हैं। उनको लग रहा होगा कि उन्होंने शिक्षा तो हासिल कर ली है, लेकिन अब नौकरी नहीं पा रही। ऐसी स्थिति उत्पन्न होने से रोकने के लिए जरूरी यह है कि रेलवे रिक्रूटमेंट बोर्ड और अन्य नियुक्ति एजेंसियां अपनी प्रक्रिया को दुरुस्त कर जल्दी-जल्दी नियुक्तियां शुरू करें ताकि युवाओं को सचमुच नौकरी मिलती दिखनी भी शुरू हो। वहीं, आंदोलनकारियों की आवाज को कानूनी धाराएं लगाकर नहीं दबाया जाना चाहिए।
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