देर आए, दुरुस्त आए। 378 दिनों के लंबे आंदोलन के बाद किसान संगठनों ने राजधानी दिल्ली की सीमाएं खाली कर दी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा गुरु पर्व के मौके पर तीनों कृषि कानून वापस लेने का ऐलान करने के बाद से आंदोलन की समाप्त की चचार्एं शुरू हो गई थी, लेकिन किसान संगठन अपनी कई अन्य मांगों पर अड़े हुए थे। पिछले कई दिनों से सरकार और किसान नेताओं की लंबी बातचीत के बाद इन पर सहमति बन पाई। किसानों की सबसे बड़ी मांग फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य पर केंद्र सरकार कमेटी बनाएगी, जिसमें संयुक्त किसान मोर्चा के प्रतिनिधि लिए जाएंगे। अभी जिन फसलों पर एमएसपी मिल रही है, वह जारी रहेगी। एमएसपी पर जितनी खरीद होती है, उसे भी कम नहीं किया जाएगा। इस आंदोलन के खत्म होने के बावजूद कुछ सवाल हैं जो आने वाले दिनों में राजनीति और सामान्य किसानों को मथते रहेंगे। इनमें सबसे महत्वपूर्ण यह है कि क्या किसानों को इससे सचमुच फायदा होने जा रहा है?
2015 में शांता कुमार समिति मान चुकी थी कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सिर्फ छह प्रतिशत किसान ही अपनी उपज बेच पाते हैं। ऐसे में सवाल यह है कि बदले माहौल में अगर कोई कानून बनेगा भी तो क्या उसका सचमुच फायदा समूचे किसान आंदोलन को मिलेगा। करीब दो दर्जन फसलों के लिए सरकार एमएसपी घोषित करती है, पर सभी की खरीदारी वह नहीं करती और न सारे देश में खरीदारी होती है। देश में इतने किस्म के कृषि-उत्पाद हैं और अलग-अलग इलाकों की इतनी विविधता है कि पूरे देश के लिए फॉर्मूले बनाने में ही दिक्कतें पेश आएंगी। समय के साथ किसानों की वरीयताएं बदलेंगी, बल्कि बदल चुकी हैं। गेहूं और धान जरूरत से ज्यादा है और तिलहन और दलहन जरूरत से कम। पंजाब में धान की खेती पर अतिशय जोर देने से जमीन के नीचे पानी का स्तर कम होता जा रहा है और पराली जैसी समस्याएं भी खड़ी हो रही हैं। आईआईएम, अहमदाबाद के प्रोफेसर सुखपाल सिंह मानते हैं कि प्राइवेट सेक्टर को एमएसपी के साथ बांधना संभव नहीं ।
एमएसपी की गारंटी सरकार दे सकती है, निजी क्षेत्र नहीं। आम किसानों के बीच सहमति बनाए बगैर तीन कृषि कानून लाने का नतीजा यह हुआ कि कृषि क्षेत्र में सुधार की कोशिश नाकाम हो गई, लेकिन इस नाकामी से कृषि में सुधार की जरूरत कम नहीं हुई है। इससे आंखें मूंदना किसी के लिए भी हितकर नहीं होगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि बदले हालात में सभी पक्ष खुले दिमाग से बातचीत की प्रक्रिया जारी रखते हुए आपसी सहमति की ठोस जमीन तैयार करेंगे और फिर कृषि क्षेत्र में सुधार का वही एजेंडा आगे बढ़ाया जाएगा। निश्चित तौर पर इन सवालों के जवाब में भी भावी किसान आंदोलन, उसकी सफलता और किसानों के हितों का मसला जुड़ा हुआ है। फिलहाल इस आंदोलन का खत्म होना शांति व्यवस्था की तरफ उठने वाला एक कदम भी होने जा रहा है। इसलिए किसान संगठनों की नई घोषणा और सरकार की लचीली नीति का स्वागत ही होना चाहिए।
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