दादी के बीमार होने पर एक महिला को थमाई सोने की गठरी तो वह लेकर हो गई फरार
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पाकिस्तान से रवाना हुई ट्रेन को भारत पहुंचने में लगे थे सात दिन
सच कहूँ/संजय कुमार मेहरा, गुरुग्राम। भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के बाद पाकिस्तान में जो दंगे हुए, उनके प्रत्यक्षदर्शियों, पीड़ितों के मुंह से सुनकर यह सोचने, समझने में देर नहीं लगती कि उन्होंने कितनी यातनाएं झेली थी। 1947 के विभाजन का दर्द: बुजुर्गों की जुबानी सुनकर पता चलता है कि उन्होंने किस तरह से विस्थापित होकर खुद को भारत में स्थापित किया। जिला झांग तहसील मघियाना बंटवारे के समय पाकिस्तान में आ गया था। उस क्षेत्र में रहने वाले उस समय करीब 15 साल के एसएस हंस आज करीब 90 वर्ष के हो गये हैं। भारत-पाक विभाजन के समय से पूर्व की बातें करते हुए वे बताते हैं कि उनके पिता मलिक हुकम चंद हंस वकील थे। उनका अपना बड़ा घर था। घर का अतिथि कक्ष हमेशा मेहमानों से भरा रहता था। वे चार भाई-बहन थे। परिवार में उनकी दादी भी थी। उनके पिता के दो भाई और उनके गांव में खेती की जमीन की देखभाल करने के लिए गांव थरेजा में रहते थे।
पाकिस्तान में शुरू हो गए थे दंगे
एसएस हंस बताते हैं कि एक दिन अचानक उन्हें कुछ जरूरी कपड़ों के साथ घर छोड़ने के लिए कहा गया। ऐसा इसलिए कि पाकिस्तान में दंगे शुरू हो गए थे। वे सब घर से उस ट्रेन में सवार होने को चल दिए, जो पाकिस्तान से भारत जाने को तैयार थी। उनके पिता अपने भाइयों के परिवारों को लेने के लिए कुछ सेना के जवानों के साथ गांव गए थे। क्योंकि उनके दोनों भाइयों का कुछ महीने पहले निधन हो गया था।
परिवार के छह सदस्य भारत के लिए चले
एसएस हंस के मुताबिक वे छह सदस्य खुद, उनकी दादी, मां, दो छोटे भाई और बहन किसी तरह ट्रेन तक पहुंचे। उन्होंने अपने साथ बंडल (गठरी) ली, जिसमें एक किलो यानी 100 तोला से अधिक सोना था। हंस बताते हैं कि उनकी दादी की तबीयत ठीक नहीं थी। उन सबको ट्रेन की छत पर जगह मिल सकती थी, क्योंकि ट्रेन बहुत अधिक भरी हुई थी। किसी तरह से वे ट्रेन में सवार हुए और ट्रेन कुछ सेना के जवानों साथ रवाना हुई।
लोग बोले, बीमार दादी को यहीं छोड़ दो
एसएस हंस बताते हैं कि रास्ते में उनकी दादी को डायरिया हो गया। लोगों ने कहा कि उन्हें वहीं छोड़ दो। लेकिन हम अपनी प्यारी दादी को इस तरह नहीं छोड़ सकते थे। ट्रेन को भारत पहुंचने में सात दिन लगे। रास्ते में उनकी दादी की मृत्यु हो गई। पीने के लिए पानी तक नहीं मिला। श्री हंस के मुताबिक अपनी दादी को श्रद्धांजलि देने के लिए कुछ रस्में करनी थी। उन्होंने एक महिला को सोने की गठरी कुछ समय के लिए रखने को कहा। ट्रेन भारत के पहले स्टेशन अटारी पहुंची। उन्होंने सोने की गठरी वापस लेने के लिए उस महिला को खोजा, लेकिन वह नहीं मिली। पूरा सोने लेकर भाग गई। अटारी के बाद सभी पंजाब के जालंधर शहर पहुंचे। कुछ समय शिविरों में रहे। उनके पिता कुरुक्षेत्र में एक सेटलमेंट कमिश्नर के रूप में चुने गए थे। आखिर में गुरुग्राम उनका स्थायी ठिकाना बना।
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