दुनियाभर में वस्तुओं के उपयोग करो और फेंको कचरा संस्कृति के विरुद्ध शंखनाद हो गया है। दरअसल पूरी दुनिया में इलेक्ट्रोनिक कचरा (ई-कचरा) बड़ी एवं घातक समस्या बनकर पेश आ रहा है। पृथ्वी, जल और वायु के लिए यह कचरा प्रदूषण का बड़ा सबब बन रहा हैं। नतीजतन इससे निजात के लिए यूरोपीय संघ और अमेरिका के पर्यावरण संगठनों ने इलेक्ट्रोनिक उपकरणों की उत्पाद कंपनियों की मनमानी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। वे राइट टू रिपेयर यानी मरम्मत करने का अधिकार की मांग कर रहे हैं। कालांतर में इस मांग के भारत समेत पूरी दुनिया में फैलने की उम्मीद है। भारत को तो विकसित देशों ने ई-कचरा नष्ट करने का डंपिंग ग्राउण्ड माना हुआ है। इस कचरे को नष्ट करने के जैविक उपाय भी तलाशें जा रहे हैं, लेकिन इसमें अभी बड़ी सफलता नहीं मिली है।
अमेरिका एवं यूरोप के कई देशों के पर्यावरण मंत्री विनिर्माण कंपनियों को इस मकसद के प्रस्ताव भेज चुके हैं कि उपकरणों के निर्माता ऐसे इलेक्ट्रोनिक उपकरण बनाएं, जो लंबे समय तक चलें और खराब होने पर उनकी मरम्मत की जा सकें। भारत में भी कई गैर-सरकारी स्वयंसेवी संगठनों ने इस आवाज में अपनी आवाज मिलाना शुरू कर दी है। दरअसल दुनिया के विकसित देश अपना ज्यादातर कचरा भारतीय समुद्र में खराब हो चुके जहाजों में लादकर बंदरगाहों के निकट छोड़ जाते हैं। इससे भारतीय तटवर्ती समुद्रों में कचरे का अंबार लग गया है। इस ई-कचरे में कम्प्यूटर टीवी, स्क्रीन, स्मार्टफोन, टैबलेट, फ्रिज, वॉशिंग मशीन, इंडेक्षन कूकर, एसी और बैटरियां होते हैं। इस अभियान के बाद अमेरिका में 18 राज्य राइट टू रिपेयर कानून बनाने पर विचार कर रहे हैं।
एक शोध के मुताबिक 2004 में घरेलू कामकाज की 3.5 फीसदी इलेक्ट्रोनिक मशीनें पांच साल बाद खराब हो रही थीं। 2012 में इस खराबी का अनुपात बढ़कर 8.3 प्रतिशत हो गयी। रिसाइक्लिंग केंद्रों पर दस फीसदी से ज्यादा ऐसे उपकरण आए, जो पांच साल से पहले ही खराब हो गए। यूरोप में बिकने वाले कई लैंपो में बल्ब बदलने का विकल्प नहीं है। नतीजतन बल्ब खराब होने पर पूरा लैंप बदलना पड़ता है। कम्प्यूटर, लेपटॉप, टैबलेट और मोबाइल के निरंतर नए-नए मॉडल आने और उनमें नई सुविधाएं उपलब्ध होने से भी ये उपकरण अच्छी हालत में होने के बावजूद उपयोग के लायक नहीं रह जाते। लिहाजा ई-कचरे की मात्रा लगातार बढ़ रही हैं। एक अनुमान के मुताबिक 2018 में दुनियाभर में पांच करोड़ टन ई-कचरा इकट्ठा हुआ। इस कचरे को एक जगह जमा किया जाए तो माउंट ऐवरेस्ट से भी ऊंचा पर्वत बन जाएगा अथवा 4500 एफिल टावर बन जाएंगे। ई-कचरा पैदा करने में भारत दुनिया का पांचवां बड़ा देश है। भारतीय शहरों में पैदा होने वाले ई-कचरे में सबसे ज्यादा कम्प्यूटर और उसके सहायक यंत्र होते हैं। ऐसे कचरे में 40 प्रतिशत शीशा और 70 प्रतिशत भारी धातुएं होती हैं। कई लोग इन्हें निकालकर आजीविका भी चला रहे हैं।
आज ई-कचरा, जिसमें बड़ी मात्रा में प्लास्टिक के उपकरण भी शामिल हैं, नष्ट करना भारत समेत दुनिया के देशों के लिए मुश्किल हो रहा है। इस ई-कचरा या ई-वेस्ट को जैविक रूप से नष्ट करने के उपाय तलाशें जा रहे हैं।
इस कचरे का दूसरा सकारात्मक पहलू सोना व अन्य उपयोगी धातुएं उगालना भी है। ई-कचरे से 264 करोड़ का सोना हाल ही में निकाला गया है। हम सभी जानते हैं कि दुनिया की सबसे बड़ी स्मार्टफोन निर्माता कंपनी एपल है। एपल ने अपने ही कबाड़ में बदले स्मार्टफोन और कंप्यूटर्स से सोने का खजाना ढूंढ़ निकाला है। कंपनी ने इस बेकार हो चुके कचरे को पुनर्चक्रित करके बड़ी कमाई घर बैठे करने में सफलता हासिल की है। इस प्रक्रिया से कंपनी ने करीब 40 मिलियन डॉलर, मसलन 264 करोड़ रुपए सोने के रूप में कमाए हैं। इसके अलावा करीब 580 करोड़ का इस्पात, एल्युमीनीयम, ग्लास और अन्य धातुई तत्व निकालने में कामयाबी हासिल की है। एपल के इस रचनात्मक खुलासे के बाद अच्छा है, केंद्र व राज्य सरकारें युवाओं को ई-कचरे से सोना एवं अन्य धातुएं निकालने की तकनीक सिखाएं और स्टार्टअप के तहत इस कचरे को पुनर्चक्रित करने के संयंत्र लगाने के लिए प्रोत्साहित करें।
क्योंकि इलेक्ट्रोनिक उपकरणों के उत्पादन और उनके नष्ट होने की प्रक्रिया निररंतर चलने वाली है। ये संयंत्र यदि देश के कोने-कोने में लग जाते हैं तो इनके संचालन में कठिनाई आने वाली नहीं है। वह इसलिए क्योंकि अब स्मार्टफोन और कंप्यूटर्स गांव-गांव उपयोग में लाए जा रहे हैं। इसलिए बेकार हो चुके उपकरणों के रूप में कच्चा माल भी स्थानीय स्तर पर ही मिल जाएगा और पुनर्चक्रण के बाद जो सोना-चांदी, इस्पात, जस्ता, तांबा, पीतल, एल्युमीनियम आदि धातुएं निकलेंगी उनके खरीददार भी स्थानीय स्तर पर ही मिल जाएंगे। वैसे भी ये धातुएं और इनसे बनी वस्तुएं रोजमर्रा के जीवन में इतनी जरूरी हो गई हैं कि उच्च, मध्य और निम्न, यानी हर वर्ग के व्यक्ति के लिए इनकी आवश्यकता बनी ही रहती है। इन संयंत्रों के लगने से धरती व जल-स्त्रोत प्रदूशित होने से बचेंगे। यदि कचरा बिना कोई उपचार किए धरती में गड्ढे खोदकर दफना दिया जाता है तो इससे कालांतर में लैंडफिल नामक समूह की खतरनाक गैसें निकलती हैं। इन गैसों का उत्सर्जन धरती और मानव स्वास्थ्य के लिए तो जबरदस्त हानिकारक है ही, इलेक्ट्रोनिक उपकरणों के लिए भी हानिकारक है।
इलेक्ट्रोनिक उपकरणों के विशेषज्ञों का मानना है कि औसतन एक स्मार्टफोन में 30 मिली ग्राम सोना होता है। यह फोन के सर्किट बोडर््स और इंटरनल कंपोनेंट्स में होता है। एपल ऐसे लाखों आईफोन्स और कंप्यूटर्स की रीसाइक्ंिलग करता है, जिनमें सोना होता है। यह भी संभव है कि एपल ने बड़ी संख्या में अपने निगरानी एडिशंस को पुनर्चक्रित किया हो, जिनमें 18 कैरेट की गुणवत्ता वाले तकरीबन 50 ग्राम सोने का इस्तेमाल होता है। साफ है, समस्या बने ई-कचरे को यदि पुनर्चक्रित करने के संयंत्र बड़ी संख्या में लगाए जाते हैं तो बड़े पैमाने पर युवा तकनीकियों को रोजगार तो मिलेगा ही, देश बड़े स्तर पर इस कचरे को नष्ट करने के झंझट से भी मुक्त होगा। इसलिए इस कचरे को एक रोजगार उपलब्ध कराने वाले संसाधन के रूप में देखने की जरूरत है।
औसतन एक टन ई-कचरे के टुकड़े करके उसे यांत्रिक तरीके से पुनर्चक्रित किया जाए तो लगभग 40 किलो धूल या राख जैसा पदार्थ तैयार होता है। इसमें अनेक कीमती धातुएं समाहित रहती हैं। इन धातुओं के पृथक्करण की प्रक्रिया में हाथों से छंटाई, चुंबक शक्ति से विलगीकरण, विद्युत-विच्छेदन, सेंट्रीफ्यूजन और उलट आॅस्मोसिस जैसी तकनीकें शामिल हैं। लेकिन ये तरीके मानव शरीर और पर्यावरण को हानि पहुंचाने वाले हैं, इसलिए इस हेतु बायो-हाइड्रो मेटललर्जिकल तकनीक कहीं ज्यादा बेहतर है। इस तकनीक को अमल लाते वक्त सबसे पहले बैक्ट्रीरियल लीचिंग प्रोसेस; बायो लीचिंगद्ध का प्रयोग करते हैं। इसके लिए ई-कचरे को बारीक पीसकर उसे जीवाणुओं के साथ रखा जाता है। बैक्टीरिया में मौजूद एंजाइम कचरे में उपस्थित धातुओं को ऐसे यौगिकों में बदल देते हैं कि उनमें गातिषीलता पैदा हो जाती है। बायो-लीचिंग की विधि में जीवाणु कुछ विशेष धातुओं को अलग करने में मदद करते हैं। हालांकि एपल द्वारा ई-कचरे से सोना निकालने की जानकारी आने के पहले से ही कई प्रकार के जीवाणुओं और फफूंद का उपयोग प्रिटेंड सर्किट बोर्ड से शीशा, तांबा और टिन को अलग करने के लिए किया जाता रहा है। इस हेतु जीवाणुओं की बेसिलस प्रजातियां मसलन सेक्रोमाइसिस सिरेविसी, यारोविया लाइपोलिटिका प्रयोग में लाई जाती हैं।
पुनर्चक्रित प्रक्रिया के लिए भौतिक-रासायनिक और उश्मा आधारित तकनीकें भी उपलब्ध हैं, किंतु जैविक तकनीक की तुलना में इनकी सफलता कम आंकी गई है। हालांकि भारत में ई-कचरे के पुनर्चक्रण के संयंत्र दिल्ली, मेरठ, बैंगलुरू ,मुबंई, चैन्नई और फिरोजाबाद में लगे हुए हैं। लेकिन जिस अनुपात में ई-कचरा निकलकर पर्यावरणीय संकट बना हुआ है,उस अनुपात में ये संयंत्र ऊंट के मुंह में जीरे के समान हैं। इसलिए ई-कचरे की पुनर्चक्रण संयंत्र लगाने की जबावदेही ई-कचरा उत्पादन कंपनियों को भी सौंपने की जरूस्रत है। यदि पुनर्चक्रण के ये संयंत्र स्थान-स्थान पर स्थापित कर दिए जाते हैं तो कचरे का निपटारा तो होगा ही, कच्चे माल की कीमत कम होने से वस्तुओं के दाम भी कमोबश सस्ते होंगे। साथ ही पृथ्वी, जल और वायु प्रदूषण मुक्त रहेंगे।
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