कृषि पर्यटन केंद्रों से ग्राम्य व शहरी जीवन को संदेश देना जरूरी
-
अपनी पौराणिकता से अनजान है, आधुनिक पीढ़ी
सच कहूँ/संजय मेहरा, गुरुग्राम। 21वीं सदी में पहुंचकर पाश्चात्य संस्कृति के पीछे दौड़ रही आज की युवा पीढ़ी अपनी संस्कृति से बहुत दूर निकल चुकी है। यही हाल रहा तो आने वाली पीढ़ियों को तो तस्वीरों के माध्यम से ही अपनी पौराणिक वस्तुओं का ज्ञान कराकर एक रस्म-सी अदा करनी पड़ेगी। इसी को देखते हुए ग्रामीण एवं शहरी युवाओं को कृषि प्रधान देश के जीवन के सभी क्षेत्रों में पारंपरिक और आधुनिक कृषि पारिस्थितिकी तंत्र से परिचित कराने की सख्त जरूरत है। सभ्यता, संस्कृति के जानकारों की मानें तो पिछले लगभग चार दशकों से ग्रामीण पारिस्थितिकी तंत्र से शहरी वातावरण में जन शक्ति का बड़े पैमाने पर पलायन हो रहा है।
ज्ञान-आधारित सूचना प्रौद्योगिकियों के संयोजन में कृषि प्रौद्योगिकियों में ग्रामीण भौतिक प्रथाओं का बड़े पैमाने पर मशीनीकरण के लिए परिवर्तन शुरू चुका है। देश में हर किसी को पुरानी प्रथाओं का उचित ज्ञान और आईटी आधारित आधुनिक प्रथाओं और मशीनों के साथ उचित समन्वय से परिचित कराना बहुत आवश्यक है। प्रो. राम सिंह (पूर्व, निदेशक, मानव संसाधन प्रबंधन और पूर्व, प्रमुख, कीट विज्ञान विभाग, चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार) 1960 के मध्य से 2021 तक दोनों ग्रामीण और शहरी कृषि पर्यावरण के साक्षी हैं। उन्होंने अनुभव किया है कि पहले के ग्रामीण पर्यावरण का पारंपरिक ज्ञान नई पीढ़ी और शहरी युवाओं को प्राप्त करने के लिए आज कोई विकल्प नहीं है। हमारे कृषि पारिस्थितिकी तंत्र को संरक्षित करने, बदलने और वर्तमान समाज में एकीकृत करने के लिए कृषि पर्यटन एक अच्छा विकल्प है। प्रो. सिंह ने आधुनिक पीढ़ी के युवाओं में कृषि सामग्री की जानकारी और ज्ञान की कमी पर कुछ प्रकाश डाला है।
पशुओं में भी नहीं बता पाएंगे भेद
घरेलू पशुओं के संबंध में अर्धनगरीय, शहरी और यहां तक कि अंग्रेजी/कान्वेंट स्कूली शिक्षा में गांवों के बच्चे भैंस और काली गाय में अंतर या पहचानना मुश्किल हो सकता है। इसी तरह अगर हम पूछें कि बैल, कटड़ी, कटड़ा, खारकी, बछड़ा, बछड़ी, सांड में क्या अंतर है, तो वे बताने में असफल हो जाएंगे। इसी तरह फसलों के संबंध में शहरी युवा एक ही परिवार के तोरई, घीया, तरबूज और खरबूजा के पत्तों में अंतर नहीं बता पाएंगे। आधुनिक युवा जौ, जई, गेहूं, बाजरा, मक्का, ज्वार और चावल इत्यादि लोकप्रिय अनाजों के पौधों के बीच अंतर करने में सक्षम नहीं हैं।
पौधों व बीजों का अंतर भी नहीं पहचानते
दलहनी फसल के पौधों और बीजों में अभी भी बड़ा भ्रम है। खेत में बहुत से लोग मूंग, उड़द, सोयाबीन, मसूर, चना, काबुली चना, अरहर, भाकला, लोबिया, बीन्स, मटर में अंतर नहीं कर पाते। इसी प्रकार मूली, शलगम, पत्तागोभी, फूलगोभी, सलाद पत्ता, खोलरबी, गांठ गोभी, ब्रसेल्स स्प्राउट्स, सरसों, तोरिया, तारामीरा आदि के पौधों की पहचान करने में लोगों को कठिनाई होती है।
नहीं जानते पौधों में जमीन के नीचे क्या लगता है, ऊपर क्या
सब्जियों की कंद की फसलें (जड़ फसल) और जमीन ऊपरी सब्जियां/फलों को लेकर लोगों में सबसे अधिक भ्रम है। समाज में बहुत से लोग नहीं जानते कि टमाटर, बैंगन, खीरा, मिर्च, शिमला मिर्च जैसी महत्वपूर्ण सब्जियां जमीन के ऊपर पौधों के हवाई भागों में फल देती हैं। आलू, शकरकंदी, हल्दी, शलगम, गाजर, मूली, प्याज, लहसुन, अदरक, मूंगफली आदि पौधों की जड़ों में लगती हैं। फलों, बागवानी पौधों और पेड़ों की पहचान के ज्ञान की कमी पूरी तरह से अपर्याप्त है। प्रो. सिंह के मुताबिक 70 के दशक में भी कुछ भ्रम थे, जब उन्होंने अपने शहरी वर्ग के साथी से पूछा कि चने का पौधा कितना लंबा होता है, तो उन्होंने जवाब दिया कि शीशम के पेड़ की ऊंचाई के बराबर। यह उनकी गलती नहीं थी, बल्कि विशुद्ध रूप से कृषि पर्यावरण संपर्क की कमी थी।
युवाओं के पास नहीं है इन शब्दों के अर्थ
गांवों में भी अगर किसी आधुनिक युवा से कुछ शब्दों और वस्तुओं के बारे में पूछा जाता है, वे इनके बारे में बिल्कुल अनजान हैं। जैसे फाली, हाली, पाली, जाली, अलसी, करसी, फल्सी, जेली, तेओंगली, गोपिया, गंडासी, टोका, जोंडा, जोला, टाट्टा, टिंडी, टिड्डी, ईंडी, मिंडी, मटिंडी, जेर, खीस, बलध, गिरड़ी, बधवाड़ छोड़ना, पाड़े काटना, रमझोल, मुकलावा, सांटा, चोका, दसूटन, संडासी, दांती, खुर्पा, कसोला, ओरणा, पोरा, भार, गठड़ी, पांड, पंडोकली, झोला, बस्ता, कंबल, लोई, दोसाला, पातल, लासी, साग, गुड़, गोर, गोरी, बेरड़, होदी, चबचा, खुटला, कोठी, ठेका, कूप, गोसा, थेपड़ी, गोसा, बिटोड़ा, गोबर, लीद, मींगण, बिलोणी व रई इत्यादि।
ये हैं देसी खान-पान की चीजों के नाम
घी-बूरा, हलवा, चूरमा, राबड़ी, सत्तू, सुहाली, मगज लड्डू, बूंदी लड्डू, चके, खांड, शक्कर, गोंद, राब और कई अन्य व्यंजन जो कि पारंपरिक मूल्य वर्धित खाद्य उत्पाद हैं। जैसे कि गुलगुला, मालपूआ, छिलरे और विभिन्न प्रकार के पकोड़े। इसी तरह नोराते, सानी, भूसा, कोली, छाज, छलनी, झारना, दांत, बाड़ करना, जूणा, पसर खोलना, सांकल, कुंडी, डीखर, जाड़, ड्योल, खाल भी सामान्य बोलचाल में होते थे।
ये पक्षी व कृषि यंत्र भी रहे हैं प्रचलित
इसी तरह तीतर, काला तीतर, मुर्गी, बत्तख, कौवे, गिद्ध, चील, बिल्लियां, कुत्ते, घोड़े, खच्चर, गधे, बंदर, बैल, भैंस आदि पशुओं के इन नामों के अलावा घुंघरू, टाली, गांडली, नेजा, ज्योड़ी, गुलामा, नयना, नकेल, तरनाल, लगाम, रहट, गुरलू, दोघड़, मटका, घड़वा, फावड़ा, बंटा, टोकणी, सराना, खंडका, तम्बा, भोथा, तहमद, कुर्ता, जूती, खोंसड़े, औहना, चुंदड़ी, घाघरा, पौंची, पैंडल, चुटकी, चेन, नोहरा, दलहीज, चौपाड़, हेली, चौबारा, झोंपड़ी, कोल्हू, बारड़ी, कुरड़ी, मंजोली, रथ, गढ़वाला, झोटा-बुगी भी हमारे ग्रामीण समाज के अभिन्न अंग थे।
ध्यान नहीं दिया तो पूरी तरह लुप्त हो जाएंगी ये चीजें
अगर हमें मानव जाति की स्थिरता कायम रखनी है तो इन सभी शब्दों और सामग्रियों की आज भी बहुत प्रासंगिकता है। यदि हम वर्तमान में उचित ध्यान नहीं देते हैं तो उपर्युक्त वस्तुओं को फिर से खोजना मुश्किल हो सकता है। सभी शब्द और सामग्रियां कम लागत और टिकाऊ कृषि के लिए आवश्यक हैं। प्रो. राम सिंह का सुझाव है कि एक से दो हेक्टेयर सरकारी भूमि पर कम से कम हर 15 किलोमीटर के दायरे में गांवों के समूहों में कृषि पर्यटन केंद्र स्थापित किए जाएं, ताकि फसलों और सामग्रियों से हमें एकीकृत ग्रामीण पर्यावरण पारिस्थितिकी तंत्र का वास्तविक अर्थ समझने में मदद मिले। इस तरह इन स्थायी केंद्रों का स्कूल, कॉलेजों और अन्य आगंतुक इन सुविधाओं का दौरा करते रहें। उचित योजना बनाकर ये कृषि पर्यटन केंद्र आत्मनिर्भर बन सकते हैं। पूरे राज्य में एक या दो केंद्र जनता को शिक्षित करने के लिए घोर अपर्याप्त हैं।
1970 से पहले होती थी जैविक व टिकाऊ खेती: प्रो. राम सिंह
प्रो. राम सिंह के मुताबिक वर्ष 1970 से पहले देश में हर जगह जैविक और टिकाऊ खेती होती थी। वर्तमान समय में बढ़ती मानव आबादी की खाद्य आवश्यकता को पूरा करने के लिए कृषि पद्धतियां अत्यधिक उत्पादक लेकिन एक स्तर बनाए रखने के लिए अपर्याप्त हैं। प्रो. सिंह का दृढ़ विश्वास है कि अब मानव जनसंख्या वृद्धि व विश्व के प्रत्येक जानवर और पौधे के लिए स्थायी पारिस्थितिकी तंत्र के बीच उचित संतुलन बनाने का समय है। यदि मानव जाति अपना कर्तव्य करने में विफल रहती है तो प्रेरक प्रकृति जल्द से जल्द एक संतुलन बहाल करने के लिए बाध्य है। यानी प्रकृति अपना संतुलन खुद बना लेगी। यह कथन न तो दार्शनिक है और न ही अव्यावहारिक, बल्कि एक कड़वा सत्य है।
अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और Twitter, Instagram, LinkedIn , YouTube पर फॉलो करें।