नए साल के पहले ही दिन संसद से मुस्लिम महिलाओं के लिये निराशा से भरी खबर आई। असल में गुजरते साल के आखिरी दिन संसद के ऊपरी सदन राज्यसभा में तीन तलाक बिल पेश भी नहीं किया जा सका। कारण राजनीतिक विभेद, मुस्लिम मर्दों का तुष्टिकरण और हंगामे की निरंतर एवं शायद अन्तहीन परंपरा। कांग्रेस समेत विपक्षी दलों की पुरानी जिद बरकरार रही कि बिल संसद की स्थायी या प्रवर समिति को भेजा जाए।
नेता प्रतिपक्ष गुलाम नबी आजाद ने समिति में चर्चा के बाद सदन में बिल को पारित करने का आश्वासन दिया है, तो समिति के बजाय संसद में ही चर्चा करने में क्या दिक्कत है? राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश आसन से नसीहत देते रहे कि पूरा देश देख रहा है कि संसद के उच्च सदन में शोर और हंगामा मचाया जा रहा है। राष्ट्रीय महत्त्व का बिल है, जिसे लोकसभा में पारित किया जा चुका है और अब राज्यसभा में उस पर बहस की जानी है, लेकिन किसी भी सांसद के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। सभी की प्रतिबद्धताएं और उनके पूर्वाग्रह अपने-अपने हैं। राष्ट्र प्राथमिकता में रहता ही नहीं। अंतत: हंगामे और चीखा-चिल्ली के मद्देनजर राज्यसभा की कार्यवाही स्थगित करनी पड़ी।
अदालत के फैसले के बावजूद 477 मुस्लिम औरतों को तीन तलाक का शिकार होना पड़ा।
तीन तलाक एक सियासी, मजहबी, चुनावी मुद्दा ही नहीं है, बल्कि सामाजिक और लैंगिक न्याय के मद्देनजर एक बेहद नाजुक सरोकार है। यह एक कुरीति भी है, जिसे कुरान में पाप माना गया है। तीन तलाक पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में एक न्यायाधीश ने सवाल भी किया था कि जो कुरान में पाप है, वह कानून में भी पाप क्यों नहीं होगा? नतीजतन ऐसे पाप को अवैध, असंवैधानिक करार दिया गया था और इस मुद्दे पर कानून बनाने का सुझाव भी दिया था, लेकिन कुरीति इतनी है कि शीर्ष अदालत के फैसले के बावजूद 477 मुस्लिम औरतों को तीन तलाक का शिकार होना पड़ा।
क्या ऐसी दुरावस्था पर सरकार और संसद खामोश रह सकती थी? करीब 48 फीसदी मुस्लिम औरतें अशिक्षित हैं, करीब 82 फीसदी के पास कोई संपत्ति नहीं है, करीब 73 फीसदी गृहिणी हैं और करीब 45 फीसदी घरेलू हिंसा की शिकार हैं। क्या वे लैंगिक इंसाफ, गरिमा, सम्मान और सुरक्षित वैवाहिक जीवन की हकदार नहीं हैं? यह सामाजिक लड़ाई लड़ने के बजाय ज्यादातर विपक्षी दलों का आरोप है कि तीन तलाक के मुद्दे का अपराधीकरण किया जा रहा है। कांग्रेस की दलीलों को स्वीकार करते हुए सरकार ने तीन तलाक को जमानती बनाया, शौहर-बीवी के दरमियान समझौते लायक बनाया, तीन तलाक के संदर्भ में सिर्फ पीडित पत्नी या उसके सगे परिजन ही प्राथमिकी दर्ज करा सकेंगे। जमानत और समझौते के अधिकार प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट को दिए गए हैं।
तीन तलाक के मुद्दे पर विभाजन और सियासी मतभेद राज्यसभा में स्पष्ट दिखाई दिए। मुस्लिम औरतों ने सोचा होगा कि तीन तलाक का बिल राज्यसभा में भी पारित हो जाएगा। यह कानून की शक्ल लेगा और उसके जरिए उन्हें वैवाहिक नरक से निजात मिलेगी। विडंबना है कि कानूनन आदेश तो सर्वोच्च न्यायालय पहले ही दे चुका है, लेकिन नए साल की पूर्व संध्या तक तीन तलाक जारी रहे हैं। मुस्लिम औरतों ने भी ख्बाव देखा होगा कि वे भी गरिमा और सम्मान से अपना दांपत्य जीवन जी सकेंगी, बच्चे भी लावारिस नहीं होंगे। परंपराओं से चली आ रही एक कुप्रथा के अंत की शुरूआत हो सकेगी। इस तरह नए साल में खुशियां बटोरने के सपने मुस्लिम महिलाओं ने भी देखे थे, लेकिन राज्यसभा में बिल ही पेश करने की नौबत नहीं आई। संसद में स्वास्थ्य, शिक्षा, कुपोषण, पर्यावरण और बुनियादी रोजगार सरीखे बेहद संवेदनशील मुद्दों पर सम्यक बहस होने के दिन ही लद चुके हैं। खानापूर्ति और दिखावे के लिए कुछ बिल शोर के बावजूद पेश किए जाते रहे हैं।
हंगामे और नारेबाजी के दौरान ही कुछ ही मिनटों में विधेयक ध्वनिमत से पारित घोषित कर दिए जाते रहे हैं। तीन तलाक के मुद्दे पर वह भी नहीं हो सका। गौरतलब यह है कि एक पूरे समुदाय की आधी दुनिया का सरोकार है कि उसके वैवाहिक अधिकारों को संवैधानिक संरक्षण मिले, लेकिन राजनीतिक दल शेष आधी दुनिया, यानी मुस्लिम मर्दों के भी वोट नहीं खोना चाहते, लिहाजा स्पष्ट विरोध के बजाय संसद में हंगामा मचाते हैं। नतीजतन उस चिल्ल-पौं में कई मकसद गुम होकर रह जाते हैं। यह स्वीकार्य नहीं होना चाहिए।
प्रमुख विपक्ष ने लोकसभा में बहस की है, अपने संशोधन भी पेश किए हैं, 2017 में बिल का लोकसभा में ही कांग्रेस ने समर्थन किया था, तो राज्यसभा में सांप क्यों सूंघ जाता है? कांग्रेस ने जो बुनियादी सुझाव दिए थे, उन्हें नए बिल में पिरोया गया है। अब अधिकार मजिस्टेÑट को दिए गए हैं कि वह दोषी को जमानत दे सकते हैं। तलाकशुदा पत्नी या उसके परिजन ही एफआईआर दर्ज करा सकेंगे। सवाल है कि कांग्रेस और विपक्षी दल प्रवर समिति में और किन बिंदुओं पर चर्चा चाहते हैं? तीन तलाक के स्वेच्छाचारी मर्दों को जेल की सलाखों के पीछे क्यों न भेजा जाए?
क्या कांग्रेस समेत विपक्ष मजिस्ट्रेट को भी मान्यता देने को तैयार नहीं हैं? पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान इंडोनेशिया, कतर, ईरान-इराक, संयुक्त अरब अमीरात, सूडान, मिस्र आदि 22 इस्लामी और अन्य देशों में तीन तलाक पर पाबंदी है या अदालती दखल के बिना यह संभव नहीं है, लेकिन हिंदोस्तान सरीखे धर्मनिरपेक्ष देश में करीब 8.4 करोड़ मुस्लिम औरतें तीन तलाक से पीड़ित या प्रभावित हैं। क्या मुस्लिम पत्नी के कोई मानवाधिकार नहीं हैं? या वे सड़क पर धक्के खाने को ही बनी हैं अथवा बच्चों समेत वे कहां जाएं? यदि संसद इन मुद्दों को संबोधित नहीं करेगी, तो पीड़ित मुस्लिम औरतें कहां जाएं? लोकसभा से बिल पारित होने के बाद उनकी उम्मीद जगी है, लेकिन अंतिम अग्पिरीक्षा राज्यसभा में ही होगी।
वहां बहुमत के लिए 123 सांसदों का समर्थन अनिवार्य है, लेकिन भाजपा के 73 सांसद मिलाकर एनडीए के पक्ष में कुल 86 सांसद हैं, जबकि कांग्रेस के 50 समेत यूपीए और अन्य को 108 सांसदों का समर्थन हासिल है। अब उच्च सदन में मानवीय भावनाओं के आधार पर ही पाले बदले जा सकते हैं। साफ है, सरकार के पास तीन तलाक बिल पर जारी अध्यादेश को संसद में पारित कराने के लिए सिर्फ 8 जनवरी तक का समय है. अगर सरकार इसे 8 जनवरी तक राज्यसभा में पारित नहीं करा पाई तो उसे फिर से अध्यादेश लाने पर विचार करना होगा।
संतोष कमार भार्गव
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