पता नहीं क्यों, हमारे नेताओं को 1947 का बंटवारा कैसे भूलता जा रहा हे। यदि देश का बंटवारा केवल भौगोलिक होता तब शायद इतनी बड़ी त्रासदी घटित न होती। बदकिस्मती से यह बंटवारा धार्मिक था, जिसे कट्टरता ने बर्बरता में बदल दिया। विश्व का सबसे बड़ा नरसंहार 1947 में भारत बंटवारे के वक्त हुआ। इस नफरत ने दोनों देशों के लोगों को बुरी तरह से तोड़कर रख दिया था और सभी ने इस बुरे दौर की निंदा भी की लेकिन अब फिर देश ऐसे दौर में वापिस लौटता दिख रहा है, जहां राजनीतिक विरोधता, धार्मिक विरोधता का रूप धर रही है।
भले ही इस माहौल का राजनीतिक पार्टियों को अवश्य लाभ मिल जाए लेकिन यह देश के लिए कभी न पूरा न होने वाला नुक्सान साबित होगा। कानून बनाने और लागू करने की एक संवैधानिक प्रक्रिया एवं व्यवस्था है। किंतु जब इस प्रक्रिया में धर्म का रंग चढ़ाया जाने लगा तब सहजता से लागू होने वाले कानून भी चुनौतीपूर्ण बन गए। सबसे जोखिम वाली बात यह है कि भूतपूर्व की भांति मुद्दों को धार्मिक रंगत देने का काम अब फिर नेताओं के ही हाथ है। कट्टरता, हिंसा व नफरत के कारण हम विश्व की अव्वल अर्थव्यवस्था के बावजूद कुछ मुद्दों पर गरीब देशों की कतार में खड़े हुए हैं। 21वीं सदी में कट्टरता के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए।
विश्व के छोटे-छोटे देश धर्म व जातिवाद के झगड़ों से बाहर निकलकर सफलता की सीढ़ियां चढ़ रहे हैं। शक्तिशाली देश आर्थिक हितों की लड़ाई लड़ रहे हैं। अमेरिका और यूरोपीय देशों में धर्मों व जातिवाद के विवाद कमजोर पड़ रहे है। कनाडा जैसे देश का रक्षा मंत्री प्रवासी होने पर भी कोई आपत्ति नहीं, वहीं कनाडा में अन्य देशों की भाषाओं को भी सम्मान मिल रहा है। लेकिन भारत में अपनी ही भाषाओं के नाम पर विवाद जारी हैं। हम अनेकता में एकता की मिसाल थे। सभी पार्टियों को स्वार्थ को त्यागकर चाहिए कि आपसी मानवीय रिश्तों, प्रेम एवं विश्वास को बढ़ाएं। आधुनिक युग में कट्टरता को कोई भी स्वीकार नहीं करेगा। विश्व स्तर पर देश की साख को मजबूत करने के लिए हर कदम पर लोकतंत्र को मजबूत करने की आवश्यकता है।
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