दागी उम्मीदवारों को नकारना होगा

Tainted candidates will have to reject

त्रहवीं लोकसभा के महासंग्राम में दागी एवं आपराधिक पृष्ठभूमि के नेताओं को चुनाव लड़ने से रोकने की कोशिशें एक बार फिर नाकाम हो रही हैं, नतीजन इन चुनावों में बड़ी संख्या में ऐसे उम्मीदवार मैदान में हैं। सुप्रीम कोर्ट एवं चुनाव आयोग जैसी संस्थाएं तक राजनीति के इस अपराधीकरण को रोक पाने में एक तरह से बेबस एवं लाचार साबित हुई हैं। यह त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण स्थिति अहसास कराती है कि आखिर लोकतंत्र के अस्तित्व एवं अस्मिता को संरक्षण देने के लिये इन स्थितियों को कब और कैसे रोक पाएंगे। हमारे चुनाव एवं इन चुनावों में आपराधिक तत्वों का चुना जाना, देश का दुर्भाग्य है। राजनीति में आपराधिक तत्वों का वर्चस्व बढ़ना कैंसर की तरह है, जिसका इलाज होना जरूरी है। इस कैंसररूपी महामारी से मुक्ति मिलने पर ही हमारा लोकतंत्र पवित्र एवं सशक्त बन सकेगा।

अपराधी एवं दागी नेताओं को लेकर सुप्रीम कोर्ट एवं चुनाव आयोग इन दोनों ही संस्थाओं ने राजनीतिक दलों को कसने की काफी कोशिशें कीं, लेकिन राजनीतिक दलों की अनदेखी से इन संस्थाओं के प्रयास विफल ही रहे हैं। लेकिन इनके प्रयासों से जनता में जागरूकता बनी है, आम-मतदाता अब समझने लगे हैं कि अगर ऐसे दागी नेताओं को वोट देंगे तो आने वाले वक्त में देश की राजनीति किस दिशा में जाएगी। दागी नेताओं को लेकर सर्वोच्च अदालत ने समय-समय पर जो आदेश दिए हैं, उनसे आम जनता के बीच बड़ा संदेश तो गया है और लोग वोट डालने से पहले उम्मीदवार के बारे में विचार जरूर कर रहे हैं।

सवाल है जब हमारे जनप्रतिनिधि हत्या, हत्या की कोशिश, बलात्कार जैसे संगीन अपराधों में लिप्त रहने वाले लोग होंगे तो उनसे संगठित संसद कैसे आदर्श भारत का निर्माण करेंगी? कैसे राष्ट्रीय मूल्यों को बल मिलेगा? कैसे लोकतंत्र मजबूत बनेगा? इन आपराधिक एवं दागी जनप्रतिनिधियों से देश के उन्नत भविष्य की उम्मीद करना व्यर्थ है। ऐसे दागी नेता सिर्फ जटिल और लंबी कानूनी प्रक्रिया का फायदा उठाकर ही सदनों को सुशोभित करते आए हैं। ऐसा नहीं है कि ऐसे दागी नेताओं से बचा नहीं जा सकता। अगर राजनीतिक दल ठान लें तो ऐसे अपराधियों के लिए राजनीति के दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो सकते हैं। पहली बात तो यह है कि राजनीतिक दलों को आपराधिक पृष्ठभूमि वाले किसी उम्मीदवार को टिकट ही नहीं देना चाहिए। लेकिन चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दल नैतिकता के मानदंडों को ताक पर रख देते हैं। वे इसी घातक प्रवृत्ति को अपनी कामयाबी की कुंजी मानते हैं। लेकिन प्रश्न है कि कब तक देश दागी नेताओं का नेतृत्व झेलता रहेगा?

सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल दागी नेताओं के मामले में सुनवाई के बाद यह व्यवस्था दी थी कि इस बारे में संसद को कानून बनाना चाहिए। लेकिन किसी भी दल ने इस दिशा में कोई पहल नहीं की। संसद में इस मुद्दे पर सारे दल एक साथ खड़े नजर आते हैं। राजनीति में शुचिता की बात करने वाले दलों को आखिर किस बात का डर है? ऐसा कानून बन जाने से अगर दागियों को राजनीति में आने से रोकना है तो इसके लिए राजनीतिक दलों को ही इच्छाशक्ति दिखानी होगी। वरना हमारे सदन अपराधियों का अड्डा ही नजर आयेंगे। ऐसे में लोकतंत्र की मूल अवधारणा को किस स्तर की चोट पहुंचेगी, यह समझना मुश्किल नहीं है।
राजनीति का अपराधीकरण जटिल समस्या है। अपराधियों का राजनीति में महिमामंडन करके राजनीतिक दल एक बार फिर नई दूषित संस्कृति को प्रतिष्ठापित कर

रहे हंै, वह सर्वाधिक गंभीर मसला है। राजनीति की इन दूषित हवाओं ने देश की चेतना को प्रदूषित कर दिया है, सत्ता के गलियारों में दागी, अपराधी एवं स्वार्थी तत्वों की धमाचैकड़ी एवं घूसपैठ लोकतंत्र के सर्वोच्च मंच को दमघोंटू बनायेगी, यह सोच कर ही सिहरन होती है। यह समस्या स्वयं राजनीतिज्ञों और राजनैतिक दलों ने पैदा की है। अत: उनके भरोसे इसका समाधान भी इसी स्तर पर ढूंढने का एक और मौका हम गंवा रहे हैं। राजनीति की शुचिता यानी राजनेताओं के आचरण और चारित्रिक उत्थान-पतन की बहस इन चुनावों में भी किसी निर्णायक मोड़ पर नहीं पहुंच पायी है।

मतदाताओं की उलझन यह है कि उम्मीदवार के आपराधिक पृष्ठभूमि बारे में उन्हें ज्यादा जानकारी नहीं होती। इसी का फायदा उठा कर राजनीतिक दल ऐसे उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतार देते हैं। ऐसे उम्मीदवार धन और बाहुबल की ताकत पर चुनाव लड़ते हैं और जनता के हितों, उससे जुड़े मुद्दों से उन्हें कोई सरोकार नहीं होता। इस बार भी चुनाव मैदान में दागी नेताओं की एक लम्बी श्रृखला है। ऐसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की रिपोर्ट में बताया गया है कि पहले चरण के चुनाव में सत्रह फीसद दागी उम्मीदवार मैदान में थे, इनमें भी बारह फीसद उम्मीदवार ऐसे थे जिनके खिलाफ संगीन मामले चल रहे हैं। हैरानी की बात यह कि इनमें से बारह उम्मीदवारों ने हलफनामें में बताया कि उन पर दोष साबित हो चुके हैं। तीसरे चरण के मतदान में महाराष्ट्र में चैवन ऐसे उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं जिन पर गंभीर आपराधिक मामले चल रहे हैं। यही स्थिति सभी चरणों की हैं। कैसे सत्रहवीं लोकसभा अपराधमुक्त सांसदों से संगठित होगी?

स्वस्थ एवं आदर्श लोकतांत्रिक ढ़ांचे को निर्मित करने के लिये राजनेताओं या चुने हुए जन-प्रतिनिधियों को अपनी चारित्रिक शुचिता को प्राथमिकता देनी ही चाहिए। आपराधिक पृष्ठभूमि के जनप्रतिनिधियों को राष्ट्रहित में स्वयं ही चुनाव लड़ने से इंकार कर देना चाहिए, लेकिन वे ऐसा क्यों करेंगे? लोकतन्त्र में जब अपराधी प्रवृत्ति के लोग जनता का समर्थन पाने में सफल हो जाते हैं तो दोष मतदाताओं का नहीं बल्कि उस राजनैतिक माहौल का होता है जो राजनैतिक दल और अपराधी तत्व मिलकर विभिन्न आर्थिक-सामाजिक प्रभावों से पैदा करते हैं। एक जनप्रतिनिधि स्वयं में बहुत जिम्मेदार पद होता है एवं एक संस्था होता है, जो लाखों लोगों का प्रतिनिधित्व कर उनकी आवाज बनता हैं।

मतदाता को ही जागरूक होना होगा, वह आपराधिक रिकॉर्ड वालों को जनप्रतिनिधि न बनने दे। उसका यही पवित्र दायित्व है तथा वह भगवान और आत्मा की साक्षी से इस दायित्व को निष्ठा व ईमानदारी से निभाने की शपथ लें। दागी प्रत्याशियों पर नियंत्रण जरूरी है क्योंकि लम्बे समय से देख रहे हैं कि हमारे इस सर्वोच्च मंच की पवित्रता और गरिमा को अनदेखा किया जाता रहा है। आजादी के बाद सात दशकों में भी हम अपने आचरण, पवित्रता और चारित्रिक उज्ज्वलता को एक स्तर तक भी नहीं उठा सके। हमारी आबादी करीब चार गुना हो गई पर देश 500 सुयोग्य राजनेता भी आगे नहीं ला सका।

नेता और नायक किसी कारखाने में पैदा करने की चीज नहीं हैं, इन्हें समाज में ही खोजना होता है। काबिलीयत और चरित्र वाले लोग बहुत हैं पर जातिवाद व कालाधन उन्हें आगे नहीं आने देता। राजनीतिक स्वार्थ, बाहुबल एवं वोटों की राजनीति बहुत बड़ी बाधा है। लोकसभा कुछ खम्भों पर टिकी एक सुन्दर ईमारत ही नहीं है, यह डेढ अरब जनता के दिलों की धड़कन है। उसमें नीति-निमार्ता बनकर बैठने वाले हमारे प्रतिनिधि ईमानदार, चरित्रनिष्ठ एवं बेदाग छवि के नहीं होंगे तो समूचा राष्ट्र उनके दागों से प्रभावित होगा। वह राष्ट्र निश्चित रूप से कमजोर हो जाता है।

 

 

 

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