भ्रष्ट अफसरों के खिलाफ कसता शिकंजा

Tightening against the corrupt officials

सीबीआई ने उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर के जिलाधीश अभय सिंह समेत तीन अधिकारियों के यहां छापे डालकर असाधारण कार्यवाही को अंजाम दिया है। भारतीय प्रशासनिक सेवा के किसी अधिकारी के कलेक्टर एवं जिला दंडाधिकारी रहते हुए शायद पहली बार छापा डाला गया है। अभय सिंह के शयन कक्ष से 49 लाख रुपए नगद बरामद हुए हैं। इसी तरह कौशल विकास मिशन के एमडी विवेक कुमार और आजमगढ़ के सीडीओ देवीशरण उपध्याय के आवास समेत 12 ठिकानों पर छापेमारी की गई। उपध्याय के घर से 10 लाख रुपए नगद बरामद हुए हैं।

ये छापे खनन घोटाले की शिकायतों के आधार पर डाले गए हैं। सीबीआई ने इस मामले में इन तीनों आईएएस समेत पूर्व मंत्री गायत्री प्रजापति और पूर्व आईएएस जीवेश नंदन एवं संतोश कुमार सहित 14 लोगों के विरुद्ध प्रकरण पंजीबद किया है। अवैध खनन घोटाला 2012 से 2016 के बीच का है। तब उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी और स्वयं मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के पास खनन मंत्रालय था। इस मामले की जांच इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश पर सीबीआई ने 2017 में शुरू की थी। इसके पहले सीबीआई ने आईएएस चंद्रकला पर हमीरपुर की डीएम रहते हुए कार्यवाही की थी।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ शून्य सहिष्णुता की नीति अपनाई हुई है। लोकसभा चुनाव अभियान में उन्होंने जनता से भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्यवाही के लिए भी जनादेश मांगते हुए कहा था कि जिनके चेहरों पर धूल चढ़ी है, वे आईना साफ करने में लगे हैं। यह लोकोक्ति भ्रष्ट नेताओं और अधिकारियों के संदर्भ में ही कही गई थी। फलत: दोबारा सत्ता में आने के बाद मोदी ने भ्रष्ट आला-अहलकारों के खिलाफ कठोर कार्यवाही करते हुए दो चरणों में 27 अधिकारियों को अनिवार्य सेवानिवृत्ति देकर बाहर का रास्ता दिखा दिया। इन अधिकारियों में आयकर, विक्रयकर, राजस्व और बैंक अधिकारी शामिल है। अब सीबीआई ऐसे लोगों के यहां भी छापे डाल रही हैं, जो हथियारों की तस्करी के अलावा अन्य देशद्रोही व अलगाववादी जैसी आपराधिक गतिविधियों में लिप्त हैं। कश्मीर में ऐसे लोगों के यहां छापामार कार्यवाही करके आतंकी गतिविधियों को नियंत्रित करने में सफलता मिली है।

देश की पहली महिला आईएस सुधा यादव से लेकर मध्य-प्रदेश के अरविंद-टीना जोशी दंपति तक सौकड़ों नौकरशाह भ्रष्टाचार के दलदल में धंसे हैं। वहीं सीबीआई के प्रमुख रंजीत सिंह व एपी सिंह कठघरे में हैं। छत्तीसगढ़ के प्रमुख सचिव बीएल अग्रवाल को भी सीबीआई ने भ्रष्ट कदाचरण में दबोचा था। प्रवर्तन निदेशालय के पूर्व निदेशक जेपी सिंह क्रिकेट की सट्टेबाजी और मनी लॉड्रिंग में हिरासत में लिए गए थे। मध्य-प्रदेश के आईएफएस बीके सिंह पर अनुपातहीन संपत्ति बनाने का मामला विचाराधीन है। यह फेहरिश्त इतनी लंबी है, कि किसी एक आलेख में समा नहीं सकती ? इसीलिए भारत भ्रष्टाचार के मामले में 180 देशों की सूची में 84 वें स्थान के इर्द-गिर्द पर रहता है। इस भ्रष्ट नौकरशाही का बचाव के लिए वे कानून सुरक्षा कवच बने हुए हैं, जो पराधीनता से लेकर अब तक वर्चस्व में हैं।

इस कारण भ्रष्टाचार पर नियंत्रण नहीं हो पा रहा है। चपरासी से लेकर मुख्य सचिव तक ये कानून समान रूप से नौकरशाही का बचाव करते हैं। संविधान के अनुच्छेदों से लेकर उच्च और उच्चतम न्यायालयों की रुलिंग भी इनके लिए सुरक्षा-कवच का काम करते हैं। इसीलिए नौकरशाही इस्पाती ढांचा बना हुआ है। 1030 केंद्रीय और 6227 राज्य अधिनियमों का उपयोग व दुरुपयोग कर नौकरशाही को तो नागरिकों पर नियंत्रिण का अधिकार है, लेकिन जब नागरिक या नागरिक समूह इनकी कार्य-कुशलता या कदाचरण पर थोड़ा ही आक्रामक होते दिखाई देते हैं तो उन्हें सरकारी कार्य में बाधा डालने के आरोप में सींखचों के भीतर कर देने की ताकत ये रखते हैं। शायद इसीलिए संविधान विशेषज्ञ निर्वाचित मंत्रीमंडल को अस्थाई और प्रशासन तंत्र को स्थायी सरकार की संज्ञा देते हैं।

इसीलिए इनसे सरकारी दामाद होने का विशेशण भी जुड़ा हैं। सीबीआई जांच की अनेक विभागों पर निर्भरता, इसकी निष्पक्षता में रोड़ा है। इसका अपना कोई स्वतंत्र अधिनियम नहीं होना भी इसे दुविधा में ला खड़ा करता है। दरअसल 1941 में अंग्रेजों ने दिल्ली पुलिस विधेयक के तहत दिल्ली स्पेशल पुलिस इस्टेब्लिशमेंट एक्ट नाम की संस्था बनाई थी। इसका दायित्व केवल भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों की जांच और उन्हें परिणाम तक पहुंचाना था। आजादी के बाद 1963 में एक सरकारी आदेश के जरिए महज इसका नाम बदलकर केंद्रीय अन्वेशण ब्यूरो कर दिया गया था। यह बदलाव भी संसद से नहीं हुआ, इसलिए इसकी संविधान-सम्मत मान्यता भी नहीं है। इसे एक परंपरा के रूप में ढोया जा रहा है। इसे संवैधानिक रूप देने का विधेयक 35 साल से विचाराधीन है। इसकी धारा-6-ए भ्रष्टाचार निरोधक कानून-1988 के उद्देश्यों और कारणों में अवरोधक का काम करती है। इसकी वैधता पर जनहित याचिकाओं के माध्ययम से सर्वोच्च न्यायालय में सवाल खड़े किए गए हैं, बावजूद यह धारा चीन की दीवार की तरह अडिग है।

इन लौह-कवचों से मिली सुरक्षा का ही परिणाम है कि नौकरशाह भ्रष्ट तो हैं ही, संसद और विधानसभाओं के प्रति भी जवाबदेह नहीं हैं। विडंबना देखिए भ्रष्टाचार नौकरशाह करें, लेकिन विपक्ष निंदा सरकार की करता है। यह निंदा नौकरशाहों की छवि समाज में ठीक-ठाक बनाए रखने का काम करती है। भ्रष्टाचारियों को यह सुविधा भी मिली हुई है कि जब उन पर भ्रष्टाचार का आरोप लगता है, तो उसी विभाग के शीर्शस्थ अधिकारी जांच करते हैं। चूंकि देश में विभागीय भ्रष्टाचार श्रृंखलाबद्व है, इसलिए छोटे अधिकारी को बचाने का दायित्व बड़े अधिकारी का नैतिक कत्र्तव्य बन जाता है।

और तो और राजनेताओं पर लगे भ्रष्टाचार की जांच भी यही अधिकारी करते हैं। इनके द्धार तैयार जांच-रिपोर्ट, साक्ष्य और आरोप पत्र के आधार पर ही अदालत की कार्यवाही निर्भर रहती है। गोया, अब वक्त आ गया है कि भ्रष्टाचार की जांच बाहर की ऐसी समितियां करें, जिनमें सांसद, विधायक, वकील, पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता सदस्य बनाए जाएं। इससे शासन-प्रशासन की कार्यवाही में अपेक्षाकृत पारदर्शिता आएगी और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा। हैरानी यह भी है कि अब तक करीब 200 समीतियां प्रशासनिक सुधार की सिफारिश कर चुकी हैं, किंतु इन्हें टाला जा रहा है।

इस कारण अपवादस्वरूप जो अधिकारी राजनीतिक दबाव से परे वाकई नियमपूर्वक कार्य और विकास के अजेंडे को आगे बढ़ाता है तो राजनेता अपने अधिकारों का हथियार के रूप में इस्तेमाल कर तबादला, पदस्थापना और निलंबन तक की कार्यवाही अनुशासन के बहाने कर देते हैं। अशोक खेमका और दुर्गाशक्ति नागपाल इसके उदाहरण हैं। इसलिए भी लोकसेवकों की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है। जो अधिकारी राजनेताओं के इशारे पर नहीं चलते हैं, उन्हें इस हश्र का सामना करना पड़ता है। बहरहाल समय की मांग है कि मोदी सरकार प्रशासनिक सुधार करने के साथ उन कानूनी विसंगतियों को भी दूर करे, जो भ्रष्ट प्रशासनिक तंत्र के लिए सुरक्षा-कवच बनी हुई हैं। तभी भ्रष्टाचार के परिप्रेक्ष्य में शून्य सहिष्णुता का निर्मित हो पाना संभव होगा।

-प्रमोद भार्गव

 

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