मुसलमानों को आरक्षण का झुनझुना

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लगता है उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती आरक्षण की नाव पर सवार होकर चुनावी वैतरणी पार करना चाहती है। दरअसल समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव से उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव के लिए गठबंधन के बाद उन्हें यह लगने लगा है कि त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में उनके लिए प्रधानमंत्री बनने का रास्ता खुल सकता है। इसलिए उन्होंने मुस्लिमों व अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों को अलग से 10 फीसदी आरक्षण का लाभ देने की मांग उठा दी है। हालांकि सवर्ण जातियों को जो 10 फीसदी आरक्षण की सुविधा सरकारी नौकरियों और शिक्षा में दी गई है, उसमें मुस्लिम समेत अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक शामिल हैं। हालांकि यह चिंगारी सुलगकर ज्वाला बनने वाली नहीं है, क्योंकि सभी जानते हैं कि चुनाव के ठीक पहले उठाई गई यह मांग एक शिगूफा भर है। मुस्लिमों व धार्मिक अल्पसंख्यकों को सच्चर समिति और रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट ने आरक्षण देने की पैरवी की थी। लेकिन संवैधानिक अड़चनों के कारण इस सिफारिश पर अमल नहीं हो पाया।

लिहाजा आरक्षण के टोटके छोड़ने की बजाय किसी भी राजनीतिक दल को यहां सोचने की जरूरत है कि आरक्षण का एक समय सामाजिक न्याय से वास्ता जरूर रहा है, लेकिन सभी वर्गो में शिक्षा हासिल करने के बाद जिस तरह से देश में शिक्षित बेरोजगारों की फौज खड़ी हो गई है, उसका कारगर उपाय आरक्षण जैसे चुक चुके औजार से अब संभव नहीं है।
यदि वोट की रजनीति से परे अब तक दिए गये आरक्षण लाभ का ईमानदारी से मूल्यांकन किया जाए तो साबित हो जाएगा कि जातियों को यह लाभ जिन जातियों को मिला है, उन जातियों का समग्र तो क्या आंशिक कायाकल्प भी नहीं पाया। मायावती को जरूरत है कि मुसलमानों को धार्मिक जड़ता और भाषाई शिक्षा से उबारने के लिए पहले एक राष्ट्रव्यापी मुहिम चलाएं। क्योकि अनेक मुसलमान आधुनिक व वैज्ञानिक शिक्षा को भाषाई शिक्षा प्रणाली पर कुठाराघात मानते हैं।

जबकि तकनीक के युग में मदरसा शिक्षा से बड़े हित हासिल होने वाले नहीं हैं। वंचित समुदाय वह चाहे अल्पसंख्यक हों अथवा गरीब सवर्ण उनको बेहतरी के उचित अवसर देना लाजिमी है, क्योंकि किसी भी बदहाली की सूरत अब अल्पसंख्यक अथवा जातिवादी चश्मे से नहीं सुधारी जा सकती ? खाद्य की उपलब्धता से लेकर शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी जितने भी ठोस मानवीय सरोकार हैं उनको हासिल करना मौजूदा दौर में केवल पूंजी और शिक्षा से ही संभव है। ऐसे में आरक्षण के सरोकारों के जो वास्तविक हकदार हैं, वे अपरिहार्य योग्यता के दायरे में न आ पाने के कारण उपेक्षित ही रहेंगे। अलबत्ता आरक्षण का सारा लाभ वे बटोर ले जाएंगे जो आर्थिक रूप से पहले से ही सक्षम हैं और जिनके बच्चे पब्लिक स्कूलों से पढ़े हैं। इसलिए इस संदर्भ में मुसलमानों और भाषायी अल्पसंख्यकों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने की वकालात करने वाली रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट के भी बुनियादी मायने नहीं हैं। और न ही इसे लागू करने से वास्तविक हकदारों के हक सधने वाले हैं।

वर्तमान समय में मुसलमान, सिख, पारसी, ईसाई और बौद्ध ही अल्पसंख्यक दायरे में आते हैं। जबकि जैन, बहाई और कुछ दूसरे धर्म-समुदाय भी अल्पसंख्यक दर्जा हासिल करना चाहते हैं। लेकिन जैन समुदाय केन्द्र द्वारा अधिसूचित सूची में दर्ज नहीं है। इसमें भाषाई अल्पसंख्यकों को अधिसूचित किया गया है, धार्मिक अल्पसंख्यकों को नहीं। सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के मुताबिक जैन समुदाय को भी अल्पसंख्यक माना गया है। परंतु इन्हें अधिसूचित करने का अधिकार राज्यों को है, केन्द्र को नहीं। इन्हीं वजहों से आतंकवाद के चलते अपनी ही पुश्तैनी जमीन से बेदखल किए गए कश्मीरी पंडित अल्पसंख्यक के दायरे में नहीं आ पा रहे हैं, जबकि वास्तव में वे जम्मू-कश्मीर राज्य के भीतर अल्पसंख्यक हैं। मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह की कांग्रेस सरकार के दौरान जैन धर्मावलंबियों को भी अल्पसंख्यक दर्जा दे दिया गया था, लेकिन अल्पसंख्यकों को दी जाने वाली सुविधाओं से ये आज भी वंचित हैं। इस नाते अल्पसंख्यक श्रेणी का अधिकार पा लेने के क्या राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षिक व आर्थिक निहितार्थ हैं, इन्हें समझना मुश्किल है। यहां तक कि आर्थिक रूप से कमजोर जैन धर्मावलंबियों के बच्चों को छात्रवृत्ति भी नहीं दी जाती।

मिश्र आयोग की रिपोर्ट का मकसद केवल इतना था कि धार्मिक व भाषाई अल्पसंख्यकों के बीच आर्थिक व सामाजिक रूप से कमजोर व पिछडे़ तबकों की पहचान कर अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण सहित अन्य जरूरी कल्याणकारी उपाय सुझाये जाएं। जिससे उनका सामाजिक स्तर सम्मानजनक स्थिति हासिल करे। इस नजरिये से सरकारी नौकरियों में अल्पसंख्यकों का औसत अनुपात बेहद कम है। गोया संविधान में सामाजिक और शैक्षिक शब्दों के साथ पिछड़ा शब्द की शर्त का उल्लेख किये बिना इन्हें पिछड़ा माना जाकर अल्पसंख्यक समुदायों को 15 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था सुनिश्चित की जानी चाहिए। इसमें से 10 फीसदी केवल मुसलमानों को और पांच फीसदी गैर मुस्लिम अल्पसंख्यकों को दिए जाने का प्रावधान तय हो। शैक्षिक संस्थाओं के लिए भी आरक्षण की यही व्यवस्था प्रस्तावित है। यदि इन प्रावधानों के क्रियान्वयन में कोई परेशानी आती है तो पिछड़े वर्ग को आरक्षण की जो 27 प्रतिशत की सुविधा हासिल है, उसमें कटौती कर 8.4 प्रतिशत की दावेदारी अल्पसंख्यकों की तय हो।

यहां संकट यह है कि पिछड़ों के आरक्षित हितों में कटौती कर अल्पसंख्यकों के हित साधना आसान नहीं है। इस रिपोर्ट का क्रियान्वयन विस्फोटक भी हो सकता है। क्योंकि पिछड़ों के लिए जब मण्डल आयोग की सिफारिशें मानते हुए 27 फीसदी आरक्षण का वैधानिक दर्जा दिया गया था, तब हालात अराजक व हिंसक हुए थे। बीते कुछ सालों में गुर्जर, जाट, पटेल, मराठा और कापू समुदाय के लोग भी आरक्षण की मांग लेकर सड़कों पर उतरे और हिंसा व आगजनी की लीलाएं रची गईं। इसलिए धर्म-समुदायों से जुड़ी गरीबी को अल्पसंख्यक और जातीय आईने से देखना बारूद को तीली दिखाना है। अलबत्ता अनुसूचित जाति की जो पहचान हिंदू धर्म की सीमा में रेखांकित है, उसे विलोपित करते हुए जिस धर्म में जो भी दलित हैं उन्हें अनुसूचित जाति के लाभ स्वाभाविक रूप में मिलना चाहिए ? लिहाजा मायावती को आरक्षण के मामले में झूठा दिलासा देने से बचने की जरूरत है, क्योंकि राजनैतिक मकसद का कोई हल इस मुद्दे से हासिल होने वाला नहीं है।

प्रमोद भार्गव
लेखक, साहित्यकार एवं वरिष्ठ पत्रकार

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