Tripurari Art: कभी कैलेंडर के पीछे करते थे कलाकारी, आज हैं कला के त्रिपुरारी

करीब साढ़े तीन लाख बच्चों को सिखा चुके हैं पेंटिंग (Tripurari Art)

  • कहते हैं गुडगांव को गुरुग्राम किया है तो उसका अस्तित्व भी लौटायें

  • अपने घर के निर्माण से लेकर सजावट तक में झलकती है उनकी कला

  • आएसएस के इतिहास की पेंटिंग बनी हैं केशव कुंज की शोभा

  • 500 से अधिक पुस्तकें के अंदर-बाहर पेंटिंग के बनाये हैं डिजायन

  • इंडिया टुडे हिन्दी मैगजीन में डिजायन किया तो अंग्रेजी के एक अखबार में बने मुख्य कार्यकारी डिजायनर

  • अमिताभ बच्चन का आन दा स्पॉट बनाया था स्कैच

गुरुग्राम। एक ही बात सीखी है मैनें आज तक रंगों से, अगर निखरना है तो बिखरना जरूरी है। जीवन के 66 बसंत देख चुके सुधीर गुप्ता (त्रिपुरारी) इसी उद्देश्य और सोच के साथ कला के क्षेत्र में आज माइल स्टोन यानी मील का पत्थर बन चुके हैं। साढ़े तीन लाख से ज्यादा बच्चों को कला में निपुण करने के बाद भी जहन में सोच है कि जब तक जीवन है, वे कला को समर्पित रहें।

सुधीर त्रिपुरारी व्यापारी वर्ग से आते हैं, लेकिन शायद ही उनकी तीन पीढि का ध्यान कभी व्यापार की ओर गया हो। (Tripurari Art) उनके दादा जी त्रिपुर चंद गुप्ता (एडवोकेट) गुरुग्राम में ही वकील रहे, तो सुधीर त्रिपुरारी के पिता कंवर सेन गुप्ता ने भी अपने पिता की ही राह पकड़ी। वे इन्कम टैक्स विभाग में वकील रहे। सुधीर त्रिपुरारी के पिता चाहते थे कि वे भी (सुधीर त्रिपुरारी) वकील ही बनें, लेकिन सुधीर ने शायद अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित कर लिया था। बचपन से ही सुधीर त्रिपुरारी का कला की ओर रुझान था। स्कूल के समय में जब कभी खाली कागज नहीं होते थे तो वे दीवारों पर लगे कैलेंडर के पीछे अपनी कलात्मक इच्छाओं को पूरा करते थे।

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उनके बनाये मोर से ही पड़ा मोर चौक नाम

जवानी की दहलीज पर सुधीर त्रिपुरारी ने कला में बेहतरीन काम किये। गुरुग्राम में उनकी बनाई गई कलाकृतियां आज कला के रूप में बेशक ना हों, लेकिन नाम से तो जिंदा हैं। वर्ष 1984 में उनके द्वारा यहां सिविल लाइन में चौक पर बनाया गया मोर तो चौक से हटाया जा चुका है, लेकिन यह चौक आज भी मोर चौक कहलाता है।

  • सरकारी रिकॉर्ड में तो इसका नाम यहां के पूर्व मंत्री स्वर्गीय सीताराम सिंगला के नाम पर हो गया है।
  • फिर भी लोगों के दिल, दिमाग में यह चौक आज भी मोर चौक ही है।
  • उनका कहना है कि अगर आज उन्हें मौका मिले तो फिर से यहां खूबसूरत मोर बना देंगे।
  • यहां के अलावा उन्होंने बस अड्डे के पास छह साइबेरियन पक्षियों को भी खड़ा किया था।
  • सीमेंट, कंंक्रीट से उन्होंने छह फिट के ये पक्षी तैयार किये थे।
  • उनकी चाहत है कि पेंटिंग के माध्यम से वे अपनी हरियाणवी संस्कृति को शहर में जिवित रखें।
  • 42 साल की उम्र में उन्होंने वर्ष 1977 में त्रिपुरारी कला संगम शुरू किया।

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मुंह बोलती लकड़ी की कलाकृति भी है खास

सुधीर त्रिपुरारी कहते हैं कि अब शरीर में कमजोरी आ गई है, लेकिन जब वे ठीक थे तो लकड़ी पर भी कलात्मक चीजों गढ़ देते थे। उनकी कला के कई नमूने उनके कला केंद्र की आज भी शोभा बढ़ा रहे हैं। लगभग 35 साल पहले की करीब तीन फिट ऊंचाई के एक महिला व पुरुष की लकड़ी की आकृति उनकी कलाओं में से एक है। जिसे वे आज भी अपने बेड़े में संभाल कर रखे हुये हैं। (Tripurari Art) इसके अलावा वे पैंसिल, चारकॉल, पेन-इंक, एक्रेलिक, आॅयल पेंटिंग, पेपर मैशे और म्यूरस पेंटिंग बनाते हैं। खास बात यह है कि वे अब तक साढ़े तीन लाख से अधिक बच्चों को कला में निपुण कर चुके हैं। उनकी सोच है कि वे कलकत्ता के शांति निकेतन जैसा कला केंद्र गुरू द्रोण नगरी, अपनी जन्म भूमि गुरुग्राम में बनायें। उनका पैतृक घर गुरुग्राम के सदर बाजार के पास रोशनपुरा में था।

इंसान, जानवरों में नहीं मानते कोई भेद

सुधीर त्रिपुरारी की कलात्मक और सकारात्मक सोच का दायरा इतना बड़ा है कि वे इंसान और जानवरों में कोई भेद नहीं मानते। यहां के सेक्टर-15 पार्ट-2 की पार्क में पेड़ों पर की गई कलाकारी को दिखाने के लिए वे सच कहूं संवाददाता के साथ पार्क में पहुंचे। वहां उन्होंने वन्य प्राणियों, फूलों समेत कई कलात्मक चीजें पेड़ों पर पेंटिंग के रूप में बनाई हुई हैं। जो कि बेहतरीन हैं। सुधीर त्रिपुरारी कहते हैं कि इंसान के सोते समय भी जहन में बहुत कुछ चलता है। रात में वे जो कुछ भी सोचते हैं, उसे रोज अलसुबह उठकर उसका स्कैच बनाकर अपने सोशल संपर्क में सांझा कर देते हैं।

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शिक्षा के मंदिरों में कला को देख होती है खुशी (Tripurari Art)

उन्हें शिक्षा के मंदिरों यानी स्कूलों में कला को देखकर बहुत खुशी होती है। वे अपनी कला को इसलिए सार्थक मानते हैं, क्योंकि आज कला के टीचर्स के बिना स्कूल शुरू नहीं होते। हर छोटे-बड़े स्कूल में कलात्मकता सिखाई जाती है। कभी कला को बेकार की चीज माना जाता था। आज वही कला इंसान के जीवन में विशेष हो गई है। जो खुशी की बात है। बेटा आशुतोष गुप्ता, दीपक गुप्ता, बेटी सुरभि गुप्ता बेशक शिक्षित होकर इंजीनियर बन गये हों, लेकिन अभी भी सुधीर त्रिपुरारी उन्हें कला से दूर नहीं होने दे रहे। शिक्षिका रह चुकी उनकी पत्नी मधु कांता भी कला को आगे बढ़ाने में उनकी सहायक हैं।

एक रुपये में करते थे सब कुछ मैनेज

सुधीर त्रिपुरारी अतीत के आईने में झांकते हुये बताते हैं कि उनके स्कूल समय में जहां दूसरे बच्चों को इकन्नी मिलती थी, वहीं उन्हें एक रुपया जेब खर्च मिलता था। उस एक रुपये को व्यर्थ खर्च की बजाय वे आर्ट बुक,पैंसिल, कागज खरीदते।

-संजय कुमार मेहरा

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