असंतोष को बढ़ाती रोजगार से आय की यह विसंगती

Gap between Poor and rich raising desperation

देश में गरीबी रेखा से उपर आने वाले लोगों की संख्या में बढ़ोतरी के साथ ही दिन प्रतिदिन अरबपतियों की संख्या में इजाफा होने के समाचारों के बीच आम आदमी और चंद अरबपतियों के बीच आमदनी की खाई दिन-प्रतिदिन गहरी होती जा रही है। एक हालिया अध्ययन में सामने आया है कि देश में 87 फीसदी लोगों की मासिक आय सरकारी महकमों के चपरासी से भी कम है। इसका सीधा-सीधा अर्थ यह हुआ कि देश में केवल और केवल 13 फीसदी लोग ऐसे है जिनकी मासिक आमदनी चपरासी से अधिक है। मजे की बात यह है कि देश में 0.2 फीसदी लोग ऐसे है जिनकी महीने की आय एक लाख रु. से अधिक है।

इन 0.2 फीसदी लोगों में लाखों कुछ करोड़ रुपए प्रतिमाह वेतन लेने वाले लोग भी शामिल है। यदि यह देखा जाए कि 50 हजार रु. मासिक आय के दायरे में कितने लोग है तो यह भी साफ हो जाता है कि केवल 1.4 फीसदी लोगों की मासिक आय 50 हजार रु. से अधिक है। 19 फीसदी लोग 5 हजार मासिक इनकम के दायरे में आते हैं। यह आंकड़े पिछले दिनों अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के लेबर और एंम्प्लॉयमेंट विभाग के एक अध्ययन में सामने आये हैं। हो सकता है कि आंकड़े कुछ अतिशयोक्तिपूर्ण हो पर यह भी साफ है कि कमोबेस यह स्थिति वास्तविकता के सामने हैं। देश के सरकारी महकमों में स्वीपर या चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी की पोस्ट के लिए जब इंजीनियर तक आवेदन करने लगे हैं तो बनिये की दुकान और सरकारी महकमों में मिलने वाले वेतन के अंतर को साफ साफ समझा जा सकता है। आखिर इतना अंतर क्या संदेश देता है?

दरअसल आम नागरिकों की आय के बीच यह अंतर ही समाज में खाई पैदा करने वाला है। आमदनी के इस असंतुलन का असर अपराध के आंकड़ों से जोड़ कर देखा जा सकता है। रातों रात रईस बनने के फेर में समाज में क्राइम के आंकड़ों में बढ़ोतरी हो रही है। चोरी चकोरी, चैन स्नेचिंग, लूट-पाट, साइबर क्राइम और इसी तरह के अन्य अपराधों के बढ़ने का कारण यह विसंगती ही है। कम आय वालों के दुभर जीवन के कारण समाज में एक तरह की सामाजिक विकृति आती जा रही है। एक और नौकरीपेशा व संगठित वर्ग के लोगों की आय में तय समय सीमा में बढ़ोतरी होती जा रही है वहीं असंगठित क्षेत्र के दैनिक मजदूरी या दुकान गोदाम में काम करने वालों की आय में उस अनुपात में वृद्धि नहीं हो पा रही है। हांलाकि सरकार ने इस क्षेत्र के लिए पहल की है। चिकित्सा सुविधाओं को सुधारा है। राजस्थान जैसे कुछ प्रदेशों में सरकारी अस्पतालों से नि:शुल्क दवा की उपलब्धता और केन्द्र सरकार की प्रधानमंत्री आयुष्मान योजना से अब इस वर्ग को राहत अवश्य मिलने लगी है।

दरअसल सरकार को कोई ऐसी नीति अवश्य बनानी पड़ेगी जिससे न्यूनतम आय के इस अंतर को इस स्तर तक तो लाया जा सके कि आमआदमी की दैनिक जीवन की आवश्यकताएं तो पूरी हो सकें। एक और आज आम आदमी को ख्हाब तो ऊंचे से ऊंचे दिखाए जा रहे हैं वहीं आय में यह अंतर निश्चित रुप से गभीर चिंता का विषय है। आखिर चपरासी से भी कम वेतन पर गुजारा करना कितना मुश्किल भरा है इसे समझना होगा। देश की बहुसंख्यक जनता की आय का इतना न्यूनतम स्तर सोचने को मजबूर कर देता है। हांलाकि परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा भी काम करने से परिवार की आय अवश्य बढ़ रही है पर जीवन स्तर को ऊंचा उठाने के लिए यह नाकाफी है।

कहीं ना कहीं संतुलित आय का विकल्प खोजना ही होगा। नहीं तो यह सामाजिक विसमता किसी दिन विस्फोटक होगी और इसके दुष्परिणाम समाज को भुगतने पड़ेंगे। यूनिवर्सल बेसिक इनकम को इसका विकल्प इसलिए नहीं माना जा सकता क्योंकि यूबीआई में किसी तरह की प्रोडक्टिविटि नहीं है और एक तरह से देखा जाए तो यह किसी खैरात से कम नहीं होगी। सरकार को हाथ में हाथ धर कर सरकारी धन पर जीवन यापन की आदतों पर अंकुश लगाना होगा वहीं इस तरह की व्यवस्था करनी होगी संगठित या असंगठित सभी वर्ग के कामदारों को जीवन यापन के लिए निश्चित आय तो प्राप्त हो ताकि सामान्य जीवन तो कोई भी व्यक्ति आसानी से जी सके। हांलाकि संगठित क्षेत्र में नौकरी के छोटे से छोटे पद के लिए उच्च व तकनीकी शिक्षा प्राप्त युवाओं द्वारा आवेदन करना बेरोजगारी और इस तरह के रोजगार में भविष्य की सुरक्षा का भाव छिपा है जिसे भी सरकार को ध्यान में रखकर योजना बनानी होगी।

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