गांवों का बिगड़ता हुआ स्वरूप

Deteriorating nature of villages

आधुनिक ओर पाश्चात्य संस्कृति की दौड़ में आज गांवों का वो रहन सहन और सामाजिक परिवेश लगभग आधुनिकता की अंधी दौड़ की भेंट चढ़ रहा है। आज अगर हम देंखे तो वो पहले वाले गांव कहीं नजर नहीं आ रहे हैं। आज अगर देखा जाए तो गांव न तो गांव रह गए हैं ओर ना ही शहर बन पा रहे हैं। आज गांवों में वो वैमनस्य ओर मेल मिलाप न के बराबर हो गया है। एक समय था जब गांवों के लोग आपसी वैमनस्य ओर एक दूसरे के दुख दर्द में एक दूसरे के काम आते थे। आपस में प्यार ओर मोहब्बत के साथ रहते थे। भारत में गांवों का इतिहास रहा है कि जो गांव की समस्याएं होती थी। चौपाल में बैठकर गांव के सभी मौजिज लोगों द्वारा सुलझा ली जाती रही है।

बड़े बुजुर्गों की बातों के अनुसार काम करना ओर उनकी हर बात पर अम्ल करना पहली प्राथमिकता होती रही है। आस पास के गांवों के लोगों के साथ सामंजस्य स्थापित करना पहली प्राथमिकता होती आई है। लेकिन आज के आधुनिक युग में गांव के लोगों के साथ ही सामंजस्य स्थापित कर पाना मुश्किल हो गया है। गांवों में चारों तरफ हरी भरी लहलहाती फसलें ओर पेड़ हुआ करते थे। गांवों में बडे़ बड़े फलों के बाग बगीचों के बीच नीम, बड, पीपल लगाने की पहली प्राथमिकता होती थी। कभी भी जातिवादी संघर्ष नहीं होता था। सभी जातियों का आपस में इतना सामंजस्य होता था कि कभी भी लडाई झगड़े की नौबत नहीं आई थी। गांवों के भोले भाले लोग छल कपट से कोंसो दूर होते थे। गांवों के अन्दर आपसी भाई चारा सभी जातियों का एक मिसाल के तौर पर होता था। आज देखा जाए तो हमारी ग्रामीण क्षेत्रों की संस्कृति जो अपनी अलग पहचान रखती थीं। वो छिन्न भिन्न हो गई है।

आज का सबसे बड़ा भयावह संकट गावों में कृषि योग्य भूमि ओर पशु धन पर मंडरा रहा है। जो मात्र एक यही व्यवसाय जो गावों के लोगों की रोजी-रोटी का साधन है। आज कृषि योग्य भूमि का रकबा बहुत ही तेजी के साथ घटता जा रहा है। आधुनिक होते शहरों ने गांवों को लील लिया है। एक नगर से दूसरे नगर को जोड़ने के लिये बड़े बड़े राजमार्गों का निर्माण किया जा रहा है। राजमार्गों के दोनों तरफ औद्योगिक व्यवसाय और आवासीय इमारतों का जाल पसरता जा रहा है। पेड़ पौधों की अन्धाधुन्ध कटाई की जा रही है। गगन चुम्बी इमारतें गावों की विरासत को दफन कर रही हैं। गांवों के चारों तरफ कंक्रीट के बने पहाड़ खड़ किए जा रहे हैं। लोगों की खेती लायक जमीन बिक चुकी है। बड़े बिल्डरों का वर्चस्व बढता जा रहा है।

जिनको गावों की संस्कृति ओर विचारधारा ओर परम्पराओं से कोई संबंध नहीं। सिर्फ पैसे का बोलबाला है। थोड़े से पैसे के लालच में पड कर गावों के लोग अपनी खेती करने योग्य भूमि को बिल्डरों को बेच रहे हैं। गांवों में रोजी-रोटी का संकट उत्पन्न होने लगा है। जिसके कारण लोग शहरों की तरफ पलायन करने लगे हैं। जो शहर कभी गावों पर आश्रित थे। आज गावों के लोगों के सामने नौबत आ रही है कि वो शहरों पर आश्रित हो गए हैं। खाने पीने से लेकर अपने जीवन उपयोगी वस्तुओं का उत्पादन गावों में ही कर लिया जाता था और खुद पर आत्मनिर्भर होते थे। जिससे शहरों के भरोसे नहीं रहते थे। आज स्थिति यह है कि गांव शहरों पर आत्मनिर्भर हो गए हैं।

पेड़ों की अन्धाधुन्ध कटाई से जंगल खत्म हो गए हैं। गांवों में औषधीय पौधों की भरमार होती थी। बड़े बड़े पेड़ जिन पर पक्षी अपना रहन बसेरा बनाते थे। वे पक्षी आज आधुनिक जीवनशैली के कारण खत्म होने के कगार पर हैं। गांवों में मोर की पीहू पीहू ओर कोयल की कुह की मीठी आवाज नदारद हो चुकी है। औद्योगिक क्षेत्र ओर कंक्रीट से बनी इमारतों के कारण तोता मैना, मोर, कोयल, बटेर, चिल बाज, तीतर आदि पक्षी जो हमारे आसपास के वातावरण को स्वच्छ रखने का काम किया करते थे जाने कहाँ गायब हो चुके हैं। बड़े बड़े बड पीपल, नीम, जाल, जांडी सब बिल्डरों की भेंट चढ़ गए हैं।

औषधीय पौधे स्वच्छ वातावरण रखने वाले पौधे खत्म हो गए हैं। आस पास का वातावरण दूषित हो चुका है। गांवों का खेती किसानी के साथ ही संस्कृति भी बदल चुकी है। हमारे बड़े बुजुर्ग आज भी कहते मिल जाएंगे कि पहले के गांव आज के गांवों से बेहतर थे। गांवों के आधुनिक विकास ने गांवों की सुकून देने वाली बहुत ही चीजों को लील लिया है। लेकिन हमें कोशिश करनी चाहिए कि गांव की ग्राम्य संस्कृति और आपसी वैमनस्य नष्ट ना हो पाए। गांवों को सुकून भरा शांत सहज ओर सादगीपूर्ण वातावरण रखना होगा। शहरों की चकाचौंध को छोड़कर गावों की जीवनशैली अपनानी चाहिए। ग्राम्य संस्कृति में रमना ओर बसना होगा। तभी हम अपने गांवों को बचा पाएंगे।
_जयदेव राठी भराण

 

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