संवैधानिक मर्यादा और हमारी राजनीति

Politics

राष्ट्रीय भावना को जगाने वाले त्यौहारों के आगमन से पूर्व हमारे दिलों में स्वाभाविक तौर पर देश भाव का प्रकटीकरण होने लगता है। जरा याद कीजिए अपने बचपन के दिनों को, प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करते समय इन राष्ट्रीय त्यौहारों पर भावनाओं का जिस प्रकार से ज्वार उमड़ता था, वह बाल मन के हृदय पर अंकित राष्ट्रीय भावों की लहरनुमा अभिव्यक्ति ही थी। वर्तमान में हम देखते हैं कि हमारे राष्ट्रीय पर्व केवल एक दिन के त्यौहार बनकर रह गए हैं। अब कहीं भी न तो वैसे नारे लगते दिखाई देते हैं और न ही राष्ट्र के प्रति उमड़ने वाला ज्वार ही दिखाई देता है। आज हम सभी कहीं न कहीं नियमों की अवहेलना करने की ओर बढ़ते जा रहे हैं। हमारे देश में संवैधानिक परिधियों का अपने-अपने हिसाब से लाभ लेने का प्रयास किया जाता रहा है। जबकि यह नहीं होना चाहिए।

ऐसा करके हम अपने देश के संविधान के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोडऩे का काम ही करते हैं। सवाल यह है कि क्या ऐसा करके हम अपने जीवन की आदर्श आचार संहिता के साथ खिलवाड़ तो नहीं कर रहे हैं? अगर ऐसा है तो यह किसी भी दृष्टिकोण से ठीक नहीं है। जिस प्रकार से जीवन को चलाने के लिए एक दिनचर्या होती है, ठीक उसी प्रकार हमारे राष्ट्रीय कर्तव्य भी हैं। उसे भी एक बार जीना चाहिए, क्योंकि यह देश भी तो अपना ही है। यह सर्वसम्मत सत्य है कि हमारी न्यायपालिका सत्य का अनुसंधान कर किसी परिणति पर पहुंचती है। फिर भी यह दिखाई देता है कि अनुकूल निर्णय को हम सहर्ष स्वीकार करने की मुद्रा में दिखाई देते हैं, लेकिन अगर किसी कारण से न्यायालय का निर्णय प्रतिकूल आता है तो हम न्यायालय के निर्णय को भी शंका की दृष्टि से देखने लगते हैं।

कभी कभी तो न्यायालय के निर्णयों को राजनीतिक लाभ हानि के दृष्टिकोण से भी देखा जाता है। हमें याद ही होगा वह प्रकरण जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने शाहबानो के तलाक मामले में अभूतपूर्व निर्णय सुनाते हुए न्याय दिला दिया। शाहबानो न्यायालय से विजयी हो गई, लेकिन राजनीति क सत्ता ने एक बार फिर उसे पराजित कर दिया। इसमें यही कहा गया कि उस समय की केन्द्र सरकार मुस्लिम कट्टरपंथियों के सामने हार गई। सरकार द्वारा न्यायालय के निर्णय को बदल देने के इस कार्य को पूरी तरह से राजनीतिक दृष्टि से देखा गया। सरकार ने एक वर्ग को प्रसन्न करने के लिए न्यायालय के निर्णय को ही बदल दिया। इससे यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि सरकारों ने अपने ही संविधान की शक्तियों का दुरुपयोग करते हुए राजनीतिक लाभ लिया।

इसी प्रकार तीन तलाक वाले मामले को भी राजनीतिक हितों से देखा जा रहा है, जबकि यह निर्णय महिला उत्पीड़न को समाप्त करने की दिशा में उठाया गया एक सकारात्मक कदम ही है। आज हम सभी संविधान की रक्षा करने की कसम तो खाते हैं, लेकिन हम अपना विचार करें कि क्या हम वास्तव में नियमों का पूरी तरह से पालन करते दिखाई देते हैं? हम मयार्दाओं को तोडऩे के लिए कदम क्यों बढ़ा रहे हैं? जब हम छोटे से नियम का पालन करने के लिए तैयार नहीं है तो फिर बड़े नियम के पालन की अपेक्षा कैसे की जा सकती है।

हमने देखा ही होगा कि केन्द्र सरकार स्वच्छ भारत अभियान चलाने के लिए तमाम प्रकार के नियम बना रही है, इतना ही नहीं इस अभियान को सफलता पूर्व संचालित करने के लिए पूरा जोर भी लगा रही है, लेकिन हमारा समाज कहीं न कहीं इस अभियान को ही धता बताने का काम कर रहा है। इसी प्रकार यातायात के नियमों का पालन करने के लिए हर चौराहे पर यातायात पुलिस कर्मी खड़े रहते हैं, लेकिन हम जागरुक होते हुए भी इन नियमों का स्वयं पालन करने के लिए पहल नहीं करते।

हमें यह भी ज्ञात होगा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर राष्ट्रीय मयार्दाओं को भी चकनाचूर किया जाता है। भारत के मानबिन्दुओं के शाश्वत नियमों को तोड़ने का काम किया जाता है। अभी हाल ही में सबरीमाला प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद महिलाओं में मंदिर में प्रवेश करने के लिए मंदिर के नियमों को तोड़ने का दुस्साहस किया। गणतंत्र दिवस हमारा राष्ट्रीय त्यौहार है। यह त्यौहार हमें संवैधानिक नियमों का पालन करने के लिए प्रेरित करता है। लेकिन वर्तमान समय में यह प्रेरणा कहीं लुप्त होती दिखाई दे रही है। हमें यह भी याद नहीं है कि हमारे राष्ट्रीय कर्तव्य क्या हैं? सबसे पहले यहां यह बताना बहुत ही आवश्यक लग रहा है कि हमारे राष्ट्रीय कर्तव्यों में वे सभी चीजें आती हैं जो इस राष्ट्र को सामर्थ्यवान बनाने के लिए आवश्यक हैं।

 लेखक: सुरेश हिन्दुस्थानी

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