इलेक्ट्रॉनिक मीडिया आज जनमानस इस कदर जुड़ गया है कि इसके बगैर अब जीवन की जैसे कल्पना ही नहीं की जा सकती है। इन्हीं में मनोरंजन का एक सशक्त माध्यम है टेलीविजन जिसे इडियट बॉक्स यानी की बुद्धुबक्सा भी कहा जाता है। टेलीविजन के आगे बच्चा एक बार बैठ जाता है तो उससे चिपककर रह जाता है। इस पर दिखाए जाने वाले अर्थहीन कार्यक्रम तथा उससे भी ज्यादा बेवकूफी भरे विज्ञापन बच्चों को मानसिक तौर पर क्या परोस रहे हैं। इसकी तरफ ध्यान तो सभी का आकर्षित होता है, लेकिन इसे नेसेसरी इविल की तरह स्वीकार कर लिया गया है।
अक्सर अखबारों में चोरी, कत्ल, डाके बिल्कुल फिल्मी स्टाइल में किए जाने के बारे में समाचार पढ़ने में आते हैं। बच्चे जिनके खेलने-पढ़ने, व्यावहारिकता सीखने के दिन होते हैं, ऐसी पिक्चर सीरियल देखकर कई तरह की भ्रांतियों के शिकार होने लगते हैं। जो बच्चे अधिक समय तक टेलीविजन से चिपके रहते हैं, उनकी कार्यक्षमता व कार्यकुशलता सफर करती है। शरीर की गतिशीलता कम होने के कारण मोटापा बढ़ने लगता है तथा शरीर सुस्त हो जाता है। इसी प्रकार बच्चों की कल्पनाशक्ति भी कम होने लगती है। होता यह है कि जिस कल्पना के लिए दिमाग का व्यायाम होता है, वह सब कुछ टेलीविजन पर इस प्रकार दर्शाया जाता है कि बच्चों की कल्पना के लिए कुछ बाकी नहीं रह जाता।
लगातार अधिक समय तक टीवी देखते रहने से बच्चों की आंखों पर बुरा असर पड़ता है खासकर कलर टीवी से निकलने वाली किरणों के दुष्प्रभाव के कारण आजकल छोटे-छोटे बच्चों को चश्में चढ़ जाते हैं। अगर टीवी दूर से और उचित रोशनी में देखा जाए तो उतनी हानि नहीं होती उपयुक्त स्थिति में देर तक बैठने से बच्चा एक तरह से सम्मोहन की सी स्थिति में आ जाता है। ऐसे में अगर वह आपको एक ग्लास पानी भी लाकर पिलाता है तो मशीन सा बिहैव करता है। आप कुछ बात करेंगे तो बात भी जैसे उसके सिर के ऊपर से गुजर जाएगी। ये घातक प्रभाव है टीवी का, जो बच्चे को मानसिक रूप से कुंद करके रख देता है।
ऐसे में माता-पिता बच्चे पर खीजें, उसे मारें-पीटें तो यह तो कोई निदान नहीं टीवी से फैले वायरस का। घर में टीवी रहेगा तो बच्चे देखेंगे भी जरूर। और फिर क्या मां- बाप स्वयं कई बार इस बात के लिए जिम्मेदार नहीं होते? जब-जब बच्चे माता-पिता को तंग करते हैं। मेहमानों के आने पर उनकी बातों में व्यवधान उत्पन्न करते हैं। वे स्वयं बच्चों को टीवी देखने के लिए कह देते हैं, क्योंकि उन्हें यही सबसे आसान तरीका नजर आता है बच्चों को व्यस्त रखने का। टीवी का चस्का बच्चों के लिए नशे की लत बन जाता है।
जब टीवी बोलता है, बच्चे खामोश रहते हैं तो उनकी बोलने की क्षमता भी घटती है, फिर फिल्मों के चीप डायलॉग ही उनके कानों में गूंजते हैं। दादी और नानी की लुभावनी अच्छी शिक्षा से भरपूर स्वस्थ मनोरंजन करने वालीं कहानियां जिनमें बच्चों की लगातार जिज्ञासाओं का दादी-नानी बडेÞ प्यार से समाधान करती थीं। उनका ऐसा विकल्प हमारी आने वाली पीढ़ी को किस तरह बरबाद कर रहा है, क्या यह सिर्फ सोचने भर की बात है? पता नहीं क्यों सरकार ने इस विषय में चुप्पी साध रखी है। देश में भौतिक उन्नति का फायदा तभी है, जब नैतिकता का अवमूल्यन नहीं हो।
बहरहाल माता-पिता इस विषय में जरा भी ढील न देते हुए टीवी देखने के लिए बच्चों का समय निर्धारित कर दें। टीवी कार्यक्रमों की गुणवत्ता का भी ख्याल रखा जाए। समय रहते जरूरी है कि बच्चों के स्वस्थ शारीरिक और मानसिक विकास के लिए उन्हें टेलीविजन के मोहपाश से मुक्त कराया जाए। मुक्त सामाजिक व्यवहार, खेलकूद, डिबेट, पेंटिंग, रीडिंग, गायन, नृत्य आदि में उनकी रुचि जगाई जाए, जिससे वे टेलीविजन की बनावटी और एक सुस्त जिंदगी जीने के कहर से बचें। स्वयं को मिली सबसे बड़ी नेमत जिंदगी को स्वयं जिएं।
-उषा जैन शीरी