रेल पर मजदूरों को चढ़ना था, पर रेल उनपे ही चढ़ गई। सिस्टम की बिना बे्रक रेल ने कईयों की जिंदगी एक झटके में खत्म कर दी। कहते मजलूम इंसानों की जिंदगी बड़ी सस्ती होती है। मजदूर असहाय लोगों पर चाहें उच्च वर्ग का जुल्म हो, कुदरती आपदाएं हो, प्रकृतिक हारी-बीमारी हो, मतलब कोई भी रौंद देता है। उनकी मौतों पर सवाल उठाने वाला कोई नहीं होता।
एक नेता की भेंस चोरी होने पर सरकार और प्रशासन दोनों मिलकर धरती-आसमां एक कर देते हैं लेकिन दर्जनों बेबस लोगों की मौते हुकूमतों को ज्यादा परेशान इसलिए नहीं करती, क्योंकि उनके जीवन का उनके लिए ज्यादा मोल और मायने नहीं होते? मजदूर सिर्फ उनके लिए प्रयोग मात्र के तौर पर होते हैं। काम किया, पैसा लिया, बात खत्म? उनका न कोई बीमा, न कोई गारंटी और न उनके हक-हकूक के लिए लड़ने वाला होता है। लगातार दो दिन मजदूरों की बेमौत दर्दनाक खबरें सुनने को मिली। गैस रिसाव से कई लोग मरे, तो वहीं सोते लोगों पर मौत बनकर ट्रेन चढ़ गई। कोई नहीं, वह मजदूर ही तो थे, कोई नेता या प्रशासनिक अधिकारी थोड़े ही थे, जिसका सरकार और सिस्टम विलाप करे। मुआवजा देकर मामला शांत हो जाएगा। एकाध दिनों में मीडिया की सुर्खियों से भी खबरें गायब हो जाएंगी।
दरअसल, ऐसी मौतों का हुकूमतों के पास मुआवजे के रूप में मरहम होता है जिससे चुटकी में माहौल अपने पाले में कर लिया जाता है। मृतकोें के परिजन भी खुश हो जाते हैं और सिस्टम भी आराम से चैन लेता है। एकाध लाख रूपए में मौतों की कीमतें तय कर दी जाती हैं? औरंगाबाद की घटना पर भी कमोबेश ऐसा ही हुआ, मृतकों के परिजनों को पांच-पांच लाख थमा दिए गए हैं। विपक्ष और समाज हंगामा न काटे इसलिए जांच की खानापूर्ति के लिए आदेश भी जारी हो गए हैं। हादसा औरंगाबाद जिले के जालना रेलवे लाइन के पास हुआ है, जिसमें अभी तक डेढ़ दर्जन मजदूरों की मौत हुई है, कुछ गंभीर रूप से घायल भी हैं। मरने वालों का आंकड़ा बढ़ भी सकता है। क्योंकि पांच-छह मजदूर ऐसे भी हैं जिनके शरीर के कई अंग कट गए हैं। घटना शुक्रवार तड़के की हैं तब करीब चालीस-पचास मजदूर पटरियों पर सिर रखकर गहरी नींद में सोए हुए थे। उसी वक्त रेल आई और सभी को रौंदते हुए निकल गई।
गौरतलब है, कोरोना वायरस राजनेताओं और धनाड्य वर्गों पर नहीं, लेकिन मजलूमों पर काल बनकर टूटा है। उनकी बेबसी के काफिले इस वक्त हाई-वे, सड़कों पर दिख रहे हैं। मीलों दूर नंगे पांव पैदल चलकर अपने मूल ठौरों को निकले हुए हैं। महिलाओं की गोदी में दुधमुंहे बच्चों की भूख-प्यास से बिलखती तस्वीरें किसी को भी विचलित कर सकती हैं। कहने को उनके लिए बसें और स्पेशल ट्रेनें चलाई जा रही हैं, लेकिन तेज धूप में सड़कों पर चलती इनकी लंबी-लंबी कतारें देखकर सरकारों के प्रयासों पर कुछ संदेह होता है। ऐसा लगता कोरोना संकट में जो सहूलियतें केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा इनके लिए मुहैया कराने की बात कही जा रही हैं, वह ठीक से पहुंच नहीं रहीं। अपने गांव से दूर प्रांतों में मजदूरी करने वाले मजदूर रेल पटरियों के जरिए भी अपने गांवों को निकल पड़े हैं।
सरकारें बेशक समानता की बातें करें, पर आम और खास में आज भी खासा अंतर है। आधुनिक टैक्नोलॉजी का जमाना है इसलिए उच्च वर्ग के लोग जब कहीं आते-जाते हैं तो गूगल के जीपीएस का सहारा लेते हैं जो उन्हें दिशा निर्देशित करके गंतव्य तक पहुंचाने में मदद करता है। पर, कोरोना संकट में अपने गांवों से दूर अन्य प्रदेशों में फंसे प्रवासी मजदूर रेलपटरियों को ही जीपीएस समझकर उसी दिशा में पटरियों के सहारे चल पड़े हैं। शायद पटरियों की दिशा उनकी मंजिल तक पहुंचा देगी। लेकिन, उन्हें क्या पता जिस रेल पटरी के सहारे वह चल रहे थे उन्हीं के पीछे उनकी मौत बनकर रेल भी चली आएगी। मजदूरों का काफिला कई घंटों से पटरियों के सहारे चलता आ रहा था। भूख, बेबसी, लाचारी, शारीरिक थकान ऐसी थी कि पता ही नहीं कि कब मौत की पटरी पर सो गए। मजदूर बेखबर में थे कि इस समय रेलेगाडियां तो बंद हैं इसलिए कुछ समय के लिए पटरियों को ही आशियाना बना लिया जाए।
पर, काल को कुछ और ही मंजूर था, जो उनके साथ-साथ चल रहा था। पटरियों का आशियाना ही उनकी कब्र बन गया। घटना में जान गंवाने वाले सभी मजदूर मध्यप्रदेश से ताल्लुक रखते थे, जो महाराष्ट्र के जालना जिले में मजदूरी करने कोरोना संकट से पहले गए थे। रोजी-रोटी की तलाश में ही अपनों को छोड़कर वहां गए थे। कोरोनाकाल में अपने गांव लौट रहे थे। लेकिन बिन बुलाई मौत ने उनको रास्ते में ही घेर लिया। आंखों में नींद थी इसलिए ट्रैक पर ही सो गए, ट्रैक पर सोना मजदूरों की बेबसी थी और मौत की मुनाद। ऐसी मुनाद जिसकी ध्वनि को रेल चालक सुन नहीं सका। वह सरपट मजूदरों पर रेल चलाता हुआ निकल गया। पटरियों पर ही उनकी कब्र खोद गया।
घटना के बाद सिस्टम फ्लैटनिंग ऑफ़ द कर्व की मनगढंत कहानी पर मगन है। मजदूरों के संबंध में कई जगहों से अप्रिय घटनाएं सुनने को मिल रही हैं। कई मजदूरों ने रास्तों में ही दम तोड़ दिया। कोरोना वायरस की वजह से लगे लॉकडाउन के कारण देशभर में मजदूर फंसे हुए है। हजारों की संख्या में मजदूर पैदल ही अपने गांव-घर की ओर निकल पड़े हैं। ऐसे में रात को रुकने के लिए सैकड़ों मजदूर रेलवे ट्रैक व सड़कों का सहारा ले रहे हैं। हालांकि इस स्थिति का देखते हुए केंद्र सरकार ने मजदूरों को उनके राज्य वापस भेजने को स्पेशल श्रमिक ट्रेनें चलाई हैं, पर वह नाकाफी साबित हो रही हैं। मजदूर पहले जैसे ही परेशान हैं। लॉकडाउन का जब पहली बार ऐलान हुआ था, उसके बाद से ही लाखों की संख्या में मजदूर जहां थे, वहां खुद को फंसा महसूस कर रहे थे। नहीं रहा गया तो पैदल ही अपने गांवों को चल पड़े। रास्तों में कई मजदूर एक्सिडेंट का शिकार भी हुए, कईं अपनी जाने भी गंवा चुके हैं। मुल्क के रखवालों को मजलूम इंसानों को कीडे़-मकोड़े नहीं समझना चाहिए, उन्हें भी औरों की तरह जीने का हक है। कृप्या उनके मौलिक हकों को नहीं रौंदा जाए।
डॉ. रमेश ठाकुर
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