सरकारी भंवरजाल में उलझे छात्र

Students caught in government vortex trap
कोरोना संकट ने कुछ जख्म ऐसे दिए हैं जिसकी भरपाई निकट भविष्य में होना मुश्किल है। वाकई में देखें तो इस त्रासदी की मार सबसे ज्यादा प्रवासी मजदूरों और अन्य कामगारों पर पड़ी है। लेकिन इस बीच छात्रों की चर्चा होना भी बेहद प्रासंगिक हो जाता है।
आज उच्च शिक्षा के अंतिम वर्ष के बच्चें चौतरफा समस्याओं से घिरे हैं। उनकी परीक्षा को लेकर आएं दिन नए-नए फरमान आते, दूसरी तरफ नौकरी की गारंटी तो सामान्य समय में कोई शिक्षण संस्थान और शैक्षिक व्यवस्था नहीं लेती थी, फिर कोरोना काल में तो उम्मीद करना अपने आप को धोखे में रखने वाली बात है। ऐसे में बच्चे अवसाद का शिकार नहीं होंगे तो क्या होंगे? न नौकरी का ठिकाना है, न परीक्षा का, ऊपर से समस्या इस बात की भी है कि सामाजिक और आर्थिक दबाव है सो अलग।
मान लिया सामान्य शिक्षा ग्रहण करने वालों के लिए कोई समस्या की बात नहीं, लेकिन जिस छात्र ने लाखों रुपए का कर्ज लेकर रोजगारपरक शिक्षा ग्रहण की, उसका क्या? बीते दिनों सीएमआईई की एक रिपोर्ट आई, जिसमें बताया गया कि कोरोना महामारी के बीच 20 से 30 साल के 2.7 करोड़ युवाओं ने अपनी नौकरी गंवा दी है। फिर ऐसे हालात में कोरोना काल में पासआउट बच्चों के लिए नौकरी कहाँ से आएगी? बड़ा सवाल यह भी है और नौकरी मिलेगी नहीं। फिर जो युवा चार-पांच साल से जमीन, घर गिरवी रखकर सुनहरे भविष्य का सपना पाले हुए थे, उनके परिवार और उनका क्या होगा? क्या कभी इस बारें में हमारी रहनुमाई व्यवस्था ने सोचा है?
वैसे पिछले दिनों फेसबुक लाइव की एक परिचर्चा का हिस्सा बना। जिसमें देश के एक प्रतिष्ठित मैनजेमेंट गुरु अपनी बातें रख रहें थे। ऐसे में जब उसने सवाल किया कि कोरोना काल में घटती नौकरियां, युवा और अवसाद पर उनके क्या विचार हैं? फिर महाशय कहने लगें देश में नौकरियों की कोई कमी नहीं, बस युवाओं को ही समझ नहीं उन्हें करना क्या? ऐसे में चलिए प्रथम दृष्टया उक्त महाशय की बात से सहमत भी हो जाएं, लेकिन अगर सब कुछ एक कॉलेज जाने वाले नवयुवक को ही पता होता, फिर वह किसी कॉलेज और शिक्षक की शरण में क्यों जाता? सवाल अपने आप में यह भी है। इसके अलावा क्या यह शिक्षण संस्थानों और हमारी व्यवस्था का कार्य नहीं कि बच्चों को ऐसा माहौल दिया जाएं। जहां वे यह समझ पाएं कि किस क्षेत्र में आगे चलकर सफलता प्राप्त कर सकते, बिल्कुल शिक्षण तंत्र और व्यवस्था का यह दायित्व है कि बच्चों को उनकी प्रतिभा से रुबरु कराएं।
लेकिन हमारे यहां तो चलन बनता जा रहा सिर्फ और सिर्फ डिग्रीधारी बेरोजगार पैदा करने और पढ़ाई के नाम पर लाखों रुपए ऐंठने का। तभी तो कई रिपोर्ट्स आती, जो कहती हैं कि हमारे यहां के उच्च शिक्षित युवाओ के भीतर काबिलियत ही नहीं। ऐसे में प्रश्न यही कि एमबीए और बीटेक किए हुए युवक अगर अपने प्रोफेशन के साथ न्याय नहीं कर पा रहा, फिर चार-पांच वर्षों तक बच्चों को सिखाया और पढ़ाया क्या गया? बहस का केंद्र तो यह होना चाहिए, लेकिन हमारे यहां की रवायत ही कुछ अलग है। हम समस्या की जड़ में जाकर बात करने में विश्वास ही नहीं रखते। चलिए कुछ सवाल के माध्यम से विषय की गम्भीरता को समझते हैं।
अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वे के मुताबिक 2018-19 में देशभर में 3.74 करोड़ छात्र उच्च शिक्षा हेतु पंजीकृत होते हैं। यही नहीं प्रतिवर्ष देश में डिग्री लेकर निकलने वाले छात्रों की संख्या करीब 91 लाख के करीब होती। ऐसे में सिर्फ सियासतदानों के राजनीतिक रैलियों में युवा देश होने का जिक्र होने मात्र से लोकतांत्रिक जिम्मेदारियों की पूर्ति नहीं होने वाली और अगर ऐसी ही रवायत पर देश चल निकला है। फिर यह देश के भविष्य के साथ- साथ वर्तमान के साथ बहुत बड़ा मजाक है। आज कोरोना काल जैसी विकट परिस्थितियों में अंतिम वर्ष के छात्रों के हाल ऐसे हैं कि न उनका संस्थान उनसे संपर्क करने को राजी और न ही सरकारी तंत्र! सरकारी तंत्र का रवैया तो माशाअल्लाह है, आए दिन अफसरशाही और सरकारी तंत्र के निर्णयों के भंवर में फंसकर उच्च शिक्षा ग्रहण करने वाला छात्र पीस रहा है।
कोरोना से घबराएं हुए तो सब हैं ही, लेकिन उच्च शिक्षा से जुड़े अंतिम वर्ष के छात्रों की समस्याएं समाज के अन्य तबके से कहीं अधिक है। उसे अपना आगामी भविष्य से लेकर वर्तमान तक सब अंधेरे की गर्त में जाता दिख रहा। वह आज के समय में पेशोपेश में जी रहा है। परीक्षा हो तो दिक्कत, न हो तो दिक्कत। ऊपर से नौकरी मिलेगी इसकी तो आस करना ही शायद आज की परिस्थितियों में उसके लिए अतिश्योक्ति से कम नहीं। भले ही शिक्षण तंत्र और सम्बंधित विभाग फूला नहीं समा रहा, कि उसने विपत्ति के समय में आॅनलाइन शिक्षा मुहैया कराई। लेकिन वह शिक्षा कितनी गुणवत्तापूर्ण रहीं यह तो एक छात्र ही बता सकता, या वह शिक्षक जिसने आॅनलाइन क्लासेज ली।
ऐसे में परीक्षा की तरफ व्यवस्था बढ़ती है, तो बच्चे बिना नोट्स और प्रॉपर पढ़ाई के बिना परीक्षा कैसे देगें, बच्चों के सामने चुनौती यह भी है। दूसरी बात परीक्षा नहीं हुई, तो कोरोना काल में पास हुए बच्चों को कहीं रहनुमाई कृपा दृष्टि के कारण पासआउट होना समझ लिया गया। फिर क्या उम्मीद करें कि ऐसे युवा नौकरी के काबिल भी समझें जाएंगे बेरोजगारों के देश में? तीसरी बात जब इस बार अधिकतर आईआईटी, आईआईएम और प्रोफेशनल डिग्री प्रदान करने वाले संस्थान प्लेसमेंट दिला नहीं पा रहें, तो फिर आम कॉलेजों के छात्रों की मनोदशा का सहजता से आंकलन किया जा सकता। इसके अलावा हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था इतनी खर्चीली है कि अधिकतर निम्न- मध्यमवर्ग के परिवार अपने बच्चों का सपना पूरा करने के लिए लोन लेकर या घर और जमीन बेचकर शिक्षा दिलाते हैं। ऐसे में नौकरी की बाट जोह रहें छात्र को अगर एक भी उम्मीद की किरण नजर नहीं आएगी। फिर स्थिति भयावह होना तो तय ही है।
भारत का राज्य कल्याणकारी है। संविधान सभा में इसे नागरिकों के मौलिक अधिकार में न शामिल करने पर टीटी कृष्णमाचारी ने इसे “भावनाओं का कूड़ेदान” कहा था। ऐसे में आजादी के इतने वर्ष बाद यह सच साबित हो रहा। जब पिछले दिनों एक अखबारी पन्ने की रिपोर्ट बनी कि सिर्फ देवभूमि हिमाचल में ही दो महीने के भीतर करीब सवा सौ लोग आत्महत्या कर गए और इसमें भी आत्महत्या करने वालों में अधिकतर युवक हैं। ऐसे में आखिर में कुछ सवाल है, जिसका जवाब यूजीसी और सम्बंधित मंत्रालय को ढूढ़ना चाहिए।
सवाल यह कि क्यों केंद्र, राज्य सरकारें और केंद्रीय नियामक संस्थाएं अपनी ढपली अपना राग बीते दो-तीन महीनों से अलाप रहीं? क्या बच्चों का भविष्य और वर्तमान उनके लिए कोई अहमियत नहीं रखता? सरकारें अगर बच्चों के भविष्य को लेकर चिंतित ही हैं, फिर उनके फैसलों में दूरदृष्टि का अभाव क्यों? कोई भी फैसला एक साथ देने से क्यों हिचक रहीं व्यवस्थाएं? क्या यूजीसी और सम्बंधित मंत्रालय के पास इस बात का कोई जवाब है कि सिंतबर में सब कुछ बेहतर हो जाएगा? और नहीं होगा फिर क्यों उच्च शिक्षा से जुड़े बच्चों की मानसिकता के साथ आए दिन खेल खेला जा रहा? अंतिम वर्ष के बच्चे पहले से कम अवसाद में क्यों? जो रोज नए नियम निकालकर उन्हें और हैरान-परेशान किया जा रहा।
यूजीसी, राज्य सरकारों और केंद्र के नित बदलते फैसलों की भँवर में उलझकर कोई छात्र जिंदगी से खेल गया फिर उसका जिम्मेदार कौन होगा? ऐसे में समय की मांग यही है कि छात्रों के सर्वोत्तम हित मे दूरगामी फैसले लिए जाएं। जिससे छात्र भी अवसाद में जाने से बच सकें, साथ ही साथ अभिवावक और शैक्षणिक तंत्र को भी असुविधाओं से न गुजरना पड़े। इसके अलावा सरकारी और शैक्षणिक संस्थानों की तरफ से पहल तो आखिरी साल के बच्चों को रोजगार मुहैया कराने की भी होनी चाहिए, वरना डिग्री लेकर वह अवसादग्रस्त होने से अधिक कुछ नहीं होंगे, क्योंकि हमारी शिक्षा ऐसी भी नहीं जो उच्च जीवन मूल्यों को सिखाने में कामयाब रहती हो! फिर क्यों न फिनलैंड की सरकार की तर्ज पर कुछ हमारे देश में भी हो। वहां की सरकार बीते दो साल से 2,000 नागरिकों को बिना किसी शर्त हर महीने 560 यूरो की बेसिक इनकम दे रहीं। ऐसी ही कोई स्कीम उच्च शिक्षा लेकर निकलने वाले उन युवाओं के लिए होनी चाहिए, जो रोजगार नहीं पा सकें या जो रोजगार के काबिल नहीं।
महेश तिवारी

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