राजनीतिक अपराधियों पर सख्ती

शायद यह सुप्रीम कोर्ट ने ही करना था कि राजनीति में अपराधियों के दखल को रोका जाए, क्योंकि राजनीतिक पार्टियों ने सत्ता के लिए किसी भी तरह के हथकंडे प्रयोग करने से गुरेज नहीं किया। 70 साल के बाद तो भारतीय लोकतंत्र की तकदीर बदलनी ही चाहिए। देश की अधिकतर समस्याओं की जड़ अपराधियों का राजनीतिक रसूख या राजनीतिक पदों पर कब्जा है। इसी कारण ही अदालत ने चुनाव आयोग को हिदायत दी है कि अपराधियों का राजनीति में दाखिला रोकने के लिए चुनाव आयोग फे्रमवर्क तैयार करे।

चुनाव आयोग ने अदालत को सुझाव भी दिया है कि राजनीतिक पार्टियां ही इस मामले में पहल करें और दागी नेताओं को टिकट न दें। चुनाव आयोग ने यह अवश्य महसूस किया है कि चुनाव से पूर्व उम्मीदवारों द्वारा मीडिया में अपना अपराधिक रिकार्ड बताए जाने के बावजूद कोई सुधार नहीं हुआ। चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट की चिंता से यह बात स्पष्ट है कि पार्टियों ने चुनाव जीतने के लिए दागी नेताओं को टिकटों देने से भी गुरेज नहीं किया, जिसका परिणाम यह निकलता रहा है कि सत्ता में पहुंचकर अपराधी पृष्टभूमि वाले नेता गैर-कानूनी कार्य सरेआम करते रहे। अदालत द्वारा बनाए गए नियमों के कारण कई नेताओं की संसद से सदस्यता समाप्त हुई और कई चुनाव मैदान से बाहर हो गए हैं।

दरअसल चुनाव सुधार का जो बीड़ा टीएन सेशन ने उठाया था अब उनके विचारों की पुष्टि होती नजर आ रही है। राजनीति सेवा है जिसे भ्रष्ट व अपराधी पृष्टभूमि वाले नेताओं ने प्रत्येक गैर-कानूनी कार्य करने के लिए हथियार बना लिया था। अब जहां तक आयोग के सुझाव का संबंध है यह बात बेहतर होगी यदि राजनीतिक पार्टियां ही दागी व्यक्तियों को टिकट देने से परहेज करें। सख्ती जरूरी है लेकिन संस्कृति उससे भी ऊपर है। राजनीतिक पार्टियों को सैद्धांतिक मॉडल बनाने की आवश्यकता है ताकि नेक व्यक्ति आगे आ सकें। इसकी शुरूआत केवल टिकट के साथ नहीं होनी चाहिए बल्कि पार्टी के संगठन में भी हर छोटा से छोटा पद सौंपते वक्त भी नेता की पृष्टभूमि को देखा जाए। अभी तो हालात यह हैं कि कई पार्टियों के नेताओं पर गैंगस्टरों के साथ संबंध के आरोप लग रहे हैं। यूं भी केवल मामले दर्ज करने से कोई व्यक्ति दागी नहीं हो जाता फिर भी यह पार्टियों के लिए जरूरी होना चाहिए कि वह जीत की अपेक्षा नियमों व कर्तव्यों को प्राथमिकता दें।

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