पराली को लेकर आधे अक्टूबर से दिसंबर और जनवरी के शुरू तक बेहद हो हल्ला होता है। व्यापक स्तर पर चिंता की जाती है, किसानों पर दंड की कार्रवाई की जाती है। बावजूद इसके समस्या जस की तस है। सच तो यह है कि जिस पराली को बोझ समझा जाता है वह बहुत बड़ा वरदान है। अच्छी खासी कमाई का जरिया भी बन सकती है बशर्ते उसकी खूबियों को समझना होगा।
लेकिन कहते हैं न हीरा तब तक पत्थर ही समझा जाता है जब तक कि उसे तराशा न जाए। पराली के भी ऐसे ही अनेकों फायदे हैं। न केवल उन्हीं खेतों के लिए यह वरदान भी हो सकती है बल्कि पशुओं के लिए तो खुराक ही है। इसके अलावा पराली के वो संभावित उपयोग हो सकते हैं जिससे देश में एक नया और बड़ा भारी उद्योग भी खड़ा हो सकता है जिसकी शुरूआत हो चुकी है। इसके लिए जरूरत है सरकारों, जनप्रतिनिधियों, नौकरशाहों, वैज्ञानिकों, किसानों और बाजार के बीच जल्द से जल्द समन्वय की और खेतों में ठूठ के रूप में जलाकर नष्ट की जाने वाली पराली भी कहते हैं जो सोने की कीमतों जैसे उछाल मारेगी। बस इसी का इंतजार है जब पराली समस्या नहीं वरदान बन जाएगी। देखते ही देखते भारत में एक बड़ा बाजार और उद्योग का रूप लेगा। वह दिन दूर नहीं जिस पराली के धुंए ने न जाने कितने छोटे बड़े शहरों को गैस चेम्बर में तब्दील कर दिया है वह ढूंढने से भी नहीं मिलेगी और उसका धुआं तो छोड़िए, उस गंध को भी लोग भूल चुके होंगे।
बस सवाल यही कि मौजूदा लचर व्यवस्था के बीच जागरूकता और अनमोल पराली का मोल कब तक हो पाएगा? फिलाहाल धान की खेती के बाद खेतों में बची पराली यूँ तो पूरे देश में जहाँ-तहाँ एक बड़ी समस्या है। लेकिन उससे भी बड़ा सच यह है कि प्रकृत्ति प्रदत्त इस हरियाली जो समय के साथ किसानों के भंडारों को अनाज से भरकर सूखे ठूठ के रूप में खुद खेतों समस्या बनती है। लाख टके के फायदे से अनजान किसान और बेफिक्र बाजार के चलते ही जलाकर नष्ट की जाने वाली पराली अभी सांस पर भारी है जिसे जेब भारी करना था। जब से धान कटाई में मशीनों का इस्तेमाल होने लगा, बचने वाली बड़ी-बड़ी ठूठ खेतों के लिए समस्या बनती गई।
वक्त के साथ यह समूचे उत्तर भारत खासकर दिल्ली और आसपास इतनी भारी पड़ने लगी कि घनी आबादी वाले ये इलाके गैस के चेंबर में तब्दील होने लगे। अक्टूबर से जनवरी-फरवरी तक पराली का धुंआ राष्ट्रीय चिंता का विषय बन जाता है। काफी कुछ लिखा जाता है। मैने भी लिखा है। लेकिन सच अक्सर सरकारों के बीच तकरार या वाकयुद्ध बन जहां का तहां रह जाता है और कीमती पराली हर साल जलती और बदनाम होती है। सच है कि वर्तमान में उत्तर भारत में यह बहुत बड़ी समस्या बनी हुई है। इसका सबसे बड़ा कारण एक तो सरकारी तौर पर कोई स्पष्ट और सुगम नीति का न होना और दूसरा उपयोगिता को लेकर ईमानदार कोशिशों की कमीं भी है। उससे भी बड़ा सच केन्द्र और राज्यों के बीच आपसी तालमेल की कमीं भी है जो पराली धुँआ बन साँसों पर भारी पड़ती है।
सच तो यह भी है कि पराली पहले इतनी बड़ी समस्या नहीं थी जो आज है। पहले हाथों से कटाई होती थी तब खेतों में बहुत थोड़े से ठूठ रह जाते थे जो या जुताई से निकल जाते थे या फिर पानी से गल मिट्टी में मिल उर्वरक बन जाते थे। लेकिन चूँकि मामला राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र उसमें भी दिल्ली से जुड़ा हुआ है जहाँ पर चौबीसों घण्टे लाखों गाड़ियाँ बिना रुके दौड़ती रहती हैं इसलिए पराली का धुँआ वाहनों के वाहनों के जले जहरीले धुँए में मिल हवा को और ज्यादा खतरनाक बना देता है। बस हो हल्ला इसी पर है।
अब वह दौर है जब हर वेस्ट यानी अपशिष्ट समझे जाने वाले पदार्थों का किसी न किसी रूप में उपयोग किया जाने लगा है। चाहे वह प्लास्टिक कचरा हो, कागजों और पैकिंग कार्टून्स की रद्दी हो, स्टील, तांबा, यहां तक की रबड़ भी। सब कुछ रिसाइकल होने लगा है। बड़े शहरों में सूखा कचरा और गीला कचरा प्रबंधन कर उपयोगी खाद बनने लगी है जिसमें सब्जी, भाजी के छिलके भी उपयोग होते हैं। ऐसे में पराली का जलाया जाना अपने आप में बड़ा सवाल भी है और नादानी भी।
देश में कई गांवों में महिलाएं पराली से चटाई और बिठाई (छोटा टेबल, मोढ़ा) जैसी वस्तुएं बनाती हैं। अभी भोपाल स्थित काउंसिल ऑफ़ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च यानी सीएसआइआर और एडवांस मटेरियल्स एंड प्रोसेस रिसर्च यानी एम्प्री ने तीन साल की कोशिशों के बाद एक तकनीक विकसित की है जिसमें धान की पराली, गेहूं व सोयाबीन के भूसे से प्लाई बनेगी। इसमें 30 प्रतिशत पॉलीमर यानी रासायनिक पदार्थ और 70 प्रतिशत पराली होगी। इसके लिए पहला लाइसेंस भी छत्तीसगढ़ के भिलाई की एक कंपनी को दे दिया गया है जिससे 10 करोड़ की लागत से तैयार कारखाना मार्च 2021 से उत्पादन शुरू कर देगा। सबसे बड़ी खासियत यह कि देश में यह इस किस्म की पहली तकनीक है जिसे यूएसए, कनाडा, चीन, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया, स्पेन समेत आठ देशों से पेटेंट मिल चुका है। इस तरह खेती के अपशिष्ट से बनने वाली यह प्लाई आज बाजार में उपलब्ध सभी प्लाई से न केवल चार गुना ज्यादा मजबूत होगी बल्कि सस्ती भी।
पराली से लेमिनेटेड और गैर लेमिनेटेड दोनों तरह की प्लाई बनेंगी जिसकी कीमत गुणवत्ता के हिसाब से 26 से 46 रुपए वर्ग फीट तक होगी। निश्चित रूप से सस्ती भी होगी और टिकाऊ भी। इसकी बड़ी खूबी यह कि 20 साल तक इसमें कोई खराबी नहीं आएगी। जरूरत के हिसाब से इसे हल्की व मजबूत दोनों तरह से बनाया जा सकेगा। इसके लिए बहुत ज्यादा पराली की जरूरत होगी व कई और फैक्टरियाँ खुलने से उत्तर भारत में पराली की इतनी डिमाण्ड बढ़ जाएगी कि 80 से 90 फीसदी खपत इसी में हो जाए।
बता दें कि देश में छत्तीसगढ़ ही वह पहला राज्य है जहाँ पर गोबर भी प्रतिकलो की दर से खरीदा जाकर किसानों, पशुपालकों को प्रोत्साहन देकर कई अंतर्राष्ट्रीय उत्पाद तैयार कर नए व्यवसाय की शानदार और धाकदार शुरूआत कर देश में एक मिशाल कायम की है। अब तो पराली से नया उद्योग खड़ा करने की शुरूआत भी छत्तीसगढ़ से ही हो रही है जो वहाँ के मुख्यमंत्री की इच्छा शक्ति और दूर की सोच की परिणिति है। निश्चित रूप से आने वाले समय में पराली उपयोग का छत्तीसगढ़ मॉडल पूरे देश के लिए वरदान बनेगा बल्कि छत्तीसगढ़ जैसे छोटे से प्रान्त को अभिनव नवाचारों के लिए भी जाना जाएगा।
ऋतुपर्ण दवे
अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और Twitter पर फॉलो करें।