‘‘भविष्य की तो कौन जानता है, पर किशोरवय की चंचलता के कारण उन्हें कई बार मां की ही नहीं, पिता की भी डांट खानी पड़ती। मां-पिता भविष्य देखते थे और वे किशोरियां वर्तमान, जिसमें भरे होते सपने-ही-सपने। असत्य तो उन सपनों के बीच समाता ही न था। हर लड़का राजा, हर लड़की रानी। काश कि बचपन वहीं ठहर जाता।’’
जैसे ही तांगा गली के मोड़ पर मुड़ा, सत्या का दिल बैठने लगा था। ऐसा नहीं था कि वह इस शहर में पहली बार आई हो। यहां तो उसके बचपन से लेकर किशोरवय तक के किलकते-हंसते दिन बीते थे। जीवन के सबसे सुखद सपने उसने और मीरा ने यहीं देखे थे। वह तो ऐसी उम्र थी जब वह सत्य और कल्पना में भेद नहीं कर पाती थी। सारी कल्पनाएं उसे सुनहरी और सत्य लगती थीं। मीरा और वह घंटों बतियाती रहतीं, पर उनमें कभी कहीं कोई निराशा की गंध नहीं होती थी। भविष्य की तो कौन जानता है, पर किशोरवय की चंचलता के कारण उन्हें कई बार मां की ही नहीं, पिता की भी डांट खानी पड़ती। मां-पिता भविष्य देखते थे और वे किशोरियां वर्तमान, जिसमें भरे होते सपने-ही-सपने। असत्य तो उन सपनों के बीच समाता ही न था। हर लड़का राजा, हर लड़की रानी। काश कि बचपन वहीं ठहर जाता। बचपन कब रू-ब-रू नहीं हो पाया है जिंदगी की धुंधली राहों से। जिंदगी के हर मोड़ पर वह खड़ा हो जाता है। उनके घर कितने छोटे थे और सपने कितने बड़े। छोटे घरों में बड़े सपने देखना कोई गुनाह तो नहीं था।
तांगे वाले ने फिर पूछा, ‘कहां तक जाना है बहनजी?’ ‘आगे तो चलो अभी।’ सर्दी का सूरज साढ़े चार बजते-बजते धुंधला गया था। छोटा शहर, भीड़-भाड़ से दूर, इस कॉलोनी की गली में इक्का-दुक्का लोग ही चलते नजर आ रहे थे। तांगे के घोड़े की टाप सुन कुछ लोग घर के बाहर निकल-निकलकर देखने भी लगे थे। सत्या की आंखें मकानों के नम्बरों पर टिकी थीं और मन बिजली की गति से दौड़ रहा था।
‘मीरा सुना है, पिताजी का ट्रांसफर होनेवाला है।’ ‘ये नहीं हो सकता।’ मीरा एकदम तिलमिला उठी थी। सत्या के पिता का ट्रांसफर होने का अर्थ है सहेली सत्या का भी चले जाना। वह यहां पर इसीलिए तो है कि उसके पिता यहां बैंक अधिकारी हैं। पिछले सात वर्षों से वे यहीं टिके हैं। मीरा के पिता का तो व्यवसाय ही यहां है। दोनों सखियों के घर नजदीक थे। वे आसानी से एक-दूसरे के घर किसी भी समय आ-जा सकती थीं। एक ही स्कूल में पढ़ने के कारण उनकी मित्रता और भी गहरी हो गई थी। मीरा और सत्या की दोस्ती में कोई दुराव-छिपाव नहीं था। छोटी-से-छोटी चीज भी वे एक-दूसरे को दिखाने दौड़ पड़तीं। पहनने-ओढ़ने, किताब-कॉपी, एक जैसे बस्ते, एक जैसे कपड़े, एक जैसी किताबें और एक जैसा खाना, एक जैसी पसंद, एक जैसा फैशन।
समय नदी की धार बन बहता रहा। उस धारा में बह गए थे बड़े-बड़े समय के पत्थर। पिता की बदली के संग बिछुड़ गई थीं दोनों सखियां-सत्या और मीरा। दोनों की पढ़ाई पूरी हुई। फिर शादियां हुईं। एक-दूसरे के घर शादी के निमंत्रण आए थे। कोई जा तो नहीं सका था। केवल शुभकामनाओं के पत्र भेज दिए गए थे।
मीरा अपनी शादी के आठ दिन बाद ही सत्या की शादी का बहुत ही सादा-सा निमंत्रण पत्र देख हैरान रह गई थी। सत्या की शादी साहिल से? साहिल, सत्या के साथ पढ़ने वाला लड़का था। निरंतर रहनेवाले पत्र-व्यवहार में दोनों सहेलियों को एक-दूसरे की पूरी जानकारी रहती थी। साहिल का जिक्र तो सत्या ने कई पत्रों में किया था, पर बात यहां तक बढ़ जाएगी, यह अंदाजा उसे नहीं था। मीरा को इस बात पर कुछ क्रोध भी आया। सत्या की बच्ची इतनी बड़ी बात मुझसे छुपा गई।
मीरा ने जब अपनी सहेली को क्रोध और उलाहने से भरा पत्र लिखा तो उसका छोटा-सा उत्तर क्षमा प्रार्थना के साथ आया था। हस्ताक्षर! सत्या, साहिल के साथ शादी की बात छिपा लेने का कारण यह था कि हम दोनों के परिवार तो इस शादी के लिए राजी थे, पर दोनों की बिरादरी इस रिश्ते को नहीं स्वीकार पाई। शादी के दूसरे ही दिन लोगों की भीड़ ने हमारे घर पर हमला बोल दिया। मां-पिता ने हमें पिछले रास्ते से भगा दिया। हम भागकर ट्रेन में चढ़े और एक अन्य दोस्त के यहां महीने भर छिपे रहे। फिर दूसरे रिश्तेदार के यहां रहे। इस बीच हमारे लंदन जाने का इंतजाम हो गया। आगे की कहानी तुम्हें मेरे पिता ने बताई ही होगी। साहिल की ओर मेरा आकर्षण तो था, किन्तु पिता ने वचन लिया था कि जब तक मैं तुम्हारी शादी न कर दूं तब तक तुम अपनी मां से भी यह बात नहीं कहोगी।
और मां को तब बतलाया गया, जब हम दोनों कोर्ट में शादी करके घर लौटे। पिता के साहस, उदारता और प्यार के आगे मैं नतमस्तक हूं मीरा। उन्हें भी बिरादरी के बंदों का डर था, वही हुआ। भड़के लोगों ने घर ही नहीं तोड़ा पिता के हाथ-पैर भी तोड़ दिए थे। वे छ: माह बिस्तर पर पड़े रहे। वो तो कुछ भले मानसों ने उन्हें बचा लिया। हम लंदन के लिए रवाना हों, उसके पहले ही मेरे पेट में दर्द होने लगा। इतना भारी दर्द मैं सह नहीं सकी। प्रथम मातृत्व का दर्द सातवें मास में ही उठा और बेटे का जन्म हो गया। इतने कमजोर, समय से पूर्व जन्मे बच्चे को बीस दिन अस्पताल में ही रखा गया। फिर आठ दिन मां के दूध पर पला। हमें लंदन जाना था। इतने छोटे कमजोर बच्चे को सम्भालना भी कठिन था। अभी तक हम समाज की नजरों से छिपकर रह रहे थे। पिता या ससुर के घर में जा नहीं सकती थी।
दोनों घरों में बार-बार धमकी भरे पत्र मिल रहे थे कि अब जब भी लड़का या लड़की हमें घर में दिखाई देंगे, हम उन्हें जिंदा नहीं छोड़ेंगे। धर्म के ठेकेदारों का यह जुनून दो प्रेमियों के साथ-साथ दो परिवारों को भी नष्ट कर रहा था। समझदार परिवारों ने दोनों बच्चों को बचाने के लिए पहले तो देश में ही आठ माह छिपाकर रखा, फिर विदेश भेजने की व्यवस्था कर दी। उन्होंने सोचा कुछ साल यहां से दूर चले जायेंगे, तब तक लोगों का क्रोध शांत हो जाएगा। किन्तु अब तीन सप्ताह के बच्चे की समस्या थी। इतने छोटे कमजोर बच्चे को प्लेन में ले जाने की अनुमति भी नहीं मिली। कुछ मित्रों ने सुझाया, बच्चे को किसी बालगृह में दे दो। इस बात पर मैं और साहिल दोनों ही राजी नहीं हुए। मेरा तो रोते-रोते बुरा हाल था। ‘पापा, मैं छिपकर भागना नहीं चाहती। मैं उनका सामना करूंगी, जो हमें बर्बाद करने पर तुले हैं।’ ‘बेटी, मैं तु्झे कैसे समझाऊं। भीड़ और क्रोध की बुद्धि नहीं होती। विवेक नहीं होता।’ ‘पापा उनका सामना करने के लिए हमें एक मौका तो दो।’ ‘बेटी अपनी टांगें सदा के लिए खोकर मैं ऐसी चुनौती कैसे ले सकता हूं।
अपनी आंखों की ज्योति को मैं आग में नहीं झोंक सकता।’ साहिल और सत्या के पिता भी लोगों की नजरें बचाकर मिलते थे। अपने बच्चों को बचाये रखने की योजना वे दिन-रात बनाते रहे। भारी विडम्बना यह थी कि जिन्हें लड़ना चाहिए था, वे तो गले मिल रहे थे और लड़ रहे थे वे, जिन्हें इनसे कोई लेना-देना नहीं था। घर और बाहर जलती आग के बीच उस छोटे बच्चे को मीरा के घर रातोंरात पहुंचाया गया था। आधी रात को चलने वाली गाड़ी से सत्या के मां-पिता बच्चे को लेकर जब मीरा के घर मुंह अंधेरे पहुंचे तो उन्हें देख वह हैरान रह गई। अपनी प्राणप्रिय सहेली के माता-पिता को इस संकट से उबारने के लिए उसने बच्चे को स्वीकार कर लिया। उस समय उसकी अपनी दो साल की एक बेटी थी। बच्चे को उसने अपने दूध से ही नहीं, प्राणों से सींचा, उसकी किलकारियों में तो वह भूल भी गई कि बच्चे को जन्म देनेवाली मां वह नहीं है।
और एक दिन तो ऐसा आया, जब उसे मां-पिता का नाम भी देना पड़ा। बड़ा होता जलज अपने मां-पिता इन्हीं को समझता रहा। स्कूल के कॉलेज के रजिस्टरों में पिता मीरा के पति थे। सारी स्थिति-परिस्थिति को समझकर मीरा के पति ने बहुत समझदारी से काम लिया। उन्हें सत्या का परिचय अपनी पत्नी मीरा से ही मिला था। मीरा के लिए सत्या का परिचय देना केवल एक सहेली का परिचय नहीं था। वह परिचय उसके जान-प्राण का परिचय था। मीरा के परिचय वर्णन से ही वे सत्या की तस्वीर मन में बनाकर उसका सम्मान करने लगे थे। अपनी पत्नी का भी वे सम्पूर्ण हृदय से आदर करते थे। उसकी किसी बात को वे कभी थोथी या निरर्थक नहीं समझते थे।
यही कारण था कि उन्होंने पत्नी की सहेली के मात्र बीस दिन के बेटे को अपने पास रखना स्वीकार कर लिया। एक वर्ष तक चला तूफान शांत हो गया और जीवन सहज सुचारू रूप से चलने लगा। अब मीरा अपने पितृ नगर में रहने आ गई थी। जलज बड़ा होता गया। पढ़ने के साथ-साथ वह खेल-कूद में भी हमेशा आगे रहा। समय की गति बहुत तेज रही। सत्या और उसके पति आठ वर्ष तक विदेशों में जगह-जगह घूमते हुए अपने पैर जमाने का प्रयत्न करते रहे। इधर मीरा के पति दूर अरूणाचल स्थानांतरित हो गए। बेटा जलज तो आगे बढ़ता रहा, किन्तु दोनों मां-बाप के बीच सम्पर्क टूट गया। एक-दूसरे का कुशलक्षेम जानने के लिए दोनों सखियां बेचैन रहतीं, किन्तु बरसों एक-दूसरे के पते नहीं जान पाईं। उधर सत्या के मां-पिता भी जीवित नहीं रहे। इधर मीरा के माता-पिता भी दुनिया छोड़ गए। युग बदल गए। माता-पिता का इतिहास अब बेटे-बेटी दुहराने लगे थे। बेटी ने जिसे पसंद किया, मीरा ने बिना किसी विवाद के खुशी से उसकी शादी कर दी।
एक दिन जब बेटा भी अपनी पसंद की लड़की के साथ इन पालनहार माता-पिता के सामने खड़ा हो गया, तब मीरा कुछ उलझन में पड़ गई। वह सत्या को खोजकर उसे इस शुभ सूचना से अवगत कराना चाहती थी। बेटे की बेचैनी बढ़ रही थी। मां जल्दी उसकी पसंद स्वीकार नहीं कर रही थी। ‘मां आखिर नैनी में बुराई क्या है?’
‘बुराई कुछ नहीं बेटा। कुछ दिन सोच लेने में क्या बुराई है?’ ‘और कितने दिन सोचोगी मम्मी?’
‘बेटा अपने घर जिसे लाना है, उसके लिए धैर्य से सोच-विचार करना होगा।’ ‘मम्मी बताओ न तुम्हें कितना समय चाहिए?’
‘बहुत बेचैन हो रहा है!’ हंसते हुए मीरा ने कहा।
मीरा का सुखी-संतुष्ट मन कई परतों के नीचे एक भारी अकुलाहट अनुभव कर रहा था। वैसे यह अकुलाहट नई उत्पत्ति नहीं थी। पिछले बाईस सालों से मन के किसी कोने में पड़ी आग आज जैसे भभककर ऊपर आना चाहती थी। अब वह हर क्षण यही सोचती थी कि किस तरह जलज को सत्य बताऊं? बताऊं भी या नहीं। सत्या मिल पाती तो उससे सलाह करती। अब जब कभी वह अपने बेटे को देखकर ले जाना चाहेगी तब क्या होगा? मैं कैसे सहूंगी? और जलज जाएगा? आसानी से वह मानेगा क्या?
एक मकान के गेट पर नामपट्ट देखकर तांगा रुका। ‘यही नम्बर है न बहनजी?’ तांगे वाले ने कहा तो सत्या एकदम चौंकी, ‘हां-हां यही।’ उसका दिल तीव्र गति से धड़क रहा था। धीमे कदमों से चलकर वह गेट तक पहुंची। काफी बदल दिया है मकान को मीरा ने। इस सुन्दर सुहाने मकान में वह तो पिता के समय का पुरानापन ढूंढ़ रही थी। वह ईंटों की दीवार को छूता हरसिंगार, वह पीछे आंगन से झांकता आम, आंगन के साथ-साथ चलती कच्ची नाली और बरामदे में पड़ी चिकें। मीरा ने घर और युग दोनों ही बदल दिए हैं। उसने गेट पर लगी बेल बजाई। किसी युवक ने आकर दरवाजा खोला। क्षण मात्र को वह सत्या के पैरों पर झुका और झट सामान उठाकर अन्दर चला गया। सत्या उसके पूरे रूप को आंखों में भी नहीं भर पाई। वह तांगे वाले को पैसे चुकाकर मुड़ी तो मीरा सामने खड़ी थी। घर के बरामदे में ही भरत-मिलाप-सा दृश्य उपस्थित हो गया। दोनों के आंसुओं से धरती भीगने लगी।
बेटा जलज खिड़की से यह दृश्य देखकर चकित था कि दोनों सहेलियां ‘हैलो हाय के साथ मिलने के बजाय रोकर गले मिल रही हैं। हां मां ने बताया था, शायद मिलने का पुराना ढंग यही था। पर आंटी तो बरसों विदेश में रही हैं? कुछ लोग होते हैं जो अपना पुराना ढंग नहीं छोड़ते। क्या किया जाए। पर मम्मी को रोते देखना उसे अच्छा नहीं लग रहा। हां- वो भी होस्टल से आकर जब मम्मी के गले लगता तो मम्मी की आंखें भर आती थीं। महिलाएं भावुक होती ही हैं।
वे दोनों ड्राईंगरूम में आकर बैठ गई थीं और जलज क्रिकेट मैच देखने में व्यस्त था। सत्या की आंखें ड्राईंगरूम में लगे युवा के चित्रों पर अटक-अटक जा रही थीं। इसकी आंखें कितनी मिल रही हैं उनसे। जब दोनों सहेलियों की आंखें टकराईं तो मौन बहुत कुछ कह गया। चाय पीते-पीते सत्या की आंखें उन चित्रों पर बार-बार टिक रही थीं और मीरा की आंखें डबडबा रही थीं।
‘बेटा जलज आओ। मौसी के साथ चाय पीयो।’
अपने लिए ‘मौसी, शब्द सुन एकबारगी सत्या कांप उठी। फिर अपने को संयत कर बातें करने का प्रयत्न करने लगी। पर सामने बैठे जलज को देख-देख उसका जिंदगीभर का रुका ममत्व फूट पड़ने को आतुर हो उठा। मीरा ने नाजुक स्थिति को समझा और जलज को किसी बहाने बाहर भेज दिया। दो स्त्रियों के इस भावनात्मक संघर्ष को समझने में जलज असमर्थ था। फिर भी वह इतना बच्चा नहीं था। कुछ गम्भीर बात है, यह उसे समझ में आ रहा था। सत्या चाहकर भी जलज से बात नहीं कर पा रही थी।
कितनी बातों के ग्रंथ भरे थे मन में, फिर भी दोनों सहेलियां ऊपरी बातों में अपना समय काट रही थीं। रात का खाना तीनों ने साथ खाया। थकी होने के कारण सत्या जल्दी सोने चली गई। मन में उठती ऊंची लहरें उसे नींद में जाने से रोक रही थींं। वह चाह रही थी कि जलज के पास ही बैठे और उसे ही निहारती रहे। अंतर्मन ने पूछा, ‘क्या जलज मेरे साथ जाने को राजी होगा? जब उसे सत्य पता चलेगा तब भी क्या वह अपनी इस जन्मदात्री मां का आदर करेगा? सत्या का सिर फटने को हुआ। एक नींद की गोली निगल वह सो गई। उधर मीरा बेटे के पास आ बैठी थी।
‘ममा, आज तुम कुछ परेशान लग रही हो?’
‘नहीं तो बेटे। बस कुछ थकी हूं।’ ‘नहीं ममा कुछ बात है। डैडी की याद आ रही है?’ मीरा मुस्करा दी, ‘वो कौन-से बहुत दूर गए हैं, कल या परसों आ जाएंगे।’ ‘फिर क्या बात है मम्मी?’
‘सोचती हूं अगर तुझे लंदन पढ़ने भेज दूं, तो मैं कैसे रहूंगी अकेली।’ ‘मां मैं कहीं नहीं जाऊंगा।’ कहते हुए जलज मां के गले में झूल गया। मां ने बेटे का माथा चूमा। ‘अच्छा बेटे, अब सो जा। मैं भी सोऊंगी।’ सत्या चार दिन मीरा के पास रही। दोनों सहेलियां उठते-बैठते, घूमते-फिरते, खाते-पीते तनाव में बनी रहीं। दोनों में से किसी का साहस नहीं हुआ कि बेटे को सच से अवगत करा दें। हालांकि पहले दोनों में यह तय हो चुका था कि जब हम दोनों सामने होंगी, बेटा भी सामने होगा, तब उसे सत्य से परिचित करा देंगे। मीरा और जलज का लाड-दुलार भरा सम्बन्ध देखकर सत्या का मन सत्य को चोट करने को नहीं हुआ।
यदि उस समय बीस दिन के बालक को मीरा स्वीकार न करती तो? सत्या ने दूसरे दिन जाने की तैयारी कर ली। मीरा ने देखा तो सत्या के पास आ खड़ी हुई। सत्या ने मीरा के कंधे पर सिर टिका दिया और रो पड़ी। मीरा की आंखें भी बरस पड़ीं। ‘मीरा, मैं तुम्हारी कोख सूनी करने का साहस नहीं कर सकती।’ ‘यह क्या कह रही हो सत्या? कोख तुम्हारी सूनी हुई है।’ ‘कोख मेरी थी, पर उसकी रौनक तुम्हारे घर में समाई है। अब उसे सूनापन देना अन्याय होगा। तुम्हारे तप की मैं तुम्हें सजा नहीं दे सकती।’ मीरा का मन हुआ, सहेली के पैर पकड़ ले। पूर्व में प्रभात की किरणें फूट रही थीं और बेटा जलज ‘मौसी मां को छोड़ने स्टेशन जा रहा था। दो दिन से वह अपनी मम्मी के कहने पर सत्या को इसी सम्बोधन से बुला रहा था।
-लेखक – उर्मि कृष्ण