सुलभ के साथ हम कमरे में बैठकर चाय की चुस्कियां ले रहे थे। शाम के पांच बज रहे थे। कमरे में दीवार पर टंगी घड़ी टिक-टिककर अपने मंजिल की तरफ बढ़ रहीं थी। शैलजा भाभी ने चाय और नाश्ता बनाकर टेबल पर रख दिया था। हम दोनों अपनी बातों में मशगूल थे। विदेश में रहने की वजह से गांव आना कम होता है। लंबे अर्से के बाद हम गांव आए थे। सुलभ हमारा बचपन का दोस्त और सहपाठी रहा। हम दोनों एक साथ रहकर उच्चशिक्षा ग्रहण की। इस बार सुलभ से मिलने हम उसके घर आए थे। मैं और सुलभ आपस में बातचीत कर रहे थे तभी शैलजा भाभी ने कुछ और गरमा-गरम पकौड़े लाकर टेबल पर रख दिए।
अरे, भाभी! इतना सारा हम नहीं खा पाएंगे। छोड़िए, आपको विदेश में भाभी के हाथ के गरमा-गरमा पकौड़े कहां मिलेंगे, वहीं भी गांव वाली भाभी के हाथ से बने। शैलजा भाभी यह कहते हुए मुस्कुराती अंदर चली गई थीं। शैलजा भाभी की बात सुनते ही सुलभ ने जोर के ठहाके लगाए थे। उसी ठहाके में मेरी हंसी गुम हो गई थी।
अरे, अजीत तुम बड़े नसीब वाले हो भाई, भाभी का इतना प्यार, वह भी गांव वाली का, तुम्हारे विदेश में कहां मिले। सुलभ ने कहा था। जी! सुलभ यह बात तो तुमने ठीक कहीं, विदेश तो बस नाम का है भाई। वहां तो आदमी मशीन है, केवल पैसे हैं लेकिन अपनापन और यह प्यार कहां। यह सब सुनने और पाने को हम लोग तरस जाते हैं। अब क्या करें, जिंदगी को चलाने के लिए तो रोजी-रोटी चाहिए ना। विदेश जाना तो मजबूरी है भाई। यहीं वजह है हमें गांव और आप सबकी बहुत याद आती है।
‘अजी सुनती हो’ सुलभ ने शैलजा के लिए आवाज लगाई थी। कमरे के अंदर से शैलजा ने कहा था ‘अभी आर्इं’। बोलिए, शैलजा कमरे में पहुंचते ही कहा था। ‘अरे भाई, कुछ पल तो अजीत के साथ भी बिता लो, बेचारा विदेश से आया है। जल्द ही लौट जाएगा, इतना समय कहां है। कोई घर आया है तो तुम्हें फुर्सत ही नहीं मिलती। बैठो और चाय तुम भी पियो’। सुलभ ने कहा था।
‘हूँ, ऐसी कोई बात नहीं, हमने सोचा थोड़ा नाश्ता काव्या के लिए भी बना दें, अभी वह शहर कोचिंग के लिए गई है लौटती होगी’। शैलजा ने अपनी बात पूरी की। सभी लोग चाय की चुस्कियों और पकौड़े में तल्लीन हो गए। दीवार पर टिक-टिक करती घड़ी ने जाने कब शाम के सात बजा दिए थे पता ही नहीं चला था। शैलजा भाभी के दिल में अब कुछ हलचल सी होने लगी थी। उनका मन अब बातों में नहीं लग रहा था। वह बार-बार टिक-टिक करती घड़ी को देख रहीं थीं।
अजीत उनके चेहरे की रंगत बदलते देख समझ गया था कि भाभी को कोई दिक्कत है। ‘भाभी, आप कुछ परेशान सी दिखती हैं, क्या बात है। मौसम तो ठंडा है फिर भी आपके चेहरे पर पसीने की बूँदें’। ‘नहीं, अजीत। ऐसी कोई बात नहीं है सब कुछ समान्य है’। शैलजा ने कहा था।
लेकिन शैलजा भाभी से रहा नहीं जा रहा था। उन्होंने दीवार घड़ी की तरफ इशारा करते हुए कहा था ‘काव्या अभी नहीं आयीं’। बेहद हल्के हल्के अंदाज में कहीं गई उनकी बात में कई सवाल थे। सुलभ अब गंभीर हो गया था।
‘अरे, हां। तुम ठीक कहती हो बातों-बातों में इतना समय हो गया, पता ही नहीं चला। चलता भी कैसे, मेरा दोस्त जो आया है। एक बनावटी हंसी ओढ़े सुलभ ने सबकुछ जैसे सामान्य होने की तरफ इशारा किया था। वह मुझे यह बताने कि कोशिश कर रहा था कि वह सामान्य महसूस करे। कोई इस तरह की बात नहीं है लेकिन बेटी की घर वापसी को लेकर सुलभ भी परेशान हो उठा था। उसके चेहरे को मैं अच्छी तरह पढ़ रहा था।
‘कहां रह गई वह, अभी तक कोचिंग से नहीं आई। वैसे तो शाम छह बजे तक लौट आती थीं। अधिक विलम्ब हो रहा है। आज के जमाने में भी अजीब लड़की है मोबाइल भी नहीं ले जाती’। सुलभ ने कहा था। ‘आज रितिका और सगुन भी कोचिंग नहीं गई हैं, अकेली गई है’। भाभी की बात को सुन सुलभ परेशान हो उठा। ‘फिर तुमने उसे अकेली जाने क्यों दिया’।
बारिश का मौसम अपना मिजाज बदल रहा था। हवाएं तेज हो गई थीं। आसमान में काले-घने बादलों के गुच्छ छाए थे। बादलों के गडगड़ाहट बीच कौंधती बिजली शैलजा भाभी को डरा रहीं थीं। जितना अधिक समय बीत रहा था बेटी काव्या को लेकर उनकी मुश्किलें और फिक्र भी बढ़ रहीं थीं। काव्या, भाभी की अकेली संतान थीं। बीएससी फाइनल की छात्र थीं। एक बेटी आने के बाद सुलभ और शैलजा ने नियोजन अपना लिया था। मैंने लाख समझाया था कि एक बेटा तो होने दो, लेकिन भाभी ने कहा था ‘अजीत, अब जमाना बदल गया है बेटा-बेटी में कोई फर्क नहीं, फिर क्या बेटियां किसी से कम होती हैं। आजकल का जमाना दूसरा है।
बहुएं आते ही नखरें दिखाती हैं। बेटे अपने साथ शहर लेकर चले जाते हैं। दु:ख-तकलीफ तो मां-बाप को ही उठानी पड़ती है। सारी जिम्मेदारी और टहल बेटियां उठाती हैं। सुख-दुख की साथी बेटियां होती हैं। बेचारी ससुराल जाने के बाद फिर वह लौटकर नहीं आती। सारी धन-दौलत बेटे लेते हैं, फिर इनके हिस्से में तो फूटी कौड़ी नहीं आती। शादी-ब्याह के दौरान जो दे दिया, सो वहीं इनका होता है।
समाज और समय का माहौल बदल गया है। हालांकि बेटियों को लेकर भी गांव-देहात में काफी कुछ बदल चुका है लेकिन लोगों की गिरती सोच की वजह से इनकी सुरक्षा का मसला अहम बन गया है। शहर से अधिक गांव इन बातों को लेकर काफी संजीदा हैं। जवान बेटी वह भी अकेली, मुश्किल से निकल पाती हैं। शैलजा भाभी बार-बार शहर से गांव आती उस सड़क को निहार रहीं थीं। अब बारिश होने लगी थीं। हवाएं और तेज हो चली थीं। बादलों में कौंधती बिजली भाभी के सीने को चीर रहीं थीं। उनकी आँखों से आंसू टपक रहे थे। काव्या के साथ शहर से लौटते समय कोई अनहोनी न हो, वह इसी बात को लेकर आशंकित थीं। क्योंकि शहर से गांव आने वाली सड़क निर्जन और सुनसान थीं। भाभी कभी सुलभ तो कभी मुझे कातर निगाहों से देखती।
मैं और सुलभ उन्हें धैर्य बंधाते ‘भाभी शांत हो जाओ। काव्या कोई दूध पीती बच्ची नहीं है। वह अपना बुरा-भला समझती है। कोई दिक्कत हो गई होगी जिसकी वजह से कोचिंग से लौटने में उसे देर हो रहीं है’। ‘अजीत, लौटने का सवाल नहीं है। मेरी काव्या बहुत गंभीर और सुशील है लेकिन अभी चार दिन पूर्व ही इसी कोचिंग की एक लड़की का कुछ मनचलों ने अपहरण कर लिया था। जंगलों में पहाड़ी के पास उसकी लाश मिली थीं। उस घटना को अखबार में पढ़ मेरे रोंगटे खड़े हो गए थे’। शैलजा भाभी ने कहा था। सुलभ और मैंने भाभी की चिंता को भांप लिया था।
हमने फैसला किया था कि हम दोनों अपने फोर व्हीलर से काव्या की खोज में शहर की तरफ निकलते हैं। सुलभ भी उठ खड़ा हुआ। तभी दरवाजे पर साइकिल की घंटी ट्रिन-ट्रिन बोली। भाभी बगैर सोचे दौड़ पड़ी और तेज आवज में काव्या-काव्या बोलती हुई बेटी को गले लगा फफक पड़ी।
‘माँ! यह क्या, तूं क्यों रो रहीं है। आज साइकिल की चेन ने काफी परेशान कर दिया। बार-बार उतर रहीं थीं फिर टूट गई, जिसकी वजह से देर हो गई। तूं भी न। इतना चिंता क्यों करती है मेरी। मैं कोई बच्ची थोड़ी हूँ, अब तेरी काव्या बड़ी हो गई है। सब कुछ जानती है। तूं ऊंच-नीच का ख्याल दिमाग से निकाल दे। हां, तुझे नहीं बताया जिम जाकर कराटे भी सीख लिए हैं। दस को तो मैं अकेले निपटा दूंगी। मैं अच्छी तरह जानती हूँ उस दिन की घटना अखबार में पढ़कर कुछ ज्यादा ही सोचने लगी हो’।
काव्या की बातों को सुन भाभी ने उसे गले लगा लिया था। बेटी के घर पहुँचते ही उनकी सारी फिक्र दूर हो गई थीं। थोड़ी देर बाद माहौल में शांति आ गई थीं। सुलभ के चेहरे पर भी सुकुन दिखने लगा था। बारिश अब हल्की पड़ने लगी थीं। अंधेरा और गहराने लगा था। तभी सन्नाटे को भंग करते हुए मेरी आवाज गूंजी थी ‘भाभी हम चलते हैं’।
‘अरे ! चाचू आप कब आए’। काव्या ने मेरे पैर छुए और गले से लिपट गई। अभी तो हमने आप से कोई बात ही नहीं किया। मैं मां को अच्छी तरह जानती हूं माँ ने आप और पापाजी को चैन से बैठने ही नहीं दिया होगा। आप आंटी को अभी फोन लगाइए मैं बोलती हूँ कि चाचा जी रात का खाना खाकर जाएंगे’। कमरे की सारी नीरवता तोड़ते हुए एक जोर का ठहाका गूंजा था। तभी अंदर से शैलजा भाभी मुस्कुराते हुए आई थीं और कहा था हां, काव्या ठीक कहती है। काव्या के घर आते ही भाभी की सारी फिक्र दूर हो गई थीं। सबकुछ सामान्य हो गया था, एक माँ की पीड़ा को देख मैं समझ गया था कि हमारे समाज और माँ-बाप की सबसे बड़ी फिक्र बेटियां हैं।
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