वह अपनी पत्नी के साथ ससुराल में आया हुआ था। इसी गांव में उसकी एक बहन भी ब्याही हुई थी। ससुराल में जब मिलना-जुलना हो गया तो उसने बहन से मिलने का मन बनाया लेकिन हिचकिचाहट भी हो रही थी। इसके कई कारण थे। वह एक साधारण दर्जी था। एक कपड़े के व्यापारी की दुकान के आगे जमीन पर मशाीन रखकर सिलाई करता था। व्यापारी को इसका एक लाभ था कि कभी कोई ग्राहक कपड़े का नाप जानना चाहता था तो यह नाप कर बता देता था। इसलिए उसने इसे दुकान के आगे बैठने की सुविधा दे रखी थी। उसकी दुकान बड़े टेलरों जैसी न होने के कारण ग्राहक उसे सिलाई थोड़ी देते थे। उसके ग्राहक भी गरीब होते थे सिलाई देते हुए कुछ छूट जरूर करवाते थे। वह भी मान जाता। सोचता सब कुछ महंगा है। उसकी सिलाई से किसी को थोड़ी राहत मिलती है तो अच्छा ही है।
परन्तु इस मजबूरी का नाम महात्मा गांधी की वजह से उसकी आर्थिक हालत कमजोर रहती। उसका सारा घर-खर्च सिलाई से ही चलता था। उसके पास आमदनी का और कोई साधन नहीं था। तीन बच्चे थे और तीनों ही ब्याहने लायक हो चुके थे। घर में बचत नाम की कोई चीज नहीं थी। बच्चों की पेट श्राई में ही सारी कमाई लग जाती थी। दोनों लड़के पढ़ाई छोड़कर बेकार फिर रहे थे। लड़की से तो कोई उम्मीद भी कैसे करें? उसे तो बस ब्याहना था।
कोढ़ में खाज अबकी बार एक और हो गई। बेटी के विवाह से पहले उसने घर का हुलिया सुधारने की कोशिश की। एक पुराने कोठे पर एक चैबारा बनाना शुरू किया। आप सोच रहे होंगे कि ये पैसे उसके पास कहां से आए? तो यह बात भी बताता चलूं कि उसकी पत्नी दहेज में दो-चार तोला सोना लेकर आई थी। सोना था तो नाक-कान में पहने लायक ही लेकिन जरूरत बहुत बड़ी थी। पत्नी को समझा दिया कि एक बार चांदी के गहनों से ही काम चलाओ फिर कभी दिन फिरे तो सोना भी ले देंगे।
पत्नी समझदार थी सो मान गई। परन्तु घर के हाल ने सुधरना नहीं था सो नहीं सुधरा। चौबारे की छत लगाकर ज्यों ही मिस्त्री नीचे उतरा, छत तो धड़ाम नीचे आ गिरी। यह तो अच्छा हुआ कि कोई नीचे नहीं आया। परन्तु रेत-सीमेंट और मजदूर-मिस्त्री की दिहाड़ी तो रेत में मिल गई। उन्हें चौबारे का मलबा हटाकर कोठे की छत सरकंडों से लगानी पड़ी। चौबारे की तो मन में ही रह गई। छत के नीचे दबने से कुछ सामान भी नष्ट हो गया था। उसे भी खरीदना था। कम-सेकम दस-पन्द्रह हजार का सवाल पैदा हो गया। परन्तु उसे हल कौन करे?
ले-देकर सारी रिश्तेदारी में एक यही बहन थी जो कुछ दे सकती थी। उसने इससे पांच हजार रूपए मांगें लेकिन यह साफ नाट गई कि हमारे पास तो कुछ नहीं। गांव के सरपंच ने प्रयास कर उसे आपदा राहत के कोटे से कुछ सरकारी मदद दिला दी। नहीं तो ऐन सड़क पर आ गए थे। जब इन्होंने अपनी इस बहन का विवाह किया था तो उस समय ससुराल वालों की भूमि कोई खास पैदावार नहीं देती थी। लेकिन पिछले कई सालों से जब से उन्होंने किन्नूओं का बाग लगाया, खूब आमदन होने लगी।
वे तो दो-चार साल में ही धन वाले हो गए। कार-कोठी सब कुछ बना लिया। ट्रैक्टर-ट्राली तो थे ही। बहन का इनके पास आना वैसे तो काहे को होता लेकिन बहन की एक ननद उधर ब्याही थी सो उससे मिलने जाती तो रास्तें में इनसे भी मिल लेती। बस चाय पीते इतनी देर ठहरती। जाते हुए एक-दो सूटों का कपड़ा निकालकर देती और कहती सिल देना। नाप तो आपके पास है ही। यह नग के दस-बीस पकड़ाता तो कहती-रहने दो। सूटों की सिलाई को ही नग मान लूंगी। ‘ले ! लो! बहनों से कौन सी सिलाई?’ यह कहता और वह दांत निकालते हुए पैसे पकड़ लेती।
इसी बहन के घर जाते हुए वह डर रहा था। सोचता था, बीस-तीस के तो केले ले जाने होंगे। कम से कम बीस रूपए बहन को नेग देना होगा। अगर शनजी ससुराल से यहां आई होगी तो उसे भी इतने ही देने होंगे। हो सकता आते हुए को बहन कोई बैगार और पकड़ा दे। परन्तु आए हुए हैं तो जाना तो पड़ेगा ही। बिना मिले चले गए तो बुरा लगेगा। हमें गिनती तो वह वैसे भी नहीं। तब तो बहाना मिल जाएगा कि हम तुम्हारे क्या लगते हैं? आए हुए मिलकर भी नहीं जाते ! वैसे तो मुझे पत्नी को भी साथ लेकर जाना चाहिए लेकिन उसका जाना तो बहुत महंगा पड़ेगा। जाएगी तो उसको भी नेग चुकाना होगा और उसका नेग तो सूट से कम नहीं होना चाहिए। ऐसी रीत है। इसलिए मैं अकेला ही मिल आता हूँ।कह दूंगा की उसकी तबीयत ठीक नहीं।
इसी तरह सोचता-विचारता वह बहन के घर की ओर चल दिया। उसकी ससुराल से बहन का घर काफी दूर था। गांव के बीच में अच्छा-खासा बाजार था। उसने बाजार में से एक किलो केले लिए। जाकर बहन को दिए। बहन ने देखकर कहा-ठंड में कौन केले खाता है? काहे को लाया। उसने देखा बहन के घर लाल सेबों की टोकरी पड़ी थी। उसने सोचा-केले और सेब में जितना अंतर होता है उतना ही अंतर मेरे और बहन में है। मैं सेबों की टोकरी में केलों की तरह आ पड़ा हूं। परन्तु फिर उसने सोचा कि मेरा और बहन का अंतर तो कुछ ज्यादा ही है। केले तो सेब वाले फल वर्ग में तो आते हैं। मैं तो बहन के वर्ग से भी बाहर हूँ। यहां आकर हीनता बोध से ग्रसित होने से तो न आना ही अच्छा था। परन्तु क्या करें? जैसे-तैसे निभानी पड़ती है।
खैर! बहन ने उसको चाय पिलाई। उसने बहन-शनजी को नेग चुकाया। जब वह चलने को हुआ तो बहन बोली – एक लड़की का और एक मेरा सूट सिलाने वाला है। आपको दे देती तो तुम कुछ ठीक सिल देते। टेलर तो बिगाड़ देते हैं। ‘लाओ ! तो दे दो।’ बहन ने अलमारी में इधर-उधर हाथ मारे। फिर कहा-आप चलो। कपड़ा मिल नहीं रहा है। मिलते ही मैं लड़के के हाथ भेजती हूँ। रास्ते में वह सोच रहा था-ये बाजार से कपड़ा खरीदकर भेजेंगे। वही हुआ। शनजा थोड़ी देर में कपड़ा लेकर उसके पास जा पहुंचा। दोनों ही सूट अस्तर वाले थे। उसने शनजा से पूछा कि अस्तर कहां है? अस्तर यहां मिला नहीं, आप वहीं से देख लेना।’
शनजा इतना कहते ही चला गया। उसकी पत्नी और सास ने जब यह बात सुनी तो वे तनतनाई-आप के इतनी क्या मजबूरी है कि आप कपड़े भी सिलो और अस्तर भी घर से लगाओ? बहन-बेटी से पैसे थोड़े मांगे जाएंगे? ‘क्या करें तो?’ ‘क्या, क्या करो? जबाब दे दो। उन्होंने क्या तुम्हें जबाब नहीं दिया था?’ ‘गन्दों के पीछे क्या गन्दा हुआ जाता है?’ ‘न होओ तो पड़े मरो। आपके तो बच्चे भूखे मरते हैं और लोगों की बेगार करते रहो। उनका तो घर भरा पड़ा है। इतना धन है कि आग लगाने पर भी खत्म न हो! कंजूस कहीं के!’ उसकी सास ने कहा-कुछ नहीं कपड़ा यहीं छोड़ जाओ। कह देना हम तो कपड़ा वहीं भूल आए। कपड़ा मैं लड़के के हाथ वापिस कर दूंगी। गंदों के साथ गंदा हुए बिना उन्हें क्या पता चलेगा! वह सिर पकड़ कर बैठ गया मानों कोई भूकंप आ गया हो।
लेखक: निशांत
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