पड़ोसी मुल्क श्रीलंका कुछ समय से सियासी भूचाल से ग्रस्त है। राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरीसेना ने मौजूदा प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे को हटाकर पूर्व राष्ट्रपति रह चुके महिंद्रा राजपक्षे को नया प्रधानमंत्री नियुक्त कर सियासी माहौल को गर्मा दिया। राष्ट्रपति मैत्रीपाला के इस निर्णय की पूरा संसार आलोचला कर रहा है। आलोचला इसलिए हो रही हैं कि उन्होंने विक्रमसिघें को गलत तरीके से पद से हटाया। हालांकि श्रीलंकाई संसद के स्पीकर कारू जयसूर्या ने फौरी राहत देते हुए विक्रमसिंघे को अब भी प्रधानमंत्री के तौर पर मान्यता दे रखी है। मुल्क में अजीब सा माहौल बना हुआ है। वैसे देखा जाए तो कानूनी रूप से रानिल विक्रमसिंघे ही पीएम हैं, लेकिन गैरकानूनी तरीके से महिंद्रा राजपक्षे ने खुद को पीएम घोषित कर दिया। मुल्क में पहली बार ऐसा हो रहा जब दो-दो पीएम दिखाई पड़ रहे हों।
इन सियासी पचड़ों के चलते श्रीलंका अब मध्यावति चुनाव की तरफ बढ़ता दिखाई पड़ने लगा है। मध्यावति चुनाव की पहल खुद नवनियुक्त पीएम महिंद्रा राजपक्षे ने की है। खैर, मान्यता प्राप्त पीएम राजपक्षे रहेंगे या विक्रमसिंघे इस बात की तस्वीर कुछ दिनों में साफ हो जाएगी। लेकिन यह निश्चित है कि देश में जल्द चुनाव होंगे। भविष्य की स्थिति जो भी बने, लेकिन महिंद्रा राजपक्षे ने पूर्व चुनाव में सिरीसेना द्वारा मिली हार का बदला उनकी बेदखली से चुकता जो जरूर कर लिया है। लेकिन राजनीतिक पंडित इसे पूरे खेल को तख्तापलट की राजनीति करार दे रहे हैं।
श्रीलंका में पिछले एक सप्ताह के भीतर तेजी से बदले सियासी समीकरण को कई रूपों में देखा जा रहा है। विक्रमसिंघे भारत के प्रति बेहद ही उदारवादी माने जाते रहे हैं वहीं नए पीएम बनें राजपक्षे की सोच कट्टरता की रही है। तमिल मुद्दे पर उनकी सोच भारत के प्रति हमेशा अलग रही। खैर, नए समीकरण के मुताबिक मुल्क की कमान एक बार फिर से पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे के हाथ में आ गई है। इसी माह की छब्बीस अक्टूबर को उन्हें प्रधानमंत्री पद की शपद दिलाई गई। लेकिन उनके पद पर आसीन होते ही श्रीलंका में सियासी माहौल और गड़बड़ा गया है। विपक्षी दल उनकी नियुक्ति को अवैध और तानाशाही करार दे रहे हैं। दरअसल राजपक्षे के पीएम बनने का रास्ता तब खुला जब सिरिसेना की पार्टी ने रानिल विक्रमसिंघे के नेतृत्व वाली सत्तारूढ़ गठबंधन सरकार से समर्थन वापस लिया। उसके बाद तेजी से बदले राजनीतिक घटनाक्रम के तहत राजपक्षे को पीएम पद की शपथ दिलाई गई।
लेकिन रानिल विक्रमसिंघे अभी भी खुद के प्रधानमंत्री होने का दावा कर रहे हैं। इसके लिए वह कोर्ट जाने की भी बात कह रहे हैं। राजपक्षे और विक्रमसिंघे एक दूसरे के धुर कट्टर विरोधी रहे हैं। सियासी अखाड़े में एक दूसरे को मात देने की फिराक में हमेशा कोशिशें करते रहते हैं। पूर्व में हुए चुनाव में जनता ने विक्रमसिंघे का साथ दिया, वहीं राजपक्षे को मुंह की खानी पड़ी थी। राजपक्षे की विगत हार ने दोनों नेताओं के बीच सियासी तल्खियों को और बढ़ा दिया। खैर, राजपक्ष्ो के पीएम बनने के बाद मुल्क में संवैधानिक संकट पैदा होने की संभावनाओं को जन्म दे दिया है। वह इसलिए, क्योंकि मुल्क के संविधान के 19वें संशोधन के मुताबिक, बहुमत मिले बिना वह विक्रमसिंघे को पद से नहीं हटा सकते।
पूरे गणित को हमें समझना होगा कि सिरिसेना की श्रीलंका फ्रीडम पार्टी विक्रमसिंघे के साथ गठबंधन सरकार का हिस्सा थी। राजपक्षे की नियुक्ति राष्ट्रपति के उस फैसले के ठीक तुरंत बाद हुई जिसमें उन्होंने गठबंधन सरकार को छोड़ने का ऐलान किया। जबकि यह सरकार मौजूदा प्रधानमंत्री रानिल विक्रमासिंघे की यूएनपी पार्टी के साथ मिलकर चलाई जा रही थी। श्रीलंका में सियासी भूचाल आएगा इस बात का अंदाजा तभी से लग गया था जब राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच रस्साकशी की खबरें आम हो गई थी। वह एक दूसरे के फैसलों पर आनाकानी करने लगे थे। विक्रमसिंघे ने कई बार मैत्रीपाला के फैसलों का विरोध किया। इसलिए दोनों में तकरार की कहानी वहीं से शुरू हो गई। इसी बीच राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरीसेना ने विक्रमसिंघे के सबसे कट्टर दुश्मन महिंद्रा राजपक्षे के साथ पूरा खेल खेला।
नए प्रधानमंत्री राजपक्षे का पूरा सियासी इतिहास किसी तूफान से कम नहीं रहा है। दरअसल राजपक्षे का सियासी प्रभाव मुल्क के भीतर लिट्टे और तमिल विद्रोहियों के सफाये के बाद से बढ़ा था। विद्रोह जब खत्म हुआ तो उसी दौरान श्रीलंका में पहली बार संसदीय चुनाव हुए जिसमें उन्हें पूर्ण बहुमत मिला। बहुमत हासिल कर सत्ता पर काबिज हुए। श्रीलंका में कुल 225 संसदीय सीटें हैं। नियमों के अनुसार सरकार बनाने के लिए कम से कम 113 सीटों की जरूरत होती है। इस लिहाज से राजपक्षे अभी भी बहुमत से दूर हैं। ये बहुमत कैसे पूरा करेंगे, इस बात की चुनौती उनके समक्ष रहेगी।
राजपक्षे पर करप्शन के भी आरोप लगे। उनका पूरा परिवार भी रिश्वतखोरी के आरोप में लिप्त हैं।
दोनों बेटे जमानत पर बाहर हैं। राजपक्षे की सियासत में बेदाग छवि नहीं मानी जाती। श्रीलंका में गठबंधन की सरकार तीन साल पहले यानी जनवरी 2015 में बनी थी। तब विक्रमसिंघे के समर्थन से सिरीसेना राष्ट्रपति चुने गए थे। ये बात उस वक्त राजपक्षे को सबसे ज्यादा नागवार इसलिए गुजरी थी, उनकी सत्ता से बेदखली हो रही थी। तभी से मन में टीस पाले हुए थे कि जैसे ही मौका हाथ लगेगा। पूर्व में राजपक्षे के एक दशक का कार्यकाल जब पूरा हुआ था तो सिरीसेना, राजपक्षे सरकार में मुख्य स्वास्थ्य मंत्री हुआ करते थे।
लेकिन पिछले चुनाव में उन्होंने राजपक्षे का साथ छोड़ अलग से चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। तल्खियों के बढ़ने की शुुरूआत यहीं से हो गई थी। श्रीलंका के पूरे सियासी एपिसोड पर भारत को पैनी नजर रखने की जरूरत है। क्योंकि भारत के साथ संबंधों को लेकर राजपक्षे की उदारवादिता ज्यादा माफिक नहीं रहीं है। उनका झुकाव चीन की तरफ ज्यादा रहता है। इस वक्त भारत-चीन के बीच सियासी संबंध उतने अच्छे भी नहीं है। इस लिहाज से चीन भारत को चिड़ाने के लिए राजपक्षे की तरह दोस्ती का हाथ बढ़ाएगा। हालांकि भारत दोनों के चंगुल में नहीं आएगा।
रमेश ठाकुर
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