देश की राजनीति में फेसबुक की भूमिका की चर्चा होनी एक महत्वपूर्ण घटना है, जिसने राजनीतिक विशेषज्ञों को भी असमंजस में डाल दिया है। दरअसल 2014 के लोक सभा चुनावों के दौरान सोशल मीडिया की चर्चा पहली बार हुई थी। इससे पूर्व केवल प्रिंट मीडिया और इलैक्ट्रोनिक मीडिया की चर्चा होती रही है। यह दौर इसीलिए महत्वपूर्ण है कि विश्व भर में अपना नैटवर्क चला रही फेसबुक अब विभिन्न देशों की राजनीति में अपनी जगह बना चुकी है। यदि सोशल मीडिया में से फेसबुक को निकाल दें तब शायद सोशल मीडिया का कोई औचित्य ही नहीं रह जाएगा। सूचना-तकनीक में क्रांति की बदौलत ही फेसबुक ने विश्व भर में कई प्रकार के अच्छे-बुरे बदलाव किए हैं।
ताजा विवाद कांग्रेस के आरोपों से शुरू हुआ है, कांगे्रस ने दावा किया है कि फेसबुक भाजपा के कहने पर चल रही है, दूसरी तरफ भाजपा केंद्रीय मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने नई बात कह दी है कि फेसबुक ने दक्षिण पक्षीय विचारों को जगह नहीं दी। मामला संसदीय समिति के पास भी पहुंच गया है और फेसबुक के अधिकारी अपनी निष्पक्षता व पारदर्शिता के समर्थन में दलीलें भी दे रहे हैं। मामले की वास्तविक्ता कब सामने आती है यह तो समय ही बताएगा, लेकिन यह जरूर है कि जहां फेसबुक का प्रयोग राजनीतिक पार्टियों के लिए चुनौती बन गया है वहीं फेसबुक संचालकों की जवाबदेही भी जरूरी बन गई है। सभी पार्टियों के लिए चुनाव की लड़ाई में सोशल मीडिया एक हथियार बन गया है। पार्टियां और नेताओं के लिए अब तकनीकी युग के अनुसार चलना जरूरी होगा। फेसबुक सहित कई अन्य वेब मीडिया संस्थाओं को अपने विशाल नेटवर्क को निष्पक्ष और पारदर्शी बनाने के लिए और कदम उठाने होंगे।
अरबों की यूजर्स संख्या में पोस्ट्स पर नजर रखना चुनौतीपूर्ण होगा। भले ही फेसबुक संचालक दावे करते हैं कि वह आपत्तिजनक पोस्टें हटाते हैं लेकिन यह दावा 100 प्रतिशत सही नहीं। बड़ी तादाद में भड़काऊ और अन्य आपत्तिजनक पोस्टें आज भी पड़ीं हुई हैं जो समाज में विवादों का कारण बनीं हुई हैं। नि:संदेह यह भारतीय राजनीति और भारतीय समाज के लिए बड़ी चुनौती है कि वे तकनीकी युग में अपनी परंपराओं और सामाजिक मूल्यों को कैसे बरकरार रख सकेंगे। तकनीकी युग में परंपराओं व सिद्धांतों को बचाने के लिए बौद्धिक-चतुरता व तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता है।
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