रूहानी सवाल-जवाब

Spiritual-questions-and-answers

(Spiritual Questions and Answers)

पूजनीय परम पिता शाह सतनाम जी महाराज ने पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और उत्तरप्रदेश में सन् 1960 से 1991 तक बहुत से सत्संग फरमाए और इस बीच सत्संगगियों ने समय समय पर पूजनीय परम पिता जी से अनेक प्रश्न पूछे। जो कुछ प्रश्न विभिन्न स्त्रोतों से हमें प्राप्त हुए, उन्हें आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं। विभिन्न प्रान्तों की भाषा में सामंजस्य स्थापित करने के लिए मूल शब्दों में कुछ परिवर्तन किया गया है। यदि इनमें कोई व्याकरण या टंकण की त्रुटि हो तो इसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं।

प्रश्न : एकान्त में बैठकर किया गया सुमिरन तथा काम-धन्धा करते हुए एवं चलते-फिरते किया गया सुमिरन, दोनों में किसका फल ज्यादा है?

उत्तर : यदि कोई इन्सान चलते-फिरते, काम धन्धा करते तथा उठते बैठते हर समय विचारों द्वारा मालिक को याद करता है तो उसकी नाम जपने की आदत पकनी शुरू हो जाती है। जब वह एकान्त में मालिक की याद में बैठता है तो उसकी रूह शरीर के नौ द्वारों में से सिमट कर दसवें द्वार में जल्दी पहुंच जाती है और मालिक के दर्श-दीदार करती है। अत: बैठकर किए गए सुमिरन का फल अधिक है।

प्रश्न : कर्म किसे कहते हैं? इसका हमारे ऊपर क्या प्रभाव पड़ता है?

उत्तर : इन्सान मन, वचन या अपनी इन्द्रियों से जो भी अच्छे या बुरे कार्य करता है वे सभी कर्म कहलाते हैं। यदि हम बुरा कर्म करते हैं तो हमें दु:ख भोगने पड़ते हैं और यदि हम अच्छे कर्म करते हैं तो इसके परिणाम हमारे लिए सकारात्मक होते हैं। इन्सान के लिए सर्वोत्तम कर्म मालिक के नाम का जाप करना है, जो जन्म मरण की कैद से आजाद करवाता है।

प्रश्न : नाम-दान (गुरूमंत्र) प्राप्त करके भी अधिकतर लोग नाम सुमिरन की बजाय पाखंडवाद पर ज्यादा ध्यान देते हैं, ऐसा क्यों?

उत्तर : क्योंकि दुनिया में दिखावे का बहुत ज्यादा प्रचलन है। रातों-रात करोड़पति बनने, नोट दोगुने करवाने की लालसा मन में बनी रहती है। जिसके परिणामस्वरूप व अनेक प्रकार के पाखंडों में उलझकर रह जाते हैं।

प्रश्न : अगर हम जीव-जन्तुओं को नारा लगाकर या सुमिरन करके खाना दें तो क्या उस खाने से उनके कर्म कटते हैं?

उत्तर : ‘जैसा खाये अन्न, वैसा होये मन’ इन्सान जैसे विचारों से किसी जीव को भोजन खिलाता है तो खाने वाले जीव पर उसका वैसा ही प्रभाव पड़ता है। इसीलिए यदि हम परमात्मा का सुमिरन करके या नारा लगाकर किसी जीव को कुछ खिलाते हैं तो उस जीव के कर्माें का भार अवश्य ही हल्का हो जाता है।

प्रश्न : यदि हम नाम लेकर घर पर ही भजन-सुमिरन करते रहें व सत्संग में न आएं तो क्या यह उचित है?

उत्तर : नाम रूपी पौधे को फलने फूलने के लिए सत्संग रूपी पानी की आवश्यकता होती है। यदि सत्संगी इन्सान सत्संग में आता रहता है तो सतगुरू की याद ताजा बनी रहती है तथा उसे अपने मुर्शिद के वचन भी याद रहते हैं, जिससे वह बुरे कर्मों से काफी हद तक बचा रहता है। इसलिए सत्संग में आना जरूरी है।

गांव नुहियांवाली पर बरसी संतों की रहमत

यह डेरा सरसा से करीब 45 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस आश्रम में पहुंचने के लिए सरसा-डबवाली जीटी रोड से गांव पन्नीवाला मोटा तथा ओढ़ा से लिंक सड़क जाती है। परम पूजनीय हजूर बाबा सावण सिंह जी महाराज से नामलेवा व जिंदगी भर पूजनीय बेपरवाह शाह मस्ताना जी महाराज की सोहबत में रहने वाले लाला नेकी राम जी इसी गांव के रहने वाले थे। जब पूजनीय हजूर बाबा सावण सिंह महाराज ने पूजनीय बेपरवाह शाह मस्ताना जी महाराज को अपनी रूहानी ताकत व बख्शिशों से नवाजकर रूहों को तारने का कार्यभार सौंपकर सरसा भेज दिया तो पूज्य हजूर बाबा सावण सिंह जी महाराज ने लाला नेकी राम सहित सरसा की साध-संगत को पूजनीय बेपरवाह शाह मस्ताना जी महाराज की सोहबत करने का हुक्म फरमाया कि सारी साध-संगत मस्ताना शाह के दर्शन करे और उन्हीं की सोहबत करे तथा लाला नेकी राम सहित पांच सत्संगी भाईयों की पूजनीय बेपरवाह जी की सेवा में पक्की ड्यूटी भी लगा दी। सन् 1952 की बात है एक दिन लाला नेकी राम जी ने पूजनीय बेपरवाह जी की पावन हजूरी में अपने गांव में आश्रम बनाने की प्रार्थना की। उससे पूर्व उसने गांव की साध-संगत की सहमति ले ली थी।

उसने प्रार्थना की ‘‘सांर्इं जी! आप नूहियां वाली में अपनी रहमत फरमाएं और वहां साध-संगत को आश्रम बनाने की आज्ञा प्रदान करें।’’ पूजनीय शाह मस्ताना जी साध-संगत को दिए वचनानुसार गांव नुहियां वाली में पधारे और वहां मजलिस लगाकर सारी साध-संगत को कोक (पका हुआ बड़ा रोट) का प्रसाद बंटवाया तथा अगले दिन आश्रम बनाने की सेवा शुरू हो गई। सबसे पहले पानी जमा करने के लिए 12 फुट लम्बी, 12 फुट चौड़ी और 12 फुट गहरी डिग्गी खोदकर उसे पक्का किया गया।

यह डिग्गी आज भी मौजूद है। पहले आश्रम के कमरे कच्ची ईटों से बनाए गए जो बाद में गिराकर पक्के कर दिए गए और चारदीवारी भी पक्की कर दी गई। पूजनीय बेपरवाह जी ने वहां उन दिनों सत्संग भी लगाया। डेरे का नामांकरण करते हुए पूजनीय बेपरवाह जी ने वचन फरमाया, ‘‘भाई! इस आश्रम का नाम ‘साध-बेला’ रखते हैं क्योंकि नुहियां वाली की साध-संगत का और खासकर नेकी राम जी का अपने मुर्शिद से हार्दिक प्रेम है। उसने अपने मुर्शिद का हुक्म सत् वचन’ कहकर माना है और इस गरीब मस्ताने का साथ निभाया है।

इसलिए हमने इनके गांव में पूर्ण संतों, फकीरों की बेला (ठहर) यानि यह आश्रम बनाया है। यहां पर कभी कभी जरूर आया करेंगे।’’ अपने मुर्शिदे कामिल के वचनानुसार परम पूजनीय परम पिता शाह सतनाम जी महाराज ने पहला सत्संग सन् 1982 में फरमाया और एक सत्संग 1988 में फरमाया तथा अपने सत्संंगों के जरिये क्षेत्र के सैकड़ों लोगों को नाम दान बख्श कर मुक्ति प्रदान की। इस आश्रम में साध-संगत की सुविधा के लिए 4 कमरे, 2 मंजिला गुफा, गैरिज, रसोई घर व एक खुला हॉल कमरा बने हुए हैं। शेष खाली जगह में खेती की जाती है। सब्जियां वगैरह उगाई जाती हैं। सतगुरु के हुक्मानुसार सत् ब्रह्मचारी सेवादार साध-संगत से मिलकर हक हलाल की कमाई करते हैं और इससे होने वाली आमदन को मानवता की भलाई के कार्यों में लगाया जाता है।

शोभा यात्रा निकालना एवं उत्तराधिकारी के रूप में घोषणा

आप जी द्वारा घर-बार गिरवाने तथा समस्त सामान को साध-संगत में बंटवाने के कुछ दिन उपरांत ही पूजनीय बेपरवाह जी ने डेरा सच्चा सौदा, सरसा (हरियाणा) के परिसर में तीन मंजिली एक बहुत ही सुन्दर गोल गुफा तैयार करवाई। इस गुफा के निर्माण में आप जी द्वारा लाए गए समस्त सामान जिसमें र्इंटें, गॉर्डर आदि का ही प्रयोग किया गया। पूजनीय बेपरवाह जी ने विशेष संदेश भेजकर पंजाब, राजस्थान, दिल्ली तथा हरियाणा से साध-संगत को दिनांक 28 फरवरी, 1960 के दिन डेरा सच्चा सौदा, सरसा बुलवा लिया। तत्परांत इसी दिन पूजनीय बेपरवाह जी के आदेशानुसार आप जी को सिर से पैरों तक सौ-सौ रूपये के नोटों के हार पहनाए गए। एक अत्याधिक सुंदर बिना छत वाली जीप मंगवाई गई, जो चारों ओर से खूब सजाई हुई थी। उस गाड़ी के अंदर एक सजी हुई आकर्षक कुर्सी पर आप जी को बैठाकर पूजनीय बेपरवाह जी ने साध-संगत के मुखातिब होकर हुक्म फरमाया, ‘‘सरदार सतनाम सिंह जी बहुत बहादुर हैं। इन्होंने इस मस्ताना गरीब के हुक्म को माना है और बहुत बड़ी कुर्बानी दी है।

इनकी जितनी तारीफ की जाए, उतनी ही कम है। आज से हमने इन्हें अपना वारिस, खुद-खुदा, कुल मालिक बना दिया है। सारे शहर की गली और मौहल्ले में शोभा यात्रा निकालनी है, ताकि शहर के बच्चे-बच्चे को पता चल जाए कि सरदार सतनाम सिंह ने गरीब मस्ताने के लिए इतनी जबरदस्त कुर्बानी दी है और आज से सरदार सतनाम सिंह को डेरा सच्चा सौदा का वारिस बना दिया है।’’ पूजनीय बेपरवाह जी ने आश्रम में आई हुई समस्त साध-संगत को शोभा यात्रा के साथ नगर भ्रमण पर जाने की आज्ञा देते हुए वचन फरमाए, ‘‘भई, इस यात्रा में ‘धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा’ का नारा जोर शोर से लगाते हुए यह भी बताना है कि आज से सार्इं सावण शाह जी के हुक्म से सरदार सतनाम सिंह श्री जलालआणा साहिब वाले को डेरा सच्चा सौदा का उत्तराधिकारी बना दिया है।

’’ पूजनीय बेपरवाह जी के उक्त फरमान के बाद भी कुछ प्रेमी शोभा यात्रा में नगर भ्रमण पर जाने की बजाय आश्रम में ही रूक गए। उन्हें आश्रम में ही देखकर बेपरवाह जी ने उन्हें बुलाकर शोभा यात्रा में न जाने का कारण पूछा तो वह कहने लगे ‘‘सार्इं जी हम तो आप जी के दर्शन करने के लिए रूक गए थे।’’ इस पर पूजनीय बेपरवाह जी ने जोशीली आवाज में फरमाया, ‘‘ भई हमने तो अपना सबकुछ सरदार सतनाम सिंह जी श्री जलालाआणा साहिब को दे दिया है। मौज के दर्शन करने हैं तो जुलूस (शोभा यात्रा) में जाकर सरदार सतनाम सिंह जी के करो।’’ अब हमारे पास कुछ भी बाकी नहीं है। इस प्रकार 28 फरवरी सन् 1960 को वह पावन दिन डेरा सच्चा सौदा के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा गया।

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