उतर प्रदेश में लोक सभा चुनावों में बड़ी हार के बाद बसपा व समाजवादी पार्टी ने औपचारिक रूप से गठबंधन तोड़ने की घोषणा कर दी है। वास्तव में यह गठजोड़ लोकसभा चुनावों तक ही बहुत मुश्किल से चला था। जिस प्रकार दोनों पार्टियों ने चुनावों से पहले ही एक दूसरे के खिलाफ सख्त तेवर दिखाए उससे स्पष्ट था कि गठबंधन दोनों पार्टियों के वर्करों का रास नहीं आ रहा परन्तु मुलायम सिंह यादव ने तो शुरूआत में ही गठबंधन के लिए कोई इच्छा नहीं दिखाई थी। अखिलेश यादव ने इस गठबंधन को मजबूत बनाने का काम किया है।
भले ही दोनों पार्टियों ने 2014 के मुकाबले इस बार लोक सभा चुनावों में अपनी स्थिति में सुधार किया है लेकिन जिस प्रकार भाजपा ने यूपी में अपना परचम लहराया है, उससे सपा-बसपा की नींद हराम हो गई है। दोनों पार्टियां फूलपुर व गोरखपुर लोकसभा हल्कों के उप-चुनाव में हुई जीत को आम चुनाव में दोहराने का सपना देख रही थी, जिसे अंजाम तक नहीं पहुंचाया जा सका। दरअसल यह गठबंधन भाजपा को हराने के लिए एक राजनीतिक सौदा था। विचारधारा की समानता गठबंधन का आधार नहीं बन सकी, गठबंधन के टूटने का कारण यह भी है।
बसपा और सपा दोनों उत्तर प्रदेश में अगली सरकार बनाने का दावा करती रही कोई भी पार्टी अगली सरकार में दूसरी पार्टी को हिस्सेदार नहीं देखना चाहती। अभी तक इन पार्टियों के लिए जीत ही सबसे बड़ा लक्ष्य रहा है। चुनावी रणनीति बनाने की अपेक्षा कहीं ज्यादा जरूरी है कि विपक्ष राज्य में अपनी भूमिका को सही तरीके से निभाए। केवल गठबंधन बनाने से सफलता नहीं मिलती। कई अन्य पार्टियों ने भी चुनाव हार जाने के बावजूद अपना गठबंधन कायम रखा, लेकिन यह बात इन पार्टियों को समझनी होगी कि मुद्दों के प्रति वचनबद्धता व जिम्मेवारी ही चुनावी नतीजे तय करती हैं। बेहतर होगा यदि सपा-बसपा जनता में जाकर उनकी समस्याओं को सुने। जनता को बसपा और सपा के निर्णय व रणनीति में विपक्ष की भूमिका कहीं नजर नहीं आ रही।
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