ब्रहमादेश के राजा थिबा महान् ज्ञानयोगी थे। एक बार एक भिक्षु उनके पास पहुंचा और उसने उनसे कहा-हे राजा, मैं वर्षों से अखंड जप और ध्यान कर रहा हूँ। लेकिन ज्ञान प्रप्ति नहीं हुई। एक आप है जो राजसी वैभव के बीच रहते है फिर भी ज्ञानयोगी कहे जाते हैं। इसका रहस्य क्या है? थिबा ने क हा-मैं उचित समय पर तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दूँगा। उससे पूर्व तुम एक दीपक लेकर मेरे अंत:पुर में प्रवेश करो। यहाँ सुख और भोग कि सभी सामग्री है। जिसकी कामना में साधारण मनुष्य दौड़ता है। भिक्षुक ने राजा का दिया जलता हुआ दीपक लिया और चलने लगा। राजा ने उसे रोका और क हा- स्मरण रहे यह दीपक बुझने न पाए। भिक्षुक राजा के अंत:पुर में दीपक उठाए गया और कुछ ही देर बाद वापस राजा के पास लौट आया। राजा ने पुछा- यहाँ सभी कुछ था, सुस्वादु भोजन, सुंदर परियां। तुमने इनमें से किसी का उपयोग किया या नहीं? भिक्षु ने कहा- आपने मेरे लिए इतनी सारी वस्तुएँ उपलब्ध कराई। परम गोपनीय अंत:पुर के द्वार तक खोल दिए, लेकिन मन तृप्त नहीं हुआ, क्योंकि मेरा सारा ध्यान दीपक पर था कि यह बुझ न पाए। थिबा ने कहा- बस, यही एक बिंदु है, जिस कारण सभी को ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। हम सभी सुख का उपभोग तो करते हैं, लेकिन आत्मज्ञान के दीपक की ओर ध्यान नहीं देते। वह दीपक बुझ जाता है और हम भोग में लगे रहते है। अच्छा तो यह हो कि मर्यादा में भोग करें लेकिन आत्म उन्नति का दीपक सदा प्रज्वलित रखें। जों मनुष्य दोनों में संतुलन बना लेते हैं, वे ही श्रेष्ठ कहलाते हैं। जो संसार में आया है स्वभावत: सुख भोगेगा। मगर इतना ही प्रर्याप्त नहीं है। सुख के साथ आत्म-उन्नति के लिए भी सजग रहने की आवश्यकता है।
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