अर्थव्यवस्था में जमीनी समस्याओं का हो समाधान

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अर्थव्यवस्था के तीन अंग हैं- प्राथमिक, औद्योगिक एवं सर्विस या सेवा क्षेत्र। ये तीनों अंग आपस में इंटरएक्ट करते हैं। प्राथमिक क्षेत्र औद्योगिक क्षेत्र को औद्योगिक क्षेत्र सर्विस क्षेत्र को। इसी भांति सर्विस सेक्टर भी औद्योगिक क्षेत्र एवं प्राथमिक क्षेत्र को प्रभावित करता है। तीनों का एकरूप और सबल रूप, अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करता है।

भारतीय अर्थव्यवस्था का प्राथमिक सेक्टर कृषि है। कृषि उद्योगों पर आधारित है तो उद्योग कृषि पर आधारित, सेवा क्षेत्र (ट्रांसपोर्टेशन, संचार माल ढुलाई, जल-थल-वायु परिवहन, बैकिंग आदि) इन सबको गति देता है। अगर यह क्षेत्र मजबूत नहीं है तो अर्थव्यवस्था को गति पकड़ने में मुश्किल होगी। भ्रष्ट सत्ता और भ्रष्ट प्रशासन अर्थव्यवस्था के लिए दीमक रूप हैं।

इन्हीं के सहारे समानांतर अर्थव्यवस्था रूप लेती है। सत्ता और प्रशासन इस व्यवस्था के निर्माता हैं। भ्रष्टाचार आम आदमी की मुश्किलें बढ़ाता है। उद्योग तो अपने उत्पादनों की कीमत बढ़ा लेते हैं। मूल्य बढ़ने से आम आदमी परेशान हो जाता है। अर्थव्यवस्था हीन स्थिति में आ जाती है।

आर्थिक विकास की पहली शर्त देश में शांति और व्यवस्था का स्थायी होना है। अगर देश शांत नहीं है तो इसका खामियाजा अर्थतंत्र भुगतेगा और आम आदमी भी। भारत बहुत बड़ा है, इसमें कश्मीर भी है, छत्तीसगढ़ और बंगाल तथा पंजाब भी हैं। आर्थिक विकास के लिए देश की सम स्थिति बड़ा योगदान करती है।

आर्थिक नाकेबंदी और अशांति अर्थव्यवस्था की सांसें रोकती है, आतंकवाद का असर सत्ता नहीं, अर्थव्यवस्था और आम आदमी भुगतता है। अर्थशास्त्री अर्थव्यवस्था के दृष्टा हैं। वे उसके अंगों की पड़ताल करते हैं एवं कमजोर अंगों को गति देने हेतु उचित दवा इंजेक्ट करते हैं। प्रशासनिक तंत्र को दिशा दिखाते हैं, सत्ता को अर्थव्यवस्था दिखाकर, उसके अंगों की स्थिति से वाकिफ कराते हैं तथा विकास कार्य गति पर लाने के उपाय बताते हैं। उनके प्रभावों से वाकिफ कराते हैं।

भारतीय अर्थव्यवस्था में यह स्थिति अधिक स्पष्ट हुई है। उपभोक्तावाद ने कृषि सेक्टर को अत्यधिक प्रभावित किया है। किसान अपनी आवश्यकता की चीजों की निर्धारित कीमत देता है, लेकिन उसे अपनी उत्पादित चीजों की बाजार द्वारा निर्धारित कीमत ही मिलती है। मंडी व्यवस्था में उसकी उत्पादित वस्तुएं सड़क पर पड़ी रहती हैं, ग्राहक नहीं मिलते।

उल्टे बरसात उसकी मेहनत को बीच सड़क पर मार देती है। देश का प्राथमिक क्षेत्र कृषि चतुराई के हाथों चित हुआ कराह रहा है। जान-बूझकर कृषि उपज को बर्बाद किया जाता है, लागत मूल्य भी नहीं दिया जाता। किसान आत्महत्या जन्म लेती है।

हावी उद्योग व्यवस्था और पूंजीपतियों की विषैली भावनाएं कृषि क्षेत्र की उत्पादकता को खा जाती है, मंडी में कीमत गिरकर जमीन पर आ जाती है, किसान लुट जाता है और उपभोक्ता मंडी के 10 रुपये किलो अनाज का अपने क्षेत्र में 26-27 रुपए देता है। माल पुराना, नई कीमतें। मंडी में 26-27 रुपये किलो भाव उत्पादकों के लिए नहीं है, बेचने वालों के लिए है।

सत्तातंत्र अपनी मौज में है प्रशासन को सत्ता तंत्र की चिंता है, उपभोक्ताओं की नहीं। खाद्य उत्पादन एवं आपूर्ति मंत्री अपनी कोठी में बैठा अंगूर और मेवे खाता है, अर्थव्यवस्था का अर्थ उपभोक्ता की लूट नहीं है, न आर्थिक विकास की ऐसी परिभाषा है।

नीति आयोग इस नीति को देखता है और चुप हो जाता है। अर्थव्यवस्था के अंग जमीन से जुड़े हैं। कृषि (प्राथमिक) क्षेत्र भी और औद्योगिक व सेवा क्षेत्र भी। इनके रूप भी जमीन पर तैयार होते हैं, इन्हें अर्थव्यवस्था की जमीन और जमीन के आदमी को देखकर तैयार किए जाना चाहिए। उत्पादकों को देखकर तैयार की जानी चाहिये।

बी.एल. माली 

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