पंजाब-हरियाणा सहित उत्तर भारत के राज्यों में आवारा पशु किसानों सहित शहरवासियों के लिए समस्या व सरकारों के लिए चुनौती बने हुए हैं। गेहूँ व अन्य फसलों को पशुओं की बर्बादी से बचाने के लिए किसान शारीरिक, मानसिक व आर्थिक रूप से परेशानियों का सामना कर रहे है। फसलों के रक्षकों को पैसा देने के साथ-साथ कंटीली तार का खर्चा किसानों के लिए बड़ा बोझ बना हुआ है। कई किसान रातभर जाग कर खेतों की चौकीदारी करते हैं। हर साल पशुओं के कारण होने वाले हादसे बढ़ रहे हैं, जिनमें हजारों लोग मौत के मुँह में चले जाते हैं।
सरकार ने इस समस्या के समाधान के लिए अभी तक कोई ठोस नीति ही नहीं बनाई, जिससे यह स्पष्ट है कि सरकारी स्तर पर इसे समस्या ही नहीं माना गया। जिला प्रशासन अपने स्तर पर मामला सुलझाने के थोड़े-बहुत प्रयास तो कर रहा है लेकिन समस्या के स्थायी समाधान के लिए कोई सक्रियता नहीं दिख रही। पंजाब में करोड़ों रुपए का गौ सैस इकट्ठा किया गया है, लेकिन पशुओं की संभाल के लिए कोई रणनीति नहीं बनाई गई। सच तो यह है कि जिन शहरों को सरकार ने स्मार्ट सिटी घोषित किया है, वहां भी पशुओं के झुंड देखे जा सकते हैं। आज-कल परेशान हुए किसान आवारा पशुओं को ट्रालियों में भरकर डीसी कार्यालय के बाहर उतार कर रोष प्रकट कर रहे हैं।
स्थानीय प्रशासन इस मामले का समाधान केवल पशुओं को गौशालाओं में छोड़ने के लिए कहकर खानापूर्ति कर रहा है। दरअसल गौशालाओं का प्रबंध व ढांचा इस तरह का नजर नहीं आ रहा कि वे सभी पशुओं को संभाल सके। वास्तव में यह मामला स्थानीय प्रशासन के स्तर पर समाधान होने वाला नहीं। सरकार को इस संबंधी ठोस नीति व रणनीति बनाने की आवश्यकता है। किसान संगठनों की आवाज जिला प्रशासन तक रह जाती है। आवारा पशुओं के लिए बकायदा संसद/विधान सभा में बिल पारित करने की आवश्यकता है। इस समस्या से पूरा देश जूझ रहा है। केंद्र व राज्य सरकारों को ठोस कदम उठाने होंगे, फिर भी यह मामला किसी एक पक्ष की हिम्मत से समाधान नहीं होगा। सरकार के साथ-साथ पंचायतों व किसान भी सहयोग करें। जब सभी पक्ष एकजुटता से समस्या के प्रति गंभीर होंगे तब समस्या से निजात पाना संभव है।
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