शडियन एक मामूली जमींदार था किंतु वहां का जमींदार उसे अपने बड़े भाई की तरह मानता था। इस बात से सारा कांचीपुरम परिचित था। लोग खुलेआम कई प्रकार से विरोध भी प्रकट करते रहते परंतु जमींदार अपनी बात को समझाने की अपेक्षा हंसते हुए उनको समदृष्टि रखने का उपदेश देते। शडियन भी रात देखता न दिन जमींदार की एक पुकार पर दौड़ता हुआ पहुंच जाता। इतना प्रेम…? इसका रहस्य बना हुआ था। जमींदार उसे अन्ना कह संबोधित करते यानी बड़े भैया और शडियन जमींदार को तंबी कह पुकारता यानी छोटे। समय बीतता गया शडियन अपनी सीमा में रहकर सारे काम करता या करवा देता किंतु कभी जमींदार के आंगन में बैठता नहीं था अन्यथा कांचीपुरम का समाज कितना कहर बरसाता इसका अंदाजा शडियन को कई बार लग चुका था और अच्छी तरह मालूम था। आठ दिनों से घमासान बारिश हो रही थी। ब्रह्मांड हिलाने वाले मेघों का गर्जन धरती को कंपायमान कर रहा था। सारा तमिलनाडु एक भयावने माहौल में डूबा प्राकृतिक प्रकोप को झेल रहा था।
रह-रहकर बादल इस प्रकार गरजते मानो अब फूटे कि फूटे। बच्चे डरे-सहमे व्याकुल हो माताओं की छाती के साथ चिपक गए। बछड़े घबराकर रंभाने लगे। सारे पंछी अपने-अपने घोंसलों में दुबके किसी अनहोनी की आशंका से घबराए शांत थे। तूफानी हवा के दिल दहला देने वाले थपेड़े या मेघों की भयानक गर्जन के बीच कड़कती बिजली के सिवाय और कुछ न था। शहर की बत्ती गुल कर दी गई थी। हाय…तौबा…हाय… तौबा और रुदन था। बंगाल की खाड़ी में डिप्रशेन आ गया था। तूफान सौ कि.मी. की रफ्तार से तमिलनाडु की ओर बढ़ रहा था। सारा शहर पहले से ही पानी में डूबा हुआ था। दोपहर के बाद तूफानी हवा ने तेज हो भयंकर रूप धारण कर लिया था। झुग्गी-झोपडियां दो दिन पहले ही डूब चुकी थीं। लोग किसी न किसी स्कूल के अहाते में शरण ले चुके थे। अगर किसी को पनाह नहीं मिली थी तो वह केवल हरिजनों की बस्ती को। एक तो शहर से काफी दूर थे दूसरा लो-लेन एरिया होने की वजह से पानी बुरी तरह भर चुका था। उनके बच्चे औरतें तथा मवेशियों का बुरा हाल था।
सबके कच्चे-पक्के घर पानी में नष्ट हो चुके थे। हरिजनोंं की बस्ती की ओर कोई क्यों देखता भला…? वहां के निवासियों ने शडियन को जमींदार की याद दिलाई। पर उसने किसी की बात पर ध्यान नहीं दिया। वह खुद इस बात से हैरान था कि अभी तक उनकी ओर से कोई कार्यवाही क्यों नहीं हुई? बस्ती की पेरियाम्मा ने ठिठुरते-कांपते स्वर में कहा- शडियन क्या करे… सरकार की ओर से कोई मदद आई है क्या…? जब पानी बंद हो जाएगा फिर नेता अभिनेता, सुरक्षाकर्मी-समाज सुधारक सब आकर खड़े हो जाएंगे। अभी हम मर रहे हैं हमारे बीमार लोग मौत के मुंह में जा रहे हैं कोई चिंता है किसी को…? कमजात… हमें हरिजन कहते हैं। अरे, हरिजन का जीवन जीकर देखो…।
आड़े वक्त पर ही इन अमीरों का पता चलता है। सब ढकोसले… उसका शरीर कांपने लगा। अरे, पकड़ो…पकड़ो पेरूमल की बीबी जोर से फिसलकर पानी के बहाव की चपेट में आ गई। बचाओ…बचाओ की चीख-पुकार अफरा-तफरी के बीच ऐसी बिजली कड़की कि सबकी बोलती बंद हो गई। कई बच्चे-बच्चियां दहाड़ मारकर रोने लगे। प्रभु को पुकारने लगे हमने ऐसा क्या किया था जो हमें दलित बनाकर कचरे की तरह फैंक दिया। बच्चे सहमे हुए थे। जिस पेड़ के नीचे उन्होंने बसेरा किया था वह भी ऐसा गिरा कि भगदड़ मच गई। चीखें निकल गयीं थीं। उसके नीचे कई दब गए थे। शडियन तथा अन्य दलित दौड़-दौड़कर सबको बचाते रहे। उसे भी बहुत चोटें लगीं थीं पर अपनी परवाह न कर बचाव में लगा रहा। चीख-पुकार के साथ-साथ तूफानी हवा के थपेड़े मानों जोर-जोर के थप्पड़ पड़ रहे हों।
रोने-बिलखने दिल दहला देने वाली आवाजें चारों ओर गूंज रहीं थीं। सब तूफान के सामने बेबस थे। शडियन…शडियन… की आवाजें सुनाई दीं, अपना नाम सुनकर वह उस ओर दौड़ा। वहां जमींदार को मिनी बस के ऊपर पांच-छह सुरक्षाकर्मियों के साथ बहते-बहते आते देखा। तो एकाएक शडियन को काठ मार गया। वह और उसके समस्त साथी अवाक खड़े यह दृश्य देखते रहे। घमासान बारिश में पतवारनुमा बल्लियों की सहायता से मिनी बस को नौका बनाकर लाने वाले और कोई नहीं स्वयं जमींदार थे। उनका अपना बुरा हाल था। पानी का तेज प्रवाह पतवारनुमा बल्लियों को टिकने नहीं दे रहा था। प्रतीत हो रहा था कि कई घंटों से पानी में भीग रहे हों। दलितों ने दौड़कर उनकी नौका बनी मिनी बस को बड़ी कठिनाई से पकड़ा। ऊपर मेघों का गर्जन कंपा रहा था। पानी का बहाव अति तीव्र था। संभलकर नीचे उतरें तो कैसे… बड़ी कठिनाई से उतरे फिर भी पानी छाती तक आ गया था। अन्ना… कहते हुए जमींदार शडियन के गले लग गया। उनकी आंखों से धारदार अश्रु बहने लगे। शडियन बुत बना दुविधात्मक स्थिति में था अभी जिसके बारे में सब क्या कुछ नहीं कह रहे थे वे इस प्रकार उस नाचीज के लिए आएंगे…।
मेघों के गर्जन से दसों दिशाएं कांप उठीं। अन्ना, तुम सब कहां चले गए थे? मैं कब से ढूंढ़ रहा हूं पूरे तीन दिन हो गए मुझे ढूंढ़ते हुए। ऐसी भयानक बारिश में मैं सीधा तुम सबको लेने दो बसें और तीन ट्रक लेकर गया। पर बस्ती पूरी बह चुकी थी। तुम सबको लेकर घर क्यों नहीं आए…? क्या अपने तंबी पर विश्वास नहीं था…? तूफान बढ़ रहा था और काले बादलों का गर्जन दिल दहला देने वाला होता जा रहा था। मैं कितना परेशान था कि मेरे अन्ना पर क्या बीत रही होगी? तुम सबने एक बार भी मेरे बारे में नहीं सोचा कि तुम सबको वहां न देखकर मुझ पर क्या बीतेगी…? जमींदार की बात सुन शडियन का दिल भर गया। प्रेमाश्रु बहे जा रहे थे। एक बोल भी नहीं फूट रहा था। सुरक्षाकर्मी सबको पकड़-पकड़ कर सहारा देते हुए बस में बिठाने लगे थे। पानी में तैरती बस स्थिर हो रही थी। तूफान थमने का नाम नहीं ले रहा था। बड़ी कठिनाइयों का सामना करते हुए नौका बनी मिनी बस घर ले आए।
जमींदार ने अपने गेस्ट हाऊस को खुलवा दिया था। सबको कमरे में चटाइयां-दरियां बिछा दी गई थीं। पन्यार अम्मा यानी जमींदार की धर्मपत्नी ने बड़े प्रेम से अपनी अलमारी से सबके लिए ओढ़ने-पहनने का बंदोबस्त कर दिया था। कई बच्चे अभी भी रोए जा रहे थे। उनको तेज बुखार हो गया था। उनके रोने से एक व्याकुलता का दर्द भरा एहसास जमींदार को होने लगा। उन्होंने अपने डॉक्टर को बुलाया। उस तूफानी रात में डॉक्टर अपनी टीम के साथ कैसे आता। वह तो कई दिनों से घर भी नहीं जा सका था। उसने अपनी कठिनाई बताते हुए इंकार कर दिया।
डॉक्टर आपको तीस-चालीस बेबस जनों की जान की सौगंध आना ही होगा। जमींदार ने बलपूर्वक कहा। आज तक डॉक्टर ने कभी इंकार नहीं किया था। जमींदार के साथ मिलकर समाज को बेहतर बनाने में लगा था किंतु इस तूफान का सामना करना भी सरल न था। उसने समय की मांग की नाजुकता को समझते हुए जाना ही उचित समझा अन्यथा जमींदार सौगंध की बात नहीं करते। अपनी टीम की जान जोखिम में डालकर किस तरह गेस्ट हाउस पहुंचा यह रोंगटे खड़ी कर देने वाली दर्दनाक भयानक व्यथा-कथा है। डॉक्टर ने पाया पेड़ के गिरने से कई लोगों को गंभीर चोंटे आईं। सात लोगों की हड्डियां टूट गईं थीं। उनकी टीम ने प्राथमिक इलाज करना शुरू कर दिया था। यह बात बाढ़ के पानी-सी ही चारों ओर फैल गई कि दलितों की बस्ती का निवास जमींदार का गेस्ट हाउस बना है। अपनी टीम को लेकर डॉक्टर भी वहां पहुंचा। सबको आश्चर्य हो रहा था कि वे सब पहुंचे कैसे… आखिर क्या रहस्य है…? मीडिया को उछालने के लिए अच्छा मजेदार जायकेदार मसाला मिल रहा था।
बारिश उसी तरह घमासान हो रही थी गलियों में कमर तक पानी भरा था। कार तो क्या आदमी से चला नहीं जा रहा था ऐसे हालात में भी तीन रिपोर्टर वहां पहुंच गए। मीडिया को आया देख जमींदार ने आक्रोश में कहा- दलितों की बस्ती डूब रही थी उस समय आप सब कहां थे…? सर, कवरेज लेना मुश्किल हो रहा था। ‘अभी बारिश नहीं है…क्या?’ जमींदार ने पूछा। सुना है आप मिनी बस नौका की तरह चलाकर उन्हें लेने गए आखिर क्या रहस्य है जिसके लिए सरकार से भी ज्यादा पैसा और श्रम करके आप दलितों को बचा रहे हैं…? एक मीडिया रिपोर्टर ने पूछा।‘इंसानियत…’ जमींदार का संक्षिप्त उत्तर था। आप कहना चाहते हैं कि देश में केवल दलितों को बचाना इंसानियत है…और शेष… आपकी नजर में इंसान नहीं…? दूसरे रिपोर्टर ने पूछा। ‘ऐसा तो मैंने नहीं कहा।’ जमींदार ने कहा। हम तो कुछ और ही सुन रहे हैं। रिपोर्टर ने कहा। जमींदार और डॉक्टर समझ गए कि वे क्या कहना चाह रहे हैं। ‘देखिए! न तो मैं कोई नेता हूं जिसे वोट चाहिए और न ही दिखावटी समाज सुधारक। जिसे सुर्खियों में नाम चाहिए और न ही फलर्ट और न ही घूसखोर जमींदार ने कहा। तो फिर आपको क्या पड़ी है…? रिपोर्टर ने पूछा।
‘आप क्या कहना चाहते हैं…’ डॉक्टर रोहित ने पूछा। हम जमींदार के मुंह से सुनना चाहते हैं कि वे अपनी और डॉक्टरों की जान जोखिम में क्यों डाल रहे हैं…? मैं श्रमाधार को जीवन मानता हूं। हमें एक नया समाज बनाना है मेरा मानना है कि हर व्यक्ति अपनी-अपनी शक्ति समाज को समर्पित करे और अपने लिए समाज से ले। जमींदार ने समझाते हुए रौब से कहा। हमें एक नया समाज बनाना है। आपकी यह बात समझ आ गई है पर आपको क्या पड़ी है…? रिपोर्टर ने रहस्यात्मक स्वर में पूछा। उसके प्रश्न पर हैरान होते हुए जमींदार ने कहा- आप इसको तो देखते आए हैं कि अमीर और पढ़े-लिखे लोग शरीर श्रम नहीं करते। यह सामाजिक द्रोह है। इससे बढ़कर दूसरा द्रोह यह है कि जिनसे शरीर श्रम का काम लेते हैं उन्हें हीन भाव से देखते हैं।
जमींदार को बीच में टोकते हुए डॉक्टर ने कहा- उनको न विद्या देते हैं न शिक्षा, न महत्व और न शाबाशी… उस पर ऐसे संकट के समय उनकी मदद करना तो दूर उन पर उंगली उठाई जाती है। डॉक्टर ने रोषपूर्ण स्वर में कहा, जो काम सामाजिक जीवन के लिए अत्यंत जरूरी है उसी की प्रतिष्ठा बढ़ानी चाहिए। हमारा समाज हाथी के दांत दिखलाने को और खाने को दूसरे की तरह है। टीम के अन्य डॉक्टर ने वाक्य में जोड़ते हुए कहा। कोई भी मजदूर झाडू तक बुहारेगा नहीं और ये बेचारे…। समाज के ठेकेदारों ने ऐसा गंदा काम करने के लिए अलग जाति को नियुक्त कर दिया। यह हो गया हमारे समाज का निर्णय। लेकिन इतने से समाज संतुष्ट नहीं हुआ। कष्ट उठाकर अपने स्वास्थ्य को खतरे में डालकर जो आदमी समाज सेवा करता है, उसके प्रति अधिक कृतज्ञता बरतनी जरूरी थी, स्वाभाविक भी था किंतु समाज ने यह तय कर लिया जो पाखाना साफ करते हैं उन्हें अस्पृश्य माना जाए और समाज के बाहर रखा जाए।
उसी से गंदा काम लिया जाए। हम समानता का अभियान चला रहे हैं। चारों वर्णों का काम तय है वे अपना-अपना काम करें पर रहें एक साथ। जाति भेद का सवाल कभी न उठाएं। इस द्रोह से बचने के लिए हमने पहले यह तय किया कि हर किसी को अपने को जिंदा रखने के लिए शारीरिक श्रम करना चाहिए। शरीर का पोषण शरीर श्रम से करना चाहिए। इसी को भगवद्गीता में यज्ञ का नाम दिया गया है। और इसी को ईसा ने ब्रेड-लेबर कहा है। आज बौद्धिक और शारीरिक श्रम अलग-अलग माना जाने लगा है। किंतु हम कहने लगे हैं कि समाज जिसे गंदा काम समझता है उसका महत्व हमारे जीवन में कितना बड़ा है और तथाकथित उच्च जाति के लोगों को चाहिए कि जो काम सार्वजनिक है, अत्यंत महत्व का है और जिसके प्रति समाज ने नफरत की निगाह का चलन चलाया है वही काम हम करें जिससे उस काम और उन लोगों को प्रतिष्ठा मिल सके। पाश्चात्य देशों में सब अपने सारे काम स्वयं करते हैं।
शौचालय साफ करने वाले के कपड़े गंदे रहेंगे ही। यह सारी सामाजिक दुर्दशा दूर एक दिन में तो होगी नहीं अत: सही कारण- समय ढूंढना भी जरूरी है। यह सही समय था जब उनको मदद चाहिए थी। दलितों का सारा दल सब बातें सुनता रहा। तुम इंटरव्यूह लेने इस घमासान बारिश में आए हो पर सहायता के लिए आगे नहीं आए…? और जो मदद करता है उसे शक की निगाह से देखते हो। यही है हमारा भारतीय समाज है… पेरियम्मा ने कटुता से कहा और दहाड़ मारकर रोने लगी। उसी के साथ वे सब भी रोने लगे जिन्हें चोटें लगीं थीं। हमने इनके बाल-बच्चों को पढ़ाया है। मेरी टीम के दस डॉक्टर आए हैं और उन्होंने अपने-अपने कंपाउंडर को जो दलितों के बच्चे हैं खूब प्रशिक्षित किया है। हम जिस मकसद से आए थे वह पूरा हुआ। रिपोर्टर चले गए। दूसरे दिन अखबारों में दलितों के चित्रों के साथ प्रेरणादायक रिपोर्ट छपी और तमाम टी.वी. चैनलों में खबरों के साथ-साथ चारों वर्णों के संबंध में परिचर्चा होती रही। जमींदार तथा उनकी पत्नी बेहद खुश थे कि लोगों में जागरण का सूत्रपात होने लगा है।
तूफानी वर्षा का प्रकोप खत्म होते ही कई कॉलेजों के छात्र-छात्राएं तथा उनके प्रोफेसर मदद के लिए आ गए। एक-एक पीड़ित को देखा गया। दलितों को यह देख बहुत भला लगा। कहराते हुए भी वे मुस्कुरा रहे थे क्योंकि अवश-विवश जनों को प्यार की मलहम वे लोग लगा रहे थे, जो उनको अस्पृश्य समझ उनसे दूर रहते थे। आज वह दूरी खत्म हो रही थी। जो मनुष्य न कर सका वह इस प्रकृति ने कर दिया था। वही हुआ कई मंत्री, समाज सुधारक टीमें आ पहुंची थीं। कुछ दर्द के कारण और कुछ अपनी दयनीय स्थिति के कारण कराहते और मुस्कुराते रहे।
-लेखक: डॉ. मधु धवन
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