भारतीय निर्यात की सुस्त रफ्तार और सरकार के प्रयास

nirmala sitharaman

केंन्द्रीय वाणिज्य मंत्रालय के ताजा आकड़े बताते हैं कि अगस्त 2016 तक देश का निर्यात 6 फीसदी तक कम हुआ है। यह निर्यात क्षेत्र में लम्बे समय से चली आ रही मंदी की स्मृति को ताजा कराने वाले उदाहरण हैं। चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्घि दर 5 फीसदी ही रह गई है, जबकि पिछली तिमाही में यह 5.8 फीसदी और पिछले साल की पहली तिमाही में 8 फीसदी रही। आमतौर पर भारतीय अर्थव्यवस्था घरेलू मांग में कमी की समस्या से जूझ रही है, ऐसे में भारतीय उद्योगपति अपना सामान निर्यात करते हैं और विदेशों में बाजार तलाशते हैं। वैश्विक तौर पर कर्ज की ऊँची लागत, स्किल एवं इनोवेशन की कमी और ज्यादा टैक्स की वजह से भारतीय निर्यात वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा में नही टिक पा रहा है।

भारतीय निर्यात की रफ्तार सुस्त पड़ चुकी है और शुद्ध निर्यात तो लम्बे समय से निगेटिव ग्रोथ में है यानी इसमें गिरावट है। निर्यात जीडीपी के चार प्रमुख घटकों में से एक हैं। इसकी वजह से अर्थव्यवस्था की रफ्तार भी सुस्त हो रही है। इंंजीनियरिंग वस्तुओं के निर्यात में गिरावट काफी परेशान करने वाला हैं, क्योंकि गत वर्ष इसमें सुधार नजर आया था। मोदी सरकार के प्रथम कार्यकाल में 2014 से 2019 के दौरान कुल औसत निर्यात वृद्घि दर 4 फीसदी रहा। हम लोग 2014-15 से पहले की बात करें तो निर्यात बेहतर था, वर्ष 2013-14 में निर्यात की वार्षिक वृद्धि दर 17% थी, जो कि 2014-15 और 2015-16 में घटकर क्रमश: -0.5% और -9% हो गई। इसके अलावा भारत की निर्यात प्रतिस्पर्द्धात्मकता में 50 फीसदी से कम बढ़ोतरी देखने को मिली है। निर्यात प्रतिस्पर्द्धात्मकता वर्ष 2012 के तुलना में 2017 में शीर्ष भागीदार देशोंं में बाजार हिस्से के अनुपात के तौर पर परखी जाती है।

आर्थिक वृद्धि एवं निर्यात वृद्धि के कमी के कई कारण महत्वपूर्ण रहे। सरकार की दलील है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था सुस्त पड़ती जा रही है और चीन अमेरिका ट्रेड वार के चलते अनिश्चितता का भी माहौल है। हालांकि यह दलील काफी हद तक सतही है। मसलन, ट्रेड वार में उलझे चीन की जून तिमाही में वृद्धि दर 6.2% रही। यह कहना मुश्किल है कि चीन की तुलना में भारत पर व्यापार युद्ध का ज्यादा असर पड़ रहा है। आईएमएफ के मुताबिक वर्ष 2018 में ही वियतनाम ने 10 वर्षों की उच्च वृद्धि दर 7.1% हासिल की। बांंग्लादेश भी गत वित्त वर्ष में 8 फीसदी की दर से आगे बढ़ने के बाद इस समय 7.5 फीसदी वृद्धि की उम्मीद कर रहा है। स्पष्ट है कि वैश्विक वितीय परिदृश्य अनुकूल है, बस एक विशिष्ट रणनीति की आवश्यकता है।

पिछलें दो दशकों में वैश्विक कारोबार मुख्य रुप से जीवीसी अर्थात ग्लोबल वैल्यू चेन द्वारा ही पोषित होता रहा है। जीवीसी को अब निर्यात वृद्धि का मुख्य इंजन भी कहा जाता है। जीवीसी के लिए उत्पादों को कई बार सीमा के आर पार जाना पड़ता है। जीवीसी मॉडल के तहत किसी उत्पाद के जीवनचक्र को कई कार्यों में विभाजित किया जाता है। इसमें भाग लेने वाले देश ‘जस्ट इन टाइम’ परिस्थितियों में क्रमबद्ध रुप से प्रत्येक कार्य को पूरा करते हैं। उत्पादन प्रक्रिया के अन्तर्निहित विखण्डन ने अन्तर्राष्ट्रीय विशेषज्ञता का दायरा बढ़ा दिया है। उत्पादों के बीच तक सीमित न रहकर अब अलग -अलग उत्पादों के उत्पादन के विभिन्न चरणों में विशेषज्ञता हो चुकी है।

नतीजतन, विकासशील देशों के लिए जीवीसी के साथ सामंजस्य बिठाने के लिए तुलनात्मक सुविधा के नए स्रोत सामने आए हैं। जीवीसी में भागीदारी का ताल्लुक निर्यात विभिन्नता और बढ़ी हुई उत्पादकता से है। जीवीसी को समझने के लिए आईफोन एक अच्छा उदाहरण है। अमेरिका द्वारा आईफोन का डिजाइन और प्रोटोटाइप तैयार किया जाता है, जबकि ताइवान और दक्षिण कोरिया द्वारा इसमें प्रयुक्त होने वाले एकीकृत सर्किट एवं प्रोसेसर जैसे महत्वपूर्ण इनपुट्स को तैयार किया जाता है। इसके पश्चात चीन में अन्तिम रुप प्रदान करके दुनियाभर में इसका विपणन किया जाता हैं।

जीवीसी के साथ भारत का एकीकरण जी-20 देशों में सबसे कम हैं। आसियान देशों की तुलना में भारत का जीवीसी एकीकरण न केवल बहुत कम है, बल्कि इसके बैकवर्ड एवं फोरवर्ड दोनों ही गतिविधियों में गिरावट आई है। इसकी तुलना में आसियान देशों का बैकवर्ड जीवीसी सम्पर्क भले ही कम हुआ है, लेकिन पहले काफी ऊँँचे स्तर पर था और उनका फॉरवर्ड जीवीसी सम्पर्क स्थिर बना हुआ है। वियतनाम तो एकदम अलग अनुभव दिखाता है और उसका जीवीसी एकीकरण काफी उच्च स्तर पर है और इस अवधि में उसका बैकवर्ड एकीकरण स्थिर दर से बढ़ा है। भारत में हुए मूल्य वर्धन का पूर्व एवं दक्षिण पूर्व एशियाई निर्यात के रास्ते वैश्विक कारोबार में अंशदान महज एक टुकड़ा है। वर्ष 2016 में भारत का मूल्य वर्धन अंशदान वियतनाम के अंशदान का महज चौथा हिस्सा था और आसियान समूह के अंशदान का तो तीन फीसदी ही था। इतनी कम भागीदारी होने का मतलब है कि भारत के निर्यात की मांग आसियान देशों से तेजी नहीं पकड़ रही है।

भारत के शीर्ष निर्यात क्षेत्रों में शामिल मोटर वाहन, कपड़ा एवं परिधान तथा रत्न एवं आभूषण मूल्य श्रृंखला एकीकरण के उच्चतम स्तर वाले क्षेत्र भी हैं। लेकिन पिछले वर्षों में इन तीनों क्षेत्रों में भी भारत का जीवीसी एकीकरण गिरा है। कपड़ा एवं परिधान निर्यात में आयात की मात्रा वर्ष 2005 में 15.3 फीसदी थी, लेकिन2016 में यह घटकर 13.4 फीसदी पर आ गई। मोटर वाहन के निर्यात में भी आयात की हिस्सेदारी 25.3 फीसदी से घटकर 23.5 फीसदी पर आ गई। इसी के साथ वैश्विक निर्यात में भारत की हिस्सेदारी कपड़ा एवं परिधान क्षेत्र में खासी गिरी है और वाहन क्षेत्र में नगण्य स्तर पर बनी हुई हैं। ज्ञात हो विश्व व्यापार का लगभग 70% हिस्सा जीवीसी के अन्तर्गत ही अपना आकार ग्रहण करता हैं। ऐसे में भारत के लिए जीवीसी एकीकरण पर बल प्रदान करना आवश्यक हैं।

भारत के लिए श्रमबहुल उत्पादों का निर्यात आवश्यक है। विकासशील देशों में छोटे एवं मझोले उद्यमों के लिए जीवीसी से जुड़ना आसान नहीं है। ऐसे में भारतीय निर्यात के लिए रिजनल वैल्यू चेन भी काफी महत्वपूर्ण है। आरवीसी के लिए उतने सख्त मानदण्डों की आवश्यकता नहीं है, जैसा कि जीवीसी में देखने को मिलता है। कारण यह है कि सम्बन्धित सामान स्थानीय बाजार की मांग की बारीकियों और खपत के पैटर्न को पूरा करते हैं, जो समूचे क्षेत्र में एक समान हो। आरवीसी विकास स्तम्भ हो सकते हैं।

वर्तमान में भारत के लिए निर्यात वृद्धि काफी आवश्यक है। इसके लिए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इस माह कई प्रमुख घोषणाएँ की हैं। निर्यात को प्रोत्साहित करने के लिए 50 हजार करोड़ के पैकेज की घोषणा की गई है। सवाल यह है कि वित्त मंत्री की हाल की घोषणाओं से देश का निर्यात लम्बी अवधि में प्रतिस्पर्द्धी बन सकेगा । हमारे यहाँ लाल फीताशाही और ऋण उपलब्धता जैसी ढ़ांंचागत समस्याएँ भी हैं, जिन्हें हल करने की जरुरत है। हालांकि वित्त मंत्री ने इस दिशा में भी पहल की है। असली चुनौती निर्यात क्षेत्र में वैश्विक मानकों को स्वीकार करने में है। वित्त मंत्री ने कहा है कि निर्यात मंजूरी के काम अभी मैन्यूअल किए जाते हैं, उनको जल्द ही डिजिटल किया जाए। इसके लिए दिसंबर की समय सीमा तय की गई है। इस प्रक्रिया में तकनीक का प्रयोग हमारे बंदरगाहों को भी वैश्विक मापदंडों की ओर अग्रसारित करेगा। वैश्विक बंदरगाहों पर जहाज आधे दिन में हट जाते हैं और ट्रक आधे घंटे में। अगर हम इसे प्राप्त कर सकें तो देश की निर्यात प्रतिस्पद्धा में बड़ा सुधार नजर आएगा।

लेखक : राहुल लाल

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