राष्ट्रमंडलीय प्रधानमंत्रियों के सम्मेलन में भाग लेने के लिए प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को लंदन जाना था। उनके पास कोट दो ही थे। उनमें से एक में काफी बड़ा छेद हो गया था। शस्त्री जी के निजी सचिव वेंकटरमण ने उनसे नया कोट सिला लेने का आग्रह किया, पर शास्त्री जी ने इनकार कर दिया। फिर भी वेेंकटरमण कपड़ा खरीद ही लाए और दर्जी को बुला लिया। जब कोट का नाप लिया जाने लगा तो शास्त्री जी हँसे और बोले, ‘‘इस समय तो इसी पुराने कोट को पलटवा लो। ठीक नहीं जमा तो दूसरा सिलवा लूँगा।’’ जब कोट दर्जी के यहाँ से आया तो कोट की मरम्मत का पता ही नहीं चला। तब शास्त्री जी ने कहा,‘‘जब कोट की मरम्मत का हमें पता नहीं चल रहा है, तो सम्मेलन में भाग लेने वाले भला क्या पहचानेंगे।’’ और वह उसी कोट को पहनकर लंदन ‘राष्ट्रमंडलीय सम्मेलन’ में भाग लेने के लिए गए। ऐसी थी शास्त्री जी की सादगी। यह वृत्ति राष्ट्र को अपना एक परिवार मानने व स्वयं को उसका एक अभिन्न अंग मानने के कारण विकसित होती है। क्षुद्र व्यक्ति इसे कृपणता समझ सकते हैं। पर सत्य यही है कि इस सादगी में अपव्यय की रोकथाम तोे ही महानता के बीज छिपे पड़े हैं।
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