विधानसभा चुनावों में हार के बाद कुछ कांग्रेसी नेताओं ने पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू और पूर्व मुख्यमंत्री चरनजीत चन्नी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। मोहाली से चुनाव हारने वाले कांग्रेसी उम्मीदवार बलबीर सिद्धू ने खुलकर उक्त दोनों नेताओं को हार के लिए जिम्मेवार ठहराया है। वास्तव में बलबीर सिद्धू को चुनावों से पहले पार्टी हाईकमान के समक्ष अपनी बात रखनी चाहिए थी या सार्वजनिक तौर पर उक्त दोनों नेताओं को ऐसा करन से रोकना चाहिए था। दरअसल चरनजीत सिंह चन्नी अचानक मुख्यमंत्री बनने के बाद हद से ज्यादा उत्साहित थे। वे अपनी हर बात, बयान और गतिविधि को सामाजिक रूप से स्वीकार होने के भ्रम में थे।
यहां तक कि उन्होंने समाज में धर्म के नाम पर वोट बटोरने के भी घटिया प्रयास किए। उनके बयानों को नजरअंदाज कर पंजाब के लोगों उन्हें मजाकिया तौर पर लेने लगे। उनके बयानों और व्यवहार में मुख्यमंत्री की गरिमा गायब दिखी। वे यह भूल गए कि किसी भी नेता की हर बात अच्छी नहीं होती। पद की गरिमा को ध्यान में रखते हुए उन्हें भाईचारे, सद्भावना और विकास की बात करनी चाहिए थी। यही हाल नवजोत सिंह सिद्धू का रहा। सिद्धू के मुँह में भी जो आता गया वे बोलते रहे। हद तो तब हुई जब सिद्धू ने अपनी ही पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को भी नहीं बख्शा। दोनों नेताओं के अलग-अलग रास्तों पर चलने से चुनावों में कांग्रेस को भारी नुक्सान हुआ।
वरिष्ठ नेता की जिम्मेदारी पार्टी व समाज को एकसाथ लेकर चलने की होती है लेकिन जब कोई समाज में नफरत पैदा करने और कानून का दुरुपयोग करे और जुबान का दोगला हो जाए तब ऐसे नेता पार्टी के लिए नुक्सान का कारण बनते हैं। अनुशासन में रहने वाले नेता ही पार्टी की भलाई कर सकता है। कोई भी मुख्यमंत्री या नेता पार्टी का ही नहीं बल्कि पूरे राज्य का मुख्यमंत्री होता है। वह किसी एक वर्ग तक सीमित नहीं होता। फिर कांग्रेस तो 100 साल से पुरानी पार्टी है, जिसकी विचारधारा और उपलब्धियों का अपना इतिहास रहा है। पार्टी के संविधान और मर्यादा को तोड़ने के बावजूद सिद्धू-चन्नी जैसे नेताओं के खिलाफ कोई कार्यवाही न होना पुराने कांग्रेसियों को हजम नहीं हो रहा। पार्टी हाईकमान के लिए दोनों नेताओं के खिलाफ उठ रही आवाज को दरकिनार करना कठिन होगा, क्योंकि बात केवल जीत-हार की नहीं, पार्टी के मान-सम्मान और सिद्धांतों की भी है।
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