श्रीकृष्ण जी नित्यों के नित्य और जगत के सूत्रधार हैं। शास्त्रों में उन्हें साक्षात् ईश्वर कहा गया है। कुरुक्षेत्र में उन्होंने मोहग्रस्त अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया। कर्म का वह महामंत्र प्रदान किया, जो मानव जाति के लिए पथ-प्रदर्शक है। गीता में नश्वर भौतिक शरीर और नित्य आत्मा के मूलभूत के अंतर को समझाया है। कहा है कि आत्मा अजर और अमर है।
जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को छोड़कर नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, उसी प्रकार आत्मा जीर्ण शरीर को त्यागकर नए शरीर में प्रवेश करती है। अत: मनुष्य को फल की चिंता किए बिना कर्तव्य का पालन करना चाहिए। श्रीकृष्ण जी ने निराशा के भंवर में फंसे संसार को सफलता और असफलता के प्रति समान भाव रखकर कार्य करने की प्रेरणा दी है।
श्रीकृष्ण जी के उपदेश गीता के अमृत वचन हैं। गीता के उपदेश से ही अर्जुन का संकल्प जाग्रत हुआ और कुरुक्षेत्र में खड़े बंधु-बांधवों से मोह दूर हुआ। तदोपरांत ही वे अधर्मी और दुर्बल हृदय वाले कौरवों को पराजित करने में सफल हुए। कौरवों की हार महज पांडवों की विजय भर नहीं, बल्कि धर्म की अधर्म पर, न्याय की अन्याय पर और सत्य की असत्य पर जीत है। श्रीकृष्ण जी ने गीता में धर्म-अधर्म, पाप-पुन्य और न्याय-अन्याय को सुस्पष्ट किया है। उन्होंने धृतराष्ट्र पुत्रों को अधर्मी, पापी और अन्यायी तथा पांडु पुत्रों को पुण्यात्मा कहा है।
विश्व के महानतम वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने भी कहा है कि श्रीकृष्ण जी के उपदेश अद्वितीय है। उसे पढ़कर मुझे ज्ञान हुआ कि इस दुनिया का निर्माण कैसे हुआ। महापुरुष महात्मा गांधी ने कहा है कि जब कभी मुझे परेशानी घेरती है, मैं गीता के पन्नों को पलटता हूं।
महान दार्शनिक श्री अरविंदों ने कहा कि भगवद्गीता एक धर्मग्रंथ व एक किताब न होकर एक जीवन शैली है, जो हर उम्र को अलग संदेश और हर सभ्यता को अलग अर्थ समझाती है। श्रीकृष्ण जी द्वारा अर्जुन को दिया गया उपदेश मानव इतिहास की सबसे महान सामाजिक, धार्मिक, दार्शनिक और राजनीतिक वार्ता है। संसार की समस्त शुभता इसी में विद्यमान है। श्रीकृष्ण जी का उपदेश जगत कल्याण का सात्विक मार्ग है।
महाभारत से स्पष्ट है कि श्रीकृष्ण ने अर्जुन का सारथि बनकर न्याय और सत्य का पक्ष लिया। अन्याय का प्रतिकार किया। श्रीकृष्ण का संपूर्ण जीवन अत्याचार और अहंकार के खिलाफ एक मानवीय और दैवीय संघर्ष है।
बाल्यावस्था से ही श्रीकृष्ण अलौकिक थे। उनकी अलौकिकता में ही जगतकल्याण की भावना निहित है। कभी वह अपनी बांसुरी के मधुर स्वर से सभी को आत्मिक सुख प्रदान करते दिखे, तो कभी कंस के अत्याचारों से गोकुलवासियों की रक्षा करते दिखे। कभी वह गोवर्धन पर्वत को उंगली पर उठाकर इंद्र के दर्प को चकनाचूर करते दिखे, तो कभी मित्र सुदामा के आगे संपूर्ण सत्ता वैभव को समर्पित करते दिखे।
श्रीकृष्ण ने गीता में विष देने वाला, घर में अग्नि लगाने वाला, घातक हथियार से आक्रमण करने वाला, धन लूटने वाला, दूसरों की भूमि हड़पने वाला और पराई स्त्री का अपहरण करने वाले जैसे राजाओं को अधम और आतातायी कहा है। धृतराष्ट्र के पुत्र ऐसे ही थे। सत्ता में बने रहने के लिए वे सदैव पांडु पुत्रों के विरुद्घ षड़यंत्र रचा करते थे। अनेकों बार उनकी हत्या के प्रयत्न किए।
श्रीकृष्ण ने ऐसे पापात्माओं और नराधमों को वध के योग्य कहा है। साथ ही समाज को प्रजावत्सल शासक चुनने का संदेश भी दिया है। अहंकारी, आतातायी, भोगी और संपत्ति संचय में लीन रहने वाले आसुरी प्रवत्ति के शाासकों को राष्ट्र के लिए अशुभ और आघातकारी माना है। कहा है कि ऐसे शासक प्रजावत्सल नहीं सिर्फ प्रजाहंता होते हैं। युद्घ और विनाश के मुहाने पर खड़ा आधुनिक संसार श्रीकृष्ण के उपदेशों पर अमल करके ही समाज और राष्ट्र की अक्षुण्ण्ता को बनाए रख सकता है।
-अरविंद जयतिलक
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