समाज विज्ञानियोें के लिए गंभीर चुनौती बनती डिप्रेशन

Severe Challenging Depression

अंतरराष्टÑीय संस्था सिग्मा की हालिया रिपोर्ट बेहद चैंकाने के साथ ही चेताने वाली भी है कि कार्य स्थल के माहौल के चलते लोग तेजी से डिप्रेशन का शिकार हो रहे हैं। सिग्मा 360 डिग्री वेल-बीइंग सर्वेक्षण फ्यूचर एशयोर्ड द्वारा पिछले दिनों जारी रिपोर्ट में बताया है कि कार्य स्थल के तनाव और जीवन शैली में आते बदलावों के चलते 89 फीसदी लोग डिप्रेशन का शिकार हो रहे हैं। हांलाकि संतोष इस बात पर किया जा सकता है कि डिप्रेशन का यह वैश्विक औसत 86 फीसदी से ही कुछ अधिक है। पर तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि हमारे देश में डिप्रेशन के नियमित इलाज का माहौल अभी नहीं बन पाया है। इसका एक प्रमुख कारण डिप्रेशन के विशेषज्ञ डाक्टरों की कमी होना है वहीं लोगों में अवेयरनेस नहीं होने के कारण भी इलाज नहीं करा पाते हैं।

दरअसल उदारीकरण के दौर और शहरीकरण की होड़ के चलते देश में तेजी से बदलाव आए हैं। देखा जाए तो अब ऐसा समय आ गया है जब संबंध नाम की कोई चीज रही ही नहीं है। एक ही मल्टी स्टोरी कॉम्पलेक्स में रहने वाले एक दूसरे को नहीं जानते, पड़ोस में क्या हो रहा है किसी को कोई मतलब ही नहीं। इसके साथ ही सबसे नकारात्मक बात यह कि प्रतिस्पर्धा की अंधी होड़ में सबकुछ पिछे छुटता जा रहा है। गांव की चौपाल या शहर का चैराहा अब चौराहा नहीं रहा। कुछ सुकून के समय काटने वाली और सूचना का स्रोत पान की दुकान अब गुटके की दुकान में बदल चुकी है। घर यहां तक कि मौहल्ले का फोन अब मोबाइल में बदलकर मेरा मोबाइल हो गया है।

मनोरंजन का केन्द्र चैराहे पर होने वाली नौटंकी अब विलुप्त हो गई है। एक ही कमरे में रहने वाले सोशियल मीडिया के चलते एक दूसरे से अंजान होते जा रहे हैं,ऐसे में एक दूसरे के दु:ख दर्द को समझने, मिलकर संवेदनाएं व्यक्त करने, दशा और दिशा देने जैसे हालातों को सोचना ही बेमानी हो गया है।

दरअसल यह एक दिशा में बढ़ते विकास की अंधी दौड़ और अधिक से अधिक व जल्दी से जल्दी पाने की हौड़ का परिणाम है। शिक्षा के विस्तार के साथ रोजगार के अवसर बढ़े हैं। पर इसके साथ ही रोजगार के कारण परिवार से दूर रहने, टारजेट आधारित या यों कहें कि परिणामपरक रोजगार के अवसर होने, पति-पत्नी दोनों के कामकाजी होने का असर व्यक्ति और उसकी मानसिकता पर पड़ रहा है। कंपनियों द्वारा रिलेक्शेसन के लिए अवकाश तो दिया जाता है पर उस अवकाश का उपयोग भी कहीं घूमने जाने में बितने लगा है और परिवार कहीं दूर चले जाता है। नाना-नानी या दादा-दादी के पास बच्चों की छुट्टियां बिताना, बातों बातों में ज्ञानवर्द्धक, संस्कार बनाने वाली किस्सा गोई कहीं खो गइ है। रिश्ते नाते कहीं खोते जा रहे हैं। एक दूसरे की मनोदशा और विचारों को साझा ही नहीं किया जा रहा ऐसे में डिप्रेशन का शिकार होना आम होता जा रहा है।

अत्यधिक काम का बोझ, काम के बोझ के कारण तनाव, तनाव के कारण नींद नहीं आना, संवादहीनता की स्थितियां आदि डिप्रेशन का कारण होने के बावजूद रिलेक्श होने के जो माध्यम विकसित किए गए हैं वे स्वयं तनाव का कारण बनते जा रहे हैं। एक बात साफ है कि डिप्रेशन की यह समस्या आधुनिकता की देन है। यह भी स्पष्ट है कि डिप्रेशन की समस्या केवल ओर केवल हमारे देश की नहीं हैं। बल्कि यों कहा जा सकता है कि आज डिप्रेशन की समस्या वैश्विक होती जा रही है। सहज संवाद के माध्यम मोबाइल के फीचर्स एडिक्ट बनाते जा रहे हैं। खेलों की नई खोज वीडियो गेम्स स्वयं तनाव का कारण है। हालिया रिपोर्ट में भले ही यह कहा जा रहा हो कि कार्यक्षेत्र के हालातों में मामूली बदलाव से हालात सुधर सकते हैं पर ऐसा लगता नहीं है। ऐसे में कहीं ना कहीं समाज विज्ञानियों को गंभीर चिंतन करना होगा क्योंकि मेडिकल सांइस दवाएं खोज भी लेगी तो उससे समाज कुछ हासिल करने वाला नहीं है। जब सामाजिकता ही नहीं रहेगी तो तनाव या तनावविहीन स्थिति का कोई मतलब नहीं रहेगा। यह वास्तव में गंभीर चिंतन मनन और मंथन का विषय हो गया है। आज हालात यह होते जा रहे हैं कि आमने सामने बात करने की किसी को फुरसत ही नहीं हैं, संवाद कही खोता जा रहा है। ऐसे में समाज विज्ञानियों के सामने नई व बड़ी चुनौती उभरी है जिसका समय रहते निदान खोजना ही होगा।

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