बाल बजट पेश हो, यह मांग बाल अधिकार, बाल संरक्षण कार्यकर्ता लंबे वक्त से करते आए हैं। कोविड-19 के बाद से यह मांग और तेज हुई है। कोविड महामारी ने देश के असंख्यक नौनिहालों को विविध तरीकों से प्रभावित किया है। लाखों की तादाद में तो बच्चे अनाथ हो गए, शिक्षा बीच से छूट गई, तय समय पर टीके भी नहीं लग सके। इसके अलावा बच्चे शारीरिक, भावनात्मक व संज्ञानात्मक रूप से भी प्रभावित हुए थे। कोविड ने उन्हें ना सिर्फ पारिवारिक संकटों में घेरा, बल्कि शिक्षा, पोषण, शारीरिक विकास, बाल अधिकारों से भी वंचित किया। इन सबसे उभरने के लिए उनको बड़े बजट की आवश्यकता है। महिला एवं बाल विकास के तौर पर साझे बजट से काम नहीं चलेगा।
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एकदम अलहदा बजट रखना होगा बच्चों के लिए, तभी उनके अधिकारों, पोषण और शिक्षा के क्षेत्र में गति आ पाएगी। हुकूमतों को अच्छे से पता है। बाल समस्याओं को बुलंद करने वालों की संख्या बहुत सीमित रहती है। एकाएक जनमानस का ध्यान इस ओर नहीं। इसलिए नहीं जाता है क्योंकि ज्यादातर बच्चों की देखरेख उनके अभिभावक कर लेते हैं। पर, उनका क्या, जिनका कोई नहीं होता, हमारे सहारे होते हैं, सरकारी योजनाओं के बल पर ही टिका होता है उनका बचपन।
केंद्र सरकार को खुद से संज्ञान लेना होगा। क्योंकि नौनिहालों से जुड़ी परेशानियां किसी एक राज्य में नहीं, बल्कि समूचे हिंदुस्तान में हैं। अव्वल, तो उनका स्वास्थ्य और पोषण? यह दो वाजिब जरूरतें ऐसी हैं जो बच्चों की शुरुआती आश्यकताएं होती हैं और यह तब तक महसूस होती हैं, जब तक बच्चा बाल्काय को पार कर किशोरावस्था में प्रवेश नहीं कर जाता। केंद्रीय बजट में इस बार महिला और बाल विकास के लिए 25,448 करोड़ रुपए का बजट आवंटन किया है। जो पिछले वर्ष के मुकाबले इस बार 267 करोड़ रुपए ज्यादा है। लेकिन फिर भी यह ना-काफी है।
उम्मीद थी आम बजट 2023-24 में बाल बजट को अलग रूप दिया जाएगा, लेकिन वैसा हुआ नहीं? बजट तो ठीक ठाक है पिछले वर्ष के मुकाबले बढ़ा भी है। पर, महिला और बच्चों का बजट साझा है, जिसे अलग करने की जरूरत है। महिलाओं और बच्चों की समस्याएं आपस में मेल नहीं खाती, दोनों की अलग-अलग होती हैं। इसलिए मंत्रालय भी अलग हो और बजट भी? भारत में बच्चों की स्थिति और उनसे संबंधित मुद्दों को जागरूक करने की दरकार है। इस दिशा में केंद्र व राज्य सरकारों को गंभीरता से कदम उठाने होंगे।
केंद्र सरकार बाल कल्याण की दिशा में संजीदा है, इसमें कोई शक नहीं। कोविड महामारी के बाद अनाथ बच्चों के लिए अनगिनत कल्याकारी योजनाएं शुरू कीं, उनका लाभ बच्चों को मिल भी रहा है। बड़ी रकम सरकार ने आवंटित की है। यह तब, जब बजट भी नहीं था। बीच में राज्य सरकारों को दिया, लेकिन कुछ सरकारों ने उस बजट को दूसरे कामों में इस्तेमाल कर डाला। पश्चिम बंगाल और राजस्थान से ऐसी खबरें आई हैं।
पिछले वर्ष के बजट की तुलना अगर मौजूदा बजट से करें, तो कुछ तस्वीरें ऐसी सामने निकलकर आती हैं, जिसे देखकर दुख होता है। बीते दो बजट, 2021-22 में 85,712.56 करोड़ और 2022-23 में 92,736.5 करोड़ रुपए आवंटन हुए थे। यह कोरोना के दरम्यान थे, तब दोनों बजट कम पड़ गए थे, केंद्र सरकार को बीच में और बढ़ाना पड़ा था। पिछली बार बजट में पूरे हिंदुस्तान में करीब 740 एकलव्य मॉडल स्कूलों में 38 हजार अध्यापकों और सहायक स्टाफ की नियुक्ति की जानी थी, जिनके जिम्मे बच्चों को मॉडर्न शिक्षा देना था। पर, अफसोस वैसा हो ना सका? योजना जिस गति से आगे बढ़नी थी, बढ़ी नहीं? उसका मुख्य: कारण रहा मॉनिटरिंग अच्छे से ना होना।
साथ ही कुछ राज्य सरकारों ने भयंकर उदासीनता भी दिखाई। आदिवासी राज्यों जैसे झारखंड, उड़ीसा, राज्यस्थान, छत्तीसगढ़ व अन्य सुदृढ़ क्षेत्रों में इस योजना को तेजी देना थी, वो भी ना हो सका? ऐसा ना होना सरासर बच्चों के हक को कुचलना माना गया। यह ऐसे स्कूल थे जिनमें करीब साढ़े तीन लाख आदिवासी बच्चे चिह्नित किए गए थे, ताकि उनकी पढ़ाई आधुनिक तरीके से हो सके। इस योजना के लिए इस बार भी बजट दिया है। देखते हैं, आगे क्या होता है। क्या फिर कागजों में ही बच्चों को पढ़ाया जाएगा।
सबसे बड़ी कमी यही है कि बच्चों के अधिकारों के लिए लोग आवाज नहीं उठाते, दूसरे मुद्दों पर उठाते हैं। बच्चों के विकास और कल्याण का जिम्मा महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के सिर होता है। उन पर डबल जिम्मेदारी होती है। महिलाओं की ही समस्याएं इतनी होती हैं जिनमें मंत्री-अधिकारी अधिकांश व्यस्त रहते हैं, इसलिए बाल विकास पर उतना ध्यान नहीं दे पाते, जितना देना चाहिए। दरअसल, इसमें उनका कोई दोष नहीं, अपने से जितना बन पड़ता है, वो करते हैं।
नौनिहालों के लिए अलग बाल बजट की मांग इसलिए हो रही है, ताकि उनके हिस्से के बजट से उनके लिए बहुत कुछ किया जा सके, जैसे नेशनल डिजिटल लाइब्रेरियां बनाई जाएं जिनमें विभिन्न भाषाओं और क्षेत्रों की मनपसंद व बेहतरीन किताबें हों। यह काम पंचायत और ग्राम वार्ड स्तर पर भी किया जाए। ग्राम प्रधानों को इसके लिए प्रोत्साहित किया जाए। इसके लिए बड़ी टीम और बड़े बजट की आवश्यकता पड़ेगी। गांव-देहातों में जब स्मार्ट क्लासरूम, प्रीसिसन फार्मिंग, इंटेलीजेंट ट्रांसपोर्ट सिस्टम को बढ़ावा दिया जाएगा, तो उनमें शिक्षा की लौ भी जगेगी। छोटा-मोटा काम करने में मस्त बच्चे भी स्कूलों की ओर भागेंगे।
पिछले वर्ष केंद्र सरकार ने स्पेशल सेंट्रल अडॉप्शन रिसोर्स, नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन आॅफ चाइल्ड राइट्स और नेशनल कमीशन फॉर वूमन जैसे स्वायत निकायों को 168 करोड़ रुपए आवंटित किए गए थे, उनका क्या हुआ, कोई अतापता नहीं? कोई हुकूमत से यह पूछे कि पिछले बजट यानी 2022-23 में आवंटित 25,172 करोड़ रुपए में कितना पैसा बाल कल्याण में खर्च हुआ तो उसका शायद ही जवाब मिल पाए। आज नहीं तो कल, केंद्र सरकार व राज्य सरकारें बाल विकास के लिए अलग तंत्र स्थापित करने पर विवश होंगी। मंत्री भी अलग होगा, मंत्रालय भी और बजट भी? ऐसा जब होगा तभी बाल समस्याओं में गिरावट आएगी, कोई अनाथ नहीं कहलाएगा, बच्चे भीख नहीं मांगेंगे, चाइल्ड क्राइम पर नियंत्रण होगा। साथ ही बाल विवाह जैसे कलंक में भी कमी आएगी।
सबसे बड़ी कमी यही है कि बच्चों के अधिकारों के लिए लोग आवाज नहीं उठाते, दूसरे मुद्दों पर उठाते हैं। बच्चों के विकास और कल्याण का जिम्मा महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के सिर होता है। उन पर डबल-डबल जिम्मेदारी होती है। महिलाओं की ही समस्या इतनी होती है जिसमें मंत्री-अधिकारी अधिकांश व्यस्त रहते हैं, इसलिए बाल विकास पर उतना ध्यान नहीं दे पाते, जितना देना चाहिए। दरअसल, इसमें उनका कोई दोष नहीं, अपने से जितना बन पड़ता है, वो करते हैं। (यह लेखक के निजी विचार हैं) डॉ. रमेश ठाकुर वरिष्ठ लेखक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार
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