केंद्र सरकार ने रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर भारत का नया नारा बुलंद किया है। इसके लिए रक्षा मंत्रालय ने 101 वस्तुओं के आयात पर प्रतिबंध लगाया है। अब भारत घरेलू रक्षा उद्योग को चार लाख करोड़ का आर्डर देगा। नि:संदेह भारत के लिए यह बेहद्द आवश्यक है। भले ही यह कठिन कार्य है लेकिन यदि देश के आत्माभिमान और आवश्यकताओं को देखा जाए तब यह काम करना जरूरी है और यह नामुमकिन भी नहीं है। आम भारतीय ही जब यह सुनता है कि फ्रांस से 36 राफेल खरीदने के लिए 59000 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं तो यह सवाल उठता है कि आखिर इतनी पूंजी बाहर भेजने की बजाय देश में ही यह सामान क्यों तैयार नहीं होता।
यदि यही काम देश की सरकारी और निजी कंपनियों को मिले तब यहां रोजगार की संभावनाएं भी बढ़ेंगी, जहां तक रक्षा संबंधी खरीद का सवाल है भारत दुनिया का तीसरा देश है जो रक्षा साजो-सामान पर सबसे अधिक खर्च करता है। एक रिपोर्ट के अनुसार 2019 में भारत ने रक्षा क्षेत्र पर 71 बिलियन डालर खर्च किया है। हमारे से आगे केवल अमेरिका और चीन ही हैं। यदि हम खुद ही अपनी आवश्यकता के हथियार बना लें तब बचा हुआ पैसा विकास कार्यों पर खर्च किया जा सकता है। इन परिस्थितियों में भारत को रक्षा उत्पाद भी उसी तरह बनाने होंगे जैसे कृषि प्रधान देश के रूप में कृषि यंत्रों की पूर्ति ज्यादा से ज्यादा देश में ही हो रही है। जहां तक तकनीक का संबंध है भारत विकसित देशों के नजदीक पहुंच गया है। विशेष रूप से अंतरिक्ष मामले में भारत दुनिया के सर्वोच्च देशों की शुमार है।
इसरो के वेज्ञानियों ने चन्द्रयान और मंगल मिशन फतेह कर लिया है। हम कर्मशियल सैटेलाइट भी भेज चुके हैं। अब तक 40 देशों के 200 से अधिक सैटेलाइट भारत ने भेजे हैं। भारत को बाहर के देशों के सैटेलाइट भेजने के लिए विदेशी मुद्रा भी प्राप्त हो रही है। इसी तरह मंगल मिशन बेहद सस्ते में भारत ने ही भेजा है। भारत के केवल 450 करोड़ इस मिशन पर खर्च हुए जबकि अमेरिका का खर्च कई गुणा था। अंतरिक्ष मामले में भी हम अमेरिका, चीन और रूस के नजदीक पहुंच गए हैं। नि:संदेह एक बार यह रास्ता कठिन नजर आता है लेकिन यदि डीआरडीओ के वैज्ञानिकों को पूरी सुविधाएं और एक मिशन से काम करने दिया जाए तब कुछ भी असंभव नहीं। किसी समय गेहूँ की कटाई के लिए इटली और जर्मनी से कंबाईनें मंगवाई गई थी, लेकिन पंजाब के साधारण मिस्त्रियों ने ही उन कंबाईनों से अधिक क्षमता व कम खर्च वाली मशीनों बना दी। उसके बाद कभी भी भारत को विदेशों से कंबाईनें मंगवाने की आवश्यकता नहीं पड़ी।
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