(Sedition law) राजद्रोह या देशद्रोह कानून को लेकर विधि आयोग की अनुशंसा ने तय कर दिया है कि फिलहाल इस कानून का अस्तित्व बना रहेगा। पिछले साल मई में सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा-124-ए पर रोक लगा दी थी। इसी धारा के अंतर्गत देशद्रोह का कानून परिभाषित है। देश के 22वें विधि आयोग ने इसे आवश्यक बताते हुए केंद्र सरकार से अनुसंशा की है कि इसका और कढ़ाई से पालन तो किया ही जाए, साथ ही सरकार इसे जरूरी बदलावों के साथ लागू रहने दे।
राजद्रोह कानून से जुड़ी धारा में सजा बढ़ाने की भी सिफारिश
दरअसल न्यायालय ने कहा था कि सरकार की निंदा या आलोचना करने के लिए किसी व्यक्ति पर राजद्रोह या मानहानि का आरोप नहीं लगाया जा सकता। इस कथन से साफ होता है कि देश की न्यायपालिका लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ है। यह बात राजद्रोह एवं मानहानि को परिभाषित करने वाली धारा 124 और 124-ए के परिप्रेक्ष्य में कही गई थी। इसी क्रम में न्यायालय ने धारा 124-ए को निष्क्रिय कर दिया था।
लेकिन आयोग ने राजद्रोह कानून से जुड़ी धारा 124-ए को बहाल रखने की सिफारिश करते हुए, सजा भी बढ़ाने की सिफारिश कर दी है। इन धाराओं में दर्ज मामलों की जांच पुलिस निरीक्षक या इसके ऊपर की श्रेणी के अधिकारी राज्य या केंद्र सरकार की बिना अनुमति के कर सकेंगे। धारा 124-ए के अंतर्गत लिखित या मौखिक शब्दों, चिन्हों प्रत्यक्ष या अप्रत्क्ष तौर से नफरत फैलाने या असंतोश जाहिर करने पर देशद्रोह का मामला दर्ज किया जा
सकता है।
भारत तेरे टुकड़े होंगे हजार, जैसे नारे राजद्रोह भी, राष्ट्रद्रोही भी
इस धारा के तहत दोशी पर आरोप साबित हो जाए तो उसे तीन साल के कारावास तक की सजा हो सकती है। 1962 में शीर्ष न्यायालय के सात न्यायाधीशों की खंडपीठ ने ह्यकेदारनाथ बनाम बिहार राज्यह्य प्रकरण में, राजद्रोह के संबंध में ऐतिहासिक फैसले में कहा था कि ह्यविधि द्वारा स्थापित सरकार के विरुद्ध अव्यवस्था फैलाने या फिर कानून या व्यवस्था में गड़बड़ी पैदा करने या फिर हिंसा को बढ़ावा इेने की प्रवृत्ति या मंशा हो तो उसे राजद्रोह माना जाएगा।
इसी परिभाषा की परछाईं में हार्दिक पटेल बनाम गुजरात राज्य से संबंधित मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यदि कोई व्यक्ति अपने भाषण या कथन के मार्फत विधि द्वारा स्थापित सरकार के खिलाफ हिंसा फैलाने का आह्वान करता है तो उसे राजद्रोह माना जाएगा। अदालत के इन फैसलों के अनुक्रम में किसी अन्य देश की प्रशंसा, परमाणु संयंत्रों का विरोध, राष्ट्रगान के सम्मान में खड़े नहीं होना, जैसे आचरण जरूर राजद्रोह नहीं कहे जा सकते हैं, लेकिन भारत तेरे टुकड़े होंगे हजार, जैसे नारे न केवल राजद्रोह हैं, बल्कि राष्ट्रद्रोही भी है।
राष्ट्रविरोधी तत्वों से निपटने में धारा-124-ए जरूरी
इस परिप्रेक्ष्य में यह समझ लेना भी जरूरी है कि संविधान का अनुच्छेद 19-1 अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी जरूर देता है, लेकिन इस पर युक्तियुक्त प्रतिबंध भी लगाया गया है। इस संदर्भ में एके गोपालन बनाम मद्रास राज्य से जुड़े फैसले में साफतौर से कहा गया है कि ‘बेहतर होगा कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता का सामाजिक हित व अन्य बृहत्तर सामाजिक हितों के अधीन हों।’ (Sedition law)
वास्तव में यही बृहत्तर सामाजिक हित राज्य को भारत की संप्रभुता, अखंडता तथा राज्य की सुरक्षा से जोड़ते हैं। अत: आयोग की सिफारिशों में स्पष्ट है कि राष्ट्रविरोधी और अलगाववादी तत्वों से निपटने में धारा-124-ए जरूरी है। भारत के विरुद्ध सांप्रदायिक कट्टरता फैलाने और सरकार के लिए नफरत के हालात बनाने में भारत विरोधी विदेशी ताकतें सोशल मीडिया का मनचाहा एवं गलत दुरुपयोग करती हैं, इसलिए इस धारा का अस्तित्व बने रहना जरूरी है।
ब्रिटेन ने इस तरह के कानून को 2009 में खत्म कर दिया
प्रत्येक देश की विधि प्रणाली उस देश की सच्चाइयों और विसंगतियों के अनुसार काम करती है। दूसरे देशों की कानूनी संहिताओं को आदर्श मानकर भारत में 124-ए को प्रतिबंधित करना घातक होगा। दरअसल मानवाधिकार हितों के कथित पैरोकार उदाहरण देते हैं कि ब्रिटेन ने इस तरह के कानून को 2009 में खत्म कर दिया। जबकि अमेरिका में स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति के मामलों में इस प्रावधान को डर पैदा करने वाला बताया है। आॅस्ट्रेलिया में विधि आयोग ने राजद्रोह शब्द को विलोपित करने की सिफारिश की है। (Sedition law)
इन देशों के कानूनों को हम इसलिए भारत के परिप्रेक्ष्य में आदर्श नहीं मान सकते हैं, क्योंकि वहां न तो सांप्रदायिक धार्मिकता है और न ही भारत जैसी जातीय विसंगतियां? इस्लामिक आतंकवाद, अलगाववाद और जबरन मतांतरण भी विकसित देशों में लगभग नहीं है। भारत में नक्सलवाद और उग्रवाद भी सिर उठाते रहते हैं। ऐसे में राजद्रोह कानून यदि समाप्त कर दिया जाता है तो भारत को विखंडित होने में समय नहीं लगेगा? यह तब और आवश्यक है, जब चीन और पाकिस्तान जैसे देश भारत को तोड़ने में लगे हों। कनाडा में बैठे अलगाववादी खालिस्तान को हवा दे रहे हों ? (Sedition law)
नए विचार का पुलिसिया दमन तानाशाही प्रवृत्ति का प्रतीक
बावजूद जनतंत्र में सरकार से असहमति लोकतांत्रिक व्यवस्था का एक अनिवार्य पहलू है। बशर्ते उसमें राष्ट्र की संप्रभुता और अखंडता को चुनौती नहीं हो, साथ ही हिंसा और अराजकता के लिए भी कोई जगह न हो ? इस दृष्टि से यदि कोई नागरिक सामाजिक समूह या विपक्षी दल सरकार की आलोचना या नीतिगत बदलाव की बात करता है तो सरकार को उसकी बात न केवल सुनने की जरूरत है, बल्कि यदि कोई नया विचार आता है, तो उस परिप्रेक्ष्य में नीतिगत बदलाव किए जाने की जरूरत है। (Sedition law)
नए विचार का पुलिसिया दमन तानाशाही प्रवृत्ति का प्रतीक है। इसीलिए किसी कानून की न्यायालय व्याख्या और पुलिसिया परिभाषा में अंतर है। पुलिस जहां कानून को लागू करने के बहाने क्रूरता अपना लेती है, वहीं न्यायालय विधिशास्त्र का ख्याल रखती है। इस लिहाज से कानून के जहां संतुलित उपयोग की जरूरत है, वहीं राज या राजद्रोह जैसे कानून को अपवाद स्वरूप ही अमल में लाने की जरूरत है। (Sedition law)
समाजसेवियों, बुद्धिजीवियों के विरुद्ध भी मामले दर्ज किए गए
पिछले कुछ सालों में देखने में आया कि परमाणु संयंत्र का विरोध करने, फेसबुक पोस्ट लाइक करने, प्रतिद्वंद्वी क्रिकेट टीम की हौसला अफजाई करने, किसी दूसरे देश की तारीफ करने, कार्टून बनाने या फिर सिनेमा घर में राष्ट्रगान के समय खड़ा न हो पाने के लिए भी देशद्रोह के मामले या तो दर्ज किए जाने लगे? (Sedition law)
ऐसे समाजसेवियों, लेखकों औा बुद्धिजीवियों के विरुद्ध भी मामले दर्ज किए गए, जो सरकार की राय से अलग विचार रखने वाले थे, या फिर सरकार की नीतियों व कार्यप्रणाली की आलोचना कर रहे थे। इस प्रकृति के ज्यादातर मामलों में आरोप सिद्ध नहीं हो पाते हैं, लेकिन अदालत की लंबी और महंगी प्रक्रिया से गुजरना किसी सजा से कम नहीं है, क्योंकि व्यक्ति हर दिन एक नई शंका-कुशंका से प्रताड़ित होता है। (Sedition law)
आपत्तिजनक तरीकों में धारा 124-ए हो सकती है प्रभावी
यह सब जानते हुए भी तत्कालीन संप्रग की मनमोहन सिंह की सरकार ने धारा 124-ए को ‘आतंकवाद, उग्रवाद और सांप्रदायिक हिंसा जैसी देशद्रोही समस्याओं से निपटने के लिए आवश्यक और संविधान सम्मत’ बताया था। सरकार ने इस समय संसद में यह भी स्पष्ट किया था कि समुचित दायरे में रहकर सरकार की आलोचना करने पर कोई रोक नहीं है, लेकिन जब आपत्तिजनक तरीकों का सहारा लिया जाए, तब यह धारा प्रभावी हो सकती है।
तब बहस में भाजपा समेत कई दलों को सांसदों ने मौजूदा सरकार के इस रुख का समर्थन किया था। इस धारा के आतंकवाद और उग्रवाद के परिप्रेक्ष्य में चले आ रहे महत्व के चलते ही, इसे पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी नहीं हटा पाए थे, जबकि वे इसे हटाए जाने के पक्ष में थे। बहरहाल राजद्रोह कानून मनमोहन सिंह सरकार के समय प्रासंगिक था, तब अब इसे कैसे अप्रासंगिक मान लिया जाए। जहां तक फिरंगी हुकूमत द्वारा इस दमनकारी कानून को अस्तित्व में लाया गया, इसलिए इसकी समाप्ति आवश्यक है तो फिर वर्तमान भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता भी अंग्रेजी शासन की देन है। अत: स्वतंत्र भारत में इसका भी अस्तित्व किसलिए? (Sedition law)
प्रमोद भार्गव , वरिष्ठ लेखक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार (यह लेखक के अपने विचार हैं)