सरकारी धन व सुरक्षा पर इतराते अलगाववादियों पर शिकंजा

Screws on separatists

यह भारत जैसे उदार व सहिष्णु देशों में ही संभव है कि आप अलगाव और देशद्रोह का खुलेआम राग अलापिए, मासूम युवाओं को भड़काहट, राज्य व राष्ट्र की संपत्ति को नुकसान पहुंचाइए, बावजूद आपका बाल भी बांका होने वाला नहीं है ? पाकिस्तान के पक्ष में और भारत के विरोध में नारे लगाने वाले ऐसे लोगों को हम देशद्रोही नहीं मानते, अलबत्ता उनकी सुरक्षा और एशो-ओ-आराम पर करोड़ों रुपए खर्च कर रहे हैं। यह एक ऐसी हैरानी में डालने वाली वजह है, जो अलगाववादियों का न केवल भारत में पोषण कर रही है, बल्कि वे भारतीय पासपोर्ट के जरिए दूसरे देशों की सरजमीं पर इतराते हुए भारत के खिलाफ मानवाधिकारों के हनन की वकालत करते हुए विद्रोह की आग भी उगलते हैं। सुरक्षा और सरकारी धन की यह इफरात ही अलगाववादियों को दुनिया में इतराते फिरने का मौका दे रही है। अब बड़ी चोट सहकर भारत सरकार पाकपरस्त पांच अलगाववादियों की सरकारी सुरक्षा हटाने को मजबूर हुई है। जबकि इन सुविधाओं को बंद करने की मांग अर्से से उठ रही थी। 2016 में भाजपा विधायक ने जम्मू-कश्मीर विधानसभा में भी पृथकतावादियों पर अरबों रुपए खर्च करने का मुद्दा उठाया था।

पुलवामा के भीषण हमले और 44 जबांजों के प्राण खोने के बाद जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने पांच अलगाववादियों को मिली सुरक्षा वापस ले ली हैं। अब तक यह सुरक्षा केंद्र के परामर्श से राज्य सरकार अस्थाई तौर पर मुहैया करा रही थी। इन नेताओं में आॅल पार्टीज हुर्रियत क्रांफ्रेस के अध्यक्ष मीरवाइज उमर फारूक, जम्मू-कश्मीर डेमोक्रेटिक पार्टी के संस्थापक अध्यक्ष शब्बीर शाह, जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट हासिम कुरैशी, पीपुल्स इंडिपेंडेंट मूवमेंट के अध्यक्ष बिलाल लोन, और मुस्लिम क्रांफ्रेस के अध्यक्ष अब्दुल गनी बट शामिल हैं। उमर फारूक ने 29 जनवरी को पाक के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी से वार्ता की थी। जिस पर विवाद हुआ था। शब्बीर शाह कश्मीर में आत्मनिर्णय के अधिकार की बात करते हैं।

जबकि कश्मीर से चार लाख से भी ज्यादा पंडित, सिख, बौद्ध, जैन और अन्य अल्पसंख्यकों को तीस साल पहले विस्थापित कर दिया गया है। यदि शाह में थोड़ी भी राष्ट्रभक्ति होती तो वे यहां बहुलतावादी चरित्र की बहाली के लिए इन विस्थापितों के पुनर्वास की बात करते ? हाशिम कुरैशी 1971 में इंडियन एयरलाइंस के विमान अपहतार्ओं में शामिल था। बिलाल लोन पीपुल्स क्रांफ्रेंस के एक अलगाववादी धड़े का नेता है। फारसी का प्राध्यापक रहा अब्दुल गनी बट हुर्रियत का हिस्सा है। इसने कश्मीरी पंडितों के घर जलाने और उन्हें घाटी से बाहर खदेड़ने में अहम भूमिका निभाई थी। इस कारण इसे 1986 में सरकारी नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया था। इन लोगों पर पाकिस्तान से पैसा लेने व आईएसआई के लिए जासूसी करने का भी आरोप है। इसका खुलासा हिंदी के एक राष्ट्रीय समाचार चैनल ने किया था। जबकि अब गृह मंत्रालय कह रहा है कि इन अलगाववादियों के पाक खुफिया एजेंसी आईएसआई से संपर्क रखने और विदेशी आर्थिक मदद लेने की जानकारी उसे पहले से है। बाबजूद इन देशद्रोहियों पर नरेंद्र मोदी सरकार कड़ी कानूनी कार्रवाही करने से बचती रही।

विडंबना देखिए जो देश-विरोधी गतिविधियों में ढाई दशक से लिप्त हैं, उन्हें राज्य एवं केंद्र सरकार की तरफ से सुरक्षा-कवच मिला हुआ है। यही नहीं, इन्हें सुरक्षित स्थलों पर ठहराने, देश-विदेश की यात्राएं कराने और स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने पर पिछले 5 साल में ही 560 करोड़ रुपए खर्च किए हैं। मसलन सालाना करीब 112 करोड़ रुपए इन अलगाववादियों का पृथक्तावादी चरित्र बनाए रखने पर खर्च हुए हैं। इनकी सुरक्षा में निजी अंगरक्षकों के रूप में लगभग 500 और इनके आवासों पर सुरक्षा हेतु 1000 जवान तैनात हैं। पूरे जम्मू-कश्मीर राज्य के 22 जिलों में 670 अलगाववादियों को विशेष सुरक्षा दी गई है।

जबकि ये पाकिस्तान का पृथक्तावादी अजेंडा आगे बढ़ा रहे हैं। इनके स्वर बद्जुबान तो हैं ही, पाकिस्तान परस्त भी हैं। कश्मीर के सबसे उम्रदराज अलगाववादी नेता सैयद अली गिलानी कहते हैं, यहां केवल इस्लाम चलेगा। इस्लाम की वजह से हम पाकिस्तान के हैं और पाक हमारा है। अलगाववादी महिला नेत्री असिया अंद्राबी पाक का कश्मीर में दखल कानूनी हक मानती हैं। कमोबेश यही स्वर यासीन मलिक और मीरवाइज उमर फारुक का है। यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि हम इनकी बद्जुबानी भी सह रहे हैं और इन्हें सुरक्षा व व्यक्तिगत खर्च के लिए धन भी मुहैया करा रहे हैं। विश्व में शायद ही किसी अन्य देश में ऐसी विरोधाभासी तस्वीर देखने को मिले ? बावजूद भारत सरकार ऐसे बर्ताब को देशद्रोही नहीं मानती है, तो तय है, इन अलगाववादियों का सरंक्षण कालांतर में देश के लिए आत्मघाती ही साबित होगा ?

कश्मीरी अलगाववादियों को देश-विदेश में हवाई-यात्रा के लिए टिकट सुविधा, पांच सितारा होटलों में ठहरने व वाहन की सुविधाएं मुहैया कराई जा रही हैं। स्वास्थ्य खराब होने पर दिल्ली के एम्स से लेकर अपोलो एस्कॉर्ट और वेदांता जैसे महंगे अस्पतालों में इनका उपचार कराया जाता है। इन सब खर्चों को राज्य और केंद्र सरकार मिलकर उठाती हैं। जम्मू-कश्मीर विधानसभा परिषद् में भाजपा सदस्य अजात शत्रु ने इस परिप्रेक्ष्य 2016 में आश्चर्यजनक खुलासा किया था। उन्होंने बताया था कि पृथक्तावादियों को विधायकों, मंत्रियों और विधान परिषद् के सदस्यों से कहीं ज्यादा सुरक्षा मिली हुई है? बाद में अजात शत्रु ने जो आंकड़े प्रस्तुत किए, उससे सदन अवाक रह गया था। राज्य में कुल 73,363 पुलिसकर्मी हैं, इनमें से समूचे राज्य के 670 अलगाववादियों की सुरक्षा में 18000 कर्मी तैनात हैं।

राज्य के सर्व शिक्षा अभियान का कुल वार्षिक खर्च 486 करोड़ है, जबकि इस सुरक्षा पर 560 करोड़ रुपए खर्च हो रहे हैं। अलगाववादियों को ठहरने के लिए महंगे होटलों में 500 कमरे भी आरक्षित हैं। देश के खिलाफ बगावत का स्वर उगलने वालों को इतनी सुख-सुविधाएं सरकार दे रही है, तो भला वे अलगाव से अलग होने की बात सोचें ही क्यों ? देश की मुख्यधारा में क्यों आएं ? राज्य सरकार इस सुरक्षा को उपलब्ध कराने का कारण अलगाववादी नेताओं और आतंकी संगठनों में कई मुद्दों पर मतभेद बताती रही है। इस तकरीर से ही साफ है कि अलगाववादी राष्ट्र या राज्य के नहीं, बल्कि आतंकवादियों के कहीं ज्यादा निकट हैं। लिहाजा इनके अलगाव के स्वर को पनाह देना कतई राष्ट्रहित में नहीं है।

ये अलगाववादी कितने चतुर हैं और अपने परिवार के सदस्यों के सुरक्षित भविष्य के लिए कितने चिंतित हैं, यह इनकी कश्मीरियों के प्रति अपनाई जा रही दोगली नीति से पता चलता है। इनका यह आचरण तुम सांप के बिल में हाथ डालो, मैं मंत्र पढ़ता हूं जैसे मुहावरे को चरितार्थ करता है। आतंकी बुरहान बानी की कब्र पर जमा लोगों को अपने आॅडियो संदेश के जरिए जिहाद और इस्लाम का पाठ पढ़ाने वाले इस चरमपंथी के तीन बेटे और तीन बेटियों में से एक भी अलगाववादी जमात का हिस्सा नहीं है। ये घाटी से बाहर दिल्ली और अमेरिका में पढ़-लिखकर वैभवशाली जीवन जी रहे हैं। यही नहीं इनकी मौज-मस्ती और कश्मीर में अलगाववादी गतिविधियां चलाने के लिए इन्हें विदेशों से भी अकूत धन मिल रहा है।

इन सब हकीकतों के बावजूद पुलवामा में हुए सेना पर हमले के बाद जो सर्वदलीय बैठक सम्पन्न हुई, उसमें नेताओं ने आतंकवाद को नेस्तनाबूद करने की बहुमत से प्रतिबद्धता तो जताई। सीमापार से निर्यात किए जा रहे आतंक की कड़ी निंदा भी की, लेकिन पाकिस्तान का नाम लेने से बचते दिखाई दिए। जबकि इन नेताओं को पाकिस्तान का नाम लेने के साथ धारा-370 के खत्म करने की बात भी पुरजोरी से करनी थी ? इस धारा के चलते ही कश्मीरी जनता में अलगाववाद पला-बढ़ा है? इसकी छाया में अवाम यह मानने लगा है कि यही वह धारा है, जिसके चलते कश्मीरियों को विशिष्ट अधिकार मिले हैं। नतीजतन वे भारत से अलग हैं। गोया वह कश्मीरियत की बात तो करते हैं, लेकिन उसे भारतीयता से भिन्न मानते हैं। इस मानसिकता को उकसाने का काम अलगाववादी बीते 30 साल से कर रहे हैं। लिहाजा अलगाववादियों पर अंकुश के साथ इस मानसिकता को भी बदलने के लिए एक वैचारिक मुहिम कश्मीर में चलाने की जरूरत है।

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