पाकिस्तन का उल्लेख करते हुए मोदी ने कहा कि शंघाई सहयोग संगठन के एजेंडा में द्विपक्षीय विवादों को लाने का प्रयास किया जा रहा है जो संगठन के चार्टर के विरुद्ध है। उन्होंने इस क्षेत्र में भारत की विदेश नीति के उद्देश्यों पर बल देते हुए कहा कि भारत शांति, रक्षा और समृद्धि में विश्वास करता है और उसने हमेशा से आतंकवाद, हथियारों की तस्करी, मादक द्रव्यों की तस्करी और मनी लांडरिंग का विरोध किया है। शंघाई सहयोग संगठन का यह शिखर सम्मेलन अपने उद्देश्य पूरे करने में विफल रहा क्योंकि इसकी बैठकें अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक कवायद के रूप में केवल औपचारिक बैठकें रह गयी हैं।
शंघाई सहयोग संगठन का 20वां शिखर सम्मेलन 10 नवंबर को रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमिर पुतिन की अध्यक्षता में संपन्न हुआ। आठ सदस्यीय इस संगठन के राष्ट्राध्यक्षों विशेषकर चीन, भारत और पाकिस्तान के नेताओं द्वारा कूटनयिक बातें की गयी। भारत और पाकिस्तान तथा भारत और चीन तथा भारत और चीन तथा पाकिस्तान के बीच चल रही प्रतिद्वंदिता के कारण लगता है शंघाई सहयोग संगठन का शिखर सम्मेलन प्रेरणादायी नहीं रहा। बहुपक्षीयता और क्षेत्रीय संगठन के नाम पर विभिन्न देश शंघाई सहयोग संगठन जैसे समूहों में शामिल होते हैं और स्वयं शंघाई सहयोग संगठन संयुक्त राष्ट्र, राष्ट्रमंडल, आसियान आदि जैसे बहुपक्षीय निकायों का सदस्य बनता है किंतु क्या ऐसे क्षेत्रीय संगठनों में राष्ट्रीय हित के प्रयोजन पूरे होते हैं? यह एक बड़ा प्रश्न है। उल्लेखनीय है कि भारत और पाकिस्तान की प्रतिद्वंदिता के कारण सार्क अप्रसांगिक सा बन गया है।
शंघाई सहयोग संगठन की स्थापना एक राजनीतिक, आर्थिक और सुरक्षा गठबंधन के रूप में 15 जून 2001 को की गयी थी। इसमें चीन सहित मध्य एशिया के छह देश शामिल थे। भारत और पाकिस्तान रूस तथा चीन के कहने पर 2017 में इसमें शामिल हुए। रूस चाहता था कि भारत इस संगठन का सदस्य बने ताकि उसमें चीन का वर्चस्व स्थापित न हो। तो चीन ने पाकिस्तान को इसका सदस्य बनाकर संतुलन बनाने का प्रयास किया और दोनों देशों ने अस्ताना, कजाख्स्तान शिखर सम्मेलन में इस संगठन की सदस्यता ली।
इस बार शिखर सम्मेलन में दिए गए भाषण इस बात की पुष्टि करते हैं कि यह संगठन वास्तविकता को ध्यान में नहीं रख रहा है अपितु केवल बातें कर रहा है। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कहा, ‘‘शंघाई सहयोग संगठन के सदस्य देशों को पारस्परिक विश्वास बढ़ाना चाहिए और विवादों तथा मतभेदों को वार्ता तथा परामर्श से हल करना चाहिए। साथ ही आतंकवादी, अतिवादी और अलगाववादी शक्तियों का दृढ़ता से सामना करना चाहिए।’’ यह चीन की चाल है। वह धीेरे-धीरे भारत जैसे अपने पड़ोसी देशों की भूमि पर कब्जा करता है और फिर वार्ता करता है। वर्तमान में नियंत्रण रेखा पर गतिरोध के बारे में दोनों देशों के बीच आठ दौर की बातचीत हो गयी है किंतु चीन अपना कब्जा छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुआ।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने मोदी के बाद अपना भाषण दिया और बिना किसी देश का नाम लिए भारत की आलोचना की और चीन से मिल रही सहायता के कारण उसकी प्रशंसा की। कश्मीर का उल्लेख करते हुए इमरान खान ने कहा, ‘‘शंघाई सहयोग संगठन संयुक्त राष्ट्र चार्टर के सिद्धान्तों जैसे समानता, राष्ट्रों की संप्रभुता और लोगों के आत्मनिर्णय के अधिकार का पालन करता है।’ उन्होंने यह भी कहा कि विवादास्पद भूभागों में स्थिति को बदलने के लिए एकपक्षीय और अवैध उपायों का विरोध किया जाना चाहिए। इमरान खान ने यह टिप्पणी शंघाई सहयोग संगठन के सिद्धान्तों का उल्लंघन करते हुए की।
संगठन का मूल सिद्धान्त आम सहमति और सहयोग है जिसे शंघाई भावना भी कहा जाता है। प्रधानमंत्री मोदी ने चीन और पाकिस्तान का नाम लिए बिना दोनों को निशाने पर लिया। उन्होंने कहा कि भारत मानता है कि कनेक्टिविटी महत्वपूर्ण है किंतु हमें एक दूसरे की संप्रभुता और प्रादेशिक अख्ांडता का सम्मान करना चाहिए। उनका सीधा इशारा चीन द्वारा लद्दाख में अतिक्रमण की ओर था। यदि सदस्य देश इसमें एकजुटता और सहयोग की भावना बढ़ा सकते तो उनके बीच द्विपक्षीय टकराव नहीं होता। शंघाई सहयोग संगठन जैसे समूहों के भविष्य के बारे में प्रश्न चिह्न लग रहा है क्योंकि भारत और चीन दोनों नेताओं के बीच पारस्परिक गलतफहमी और अविश्वास रहा है।
एशिया की नई भूराजनीति में चीन और भारत के बारे में जर्मन प्रोगेसिव फाउंडेशन द्वारा आयोजित राउंड टेबल में इस बात पर प्रकाश डाला गया है। इसमें दो मुख्य वक्ता इंस्टिट्यूट आॅफ साउथ एशियन स्टडी, चाइना इंस्टिट्यूट आॅफ कंटेपरेरी इंटरनेशनल रिलेशन के डॉ. हू शिसेंग और इंस्टिट्यूट आॅफ चाइनीज स्टडीज, दिल्ली के पूर्व निर्देशक तथा चीन में भारत के पूर्व राजदूत अशोक कंठ थे। हू ने सीमा पर तनाव बढ़ाने के लिए भारत को दोषी बताया। उन्होंने कहा कि सीमा पर भारत की गतिविधियां दुस्साहस, अवसरवाद और राजनीतिक भूल सुधार पर आधारित हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि भारत अमरीका के साथ अपने संबंध सुधार रहा है और दोनों ही चीन पर अंकुश लगाने की चाह के कारण निकट आ रहे हैं। इसके प्रत्युत्तर में अशोक कंठ ने उन्हें स्मरण कराया कि किस तरह एक आर्थिक शक्ति के रूप में चीन के उदय से सारी दुनिया त्रस्त है।
इस विचार को जर्मनी के संसद सदस्य तथा सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रवक्ता डॉ. नील ने भी समर्थन दिया। उन्होंने कहा कि चीन और पश्चिमी देशों के बीच सुनियोजित प्रतिद्वंदिता बढ रही है। यूरोपीय संघ और अमरीका के बारे में बात करते हुए डॉ. नील ने कहा कि पश्चिमी देशों की अपेक्षा है कि चीन की अर्थव्यवस्था के विस्तार और व्यापार तथा निवेश के बढने के साथ पश्चिमी देश चाहते हैं कि वह राजनीतिक क्षेत्र में भी उदारीकरण करे। किंतु शी के नेतृत्व में चीन ने अलग राह अपनायी और यही नहीं उसने एक ऐसे मॉडल को थोपने का प्रयास किया जो मानव अधिकारों, स्वतंत्रता, कानून के शासन और लोकतंत्र की अवधारणा के विपरीत है। यूरोप ने यह विकल्प 70 वर्ष पूर्व चुन लिया था जब उसने अमरीका के साथ सहयोग किया क्योंकि अमरीका लोकतंत्र के प्रति वचनबद्ध है। वर्तमान में अमरीका के निर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन द्वारा प्रस्तावित समिट आॅफ डेमोक्रेसीज में भारत को आमंत्रित किया गया है।
भारत निश्चित रूप से ऐसी बैठकों में भाग लेगा। बशर्तें कि बाइडेन जनवरी तक अमरीकी राष्ट्रपति बन जाएं। तथापि शंघाई सहयोग संगठन नैतिक अभिव्यक्तियों और कूटनयिक विचार-विमर्श का मंच बना रहेगा। हो सकता है यह अपने उद्देश्यों को पूरा न करे। हो सकता है भारत को कुछ समय बाद ऐसा लगे कि वह इस समूह में अजनबी है क्योंकि इस समूह के प्रमुख सदस्य चीन और रूस हैं। शी जिनपिंग ने स्वयं को आजीवन चीन का राष्ट्रपति निर्वाचित करा दिया है और पुतिन 2036 तक रूस के राष्ट्रपति रहेंगे। भारत को अपने लोकतंत्र पर गर्व है इसलिए स्वाभाविक है कि उसे लगेगा कि वह गलत संगठन का सदस्य बन गया है। समय आ गया है कि इस पर पुनर्विचार किया जाए।
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