वैज्ञानिकों ने स्वीकारा आत्मा का अस्तित्व

भगवत गीता हजारों साल पहले से शरीर की काया में विद्यमान ‘आत्मा’ को अजर-अमर मानती चली आ रही है। महाभारत युद्ध के दौरान भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिए उपदेश में आत्मा को कभी नष्ट नहीं होने वाला बीज-तत्व माना है। अब इसी सनातन मान्यता को वैज्ञानिक समर्थन मिला है। भौतिकी और गणित के दो वैज्ञानिकों ने लंबे शोध के बाद निष्कर्ष निकाला है कि आत्मा मरती नहीं है, मात्र शरीर मरता है।

मृत्यु के बाद आत्मा ब्रह्माण्ड में विचरण करने लगती है। इसमें अंतर्निहित स्मृति या सूचनाएं भी नष्ट नहीं होती हैं। भारतीय आध्यात्मिक दर्शन की यह भौतिकवादी व्याख्या आॅक्सफोर्ड विवि के गणित व भौतिकी के प्राध्यापक सर रोगर पेनरोज और एरीजोना विवि के भौतिक विज्ञानी डॉ स्टुअर्ट हामरॉफ ने निरंतर दो दशक अध्ययनरत रहने के बाद छह शोध-पत्रों के माध्यम से की है। इसी शोध के आधार पर अमेरिका के विज्ञान-चैनल ने एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म भी बनाई है, जो जल्द ही प्रसारित होगी।

शोधकतार्ओं का कहना है कि मानव-मस्तिष्क एक जैविक कंप्यूटर की भांति है। इस जैविक संगणक की पृष्ठभूमि में अभिकलन (प्रोग्रामिंग) आत्मा या चेतना है, जो दिमाग के भीतर उपलब्ध एक कणीय (क्वांटम) कंप्यूटर के माध्यम से संचालित होती है। क्वांटम कंप्यूटर से तत्पर्य मस्तिष्क कोशिकाओं में स्थित उन सूक्ष्म नलिकाओं से है, जो प्रोटीन आधारित अणुओं से निर्मित हैं। बड़ी संख्या में ऊर्जा के सूक्ष्म स्रोत-अणु मिलकर एक क्वाटंम क्षेत्र तैयार करते हैं, जिसका वास्तविक रूप चेतना या आत्मा है। इन वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि जब व्यक्ति दिमागी रूप में मृत्यु को प्राप्त होने लगता है, तब ये सूक्ष्म नलिकाएं क्वांटम क्षेत्र खोने लगती हैं।

परिणामत: सूक्ष्म ऊर्जा कण मस्तिष्क की नलिकाओं से निकलकर ब्रह्माण्ड में चले जाते हैं। जब कभी मरता इंसान अचानक जी उठता है, तब ये कण वापस सूक्ष्म नलिकाओं में लौट आते हैं। वैज्ञानिकों का यह शोध भौतिकशास्त्र के क्वांटम सिद्धांत पर आधारित है। इसके अनुसार आत्मा चेतन दिमाग की कोशिकाओं में प्रोटीन से बनी सूक्ष्म नलिकाओं में (माइक्रो ट्यूबुल्स) में ऊर्जा के सूक्ष्म स्रोत अणुओं एवं उप-अणुओं के रूप में रहती हैं। अर्जित ज्ञान भी इन्हीं सूक्ष्म कणों में संग्रहित रहता है। सूक्ष्म ऊर्जा कणों के ब्रह्माण्ड में जाने के बावजूद उनमें दर्ज सूचनाएं नष्ट नहीं होती हैं।

सूक्ष्म नलिकाओं पर पड़ने वाले क्वांटम गुरूत्वाकर्षण प्रभाव के परिणामस्वरूप मनुष्य को चेतन्यता का अनुभव होता रहता है। दरअसल हमारी आत्मा मस्तिष्क में तंत्रिका कोशिकाओं (न्यूरॉन्स) के बीच बनने वाले संबंध से कहीं ज्यादा व्यापक है। असल में आत्मा का निर्माण उन्हीं तंतुओं या तत्वों से हुआ है, जिनमें सक्रियता और समन्वय के पश्चात ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आया था। इसीलिए भारतीय दर्शन में उल्लेख है कि आत्मा काल के जन्म से ही ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। वैज्ञानिकों ने इस सिद्धांत को ‘आर्वेक्स्ट्रेड आॅब्जेक्टिव रिएक्शन’ नाम दिया है।

आत्मा से मृत्यु के संबंध के बारे में हामरॉफ कहते हैं कि ‘मृत्यु जैसे अनुभव में सूक्ष्म नलिकाएं अपनी क्वांटम अवस्था गंवा देती हैं, किंतु इसके अंदर के अनुभव क्षीण नहीं होते हैं। अतएव आत्मा केवल शरीर छोड़कर ब्रह्माण्ड में विलय हो जाती है। इस अवस्था में कई बार रोगी मृत्यु को प्राप्त हो जाने के पश्चात भी जीवित हो जाता है, तो इसका कारण यह होता है कि सूक्ष्म नलिकाएं क्वांटम अवस्था को पुन: प्राप्त हो जाती हैं। जीवन और मृत्यु के बीच रोगी के साथ जो घटता है, वह मृत्यु का मात्र अनुभव होता है। मृत्यु के बाद क्वांटम सूचनाएं शरीर के आस-पास कुछ समय तक मंडाराती रहती हैं, इन्हें पूरी तरह नष्ट करने के लिए ही हिंदुओं में अंतिम संस्कार के समय कपाल-क्रिया करने का प्रावधान है।

अब जरा आत्मा के संबंध में गीता में कृष्णा द्वारा अर्जुन को दिया उपदेश समझते हैं। आत्मा की अमरता का सार-तत्व इन दो श्लोकों में अंतर्निहित है-
वासांसि जीणार्नी यथा विहाय
नवानि गृहणति नरो:पराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-न्यन्यानि
संयाति नवानि देही।।
अर्थात मनुष्य जैसे पुराने कपड़ों को छोड़कर दूसरे नए कपड़े पहन लेता है, ऐसे ही आत्मा पुराने शरीर को त्याग कर नए शरीर में प्रवेश कर जाती है।
नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:।
न चैनं क्लेदयन्तयापो न शोषयति मारुत:।।
अर्थात आत्मा के अस्तित्व को शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती। जल इसे गीला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती है। आत्मा की अमरता का यह विज्ञान-सम्मत शोध हमारे ऋषियों ने पांच हजार वर्ष पहले कैसे किया, यह भी एक अनुसंधान का विषय है? हालांकि भारतीय दर्शन स्पष्ट रूप से मानता है कि जीवात्मा रूपी ईश्वरीय अंश सभी जीवों में एक समान रूप से विद्यमान है। आत्मा या जीवात्मा का न कोई न रंग है, न रूप है। आत्मा के संदर्भ में आश्चर्य यह भी है कि आत्मा जिस भी जीव में उपलब्ध है, उसे भी न यह दिखती है और न वह इसका अंग के रूप में अनुभव करता है। किसी अन्य को भी यह नहीं दिखती है। इसीलिए भारतीय चिंतन में उल्लेख है कि जो जीवात्मा है, वह अनेक अनाध्यात्कि स्तरों के माध्यम से शरीर से लिपटी हुई है। यही वजह है कि आत्मा की चिंगारी प्रत्येक जीवात्मा में विद्यमान है।

फलस्वरूप एक कोशीय जीवों की अनायास उत्पत्ति हुई। जैविक विकास की दूरी तय करते हुए यह कोशिका मछली, मछली से कछुआ, कछुआ से वराह, वराह से नरसिंह, नरसिंह से वामन और वामन से पूर्ण पुरुष परशुराम के रूप में अवतरित होती चली गई। सनातन हिंदू धर्म की दशावतार अवधारणा में जैविक विकास का यही क्रम है, जो डार्विन के जैविक विकास के सिद्धांत से कहीं ज्यादा विस्तृरित और तार्किक है। जीवन के इस विकास क्रम को हम पृथ्वी पर रेंगने वाली इल्ली से उड़ने वाली तितली के बदलते स्वरूप में देख सकते हैं। आत्मा की अमरता और जीवन चक्र की निरंतरता का उत्कृष्ठ उदाहरण ‘योग-वशिष्ठ’ में उल्लेखित एक रोचक कथा में मिलता है।

राजा पद्म और उनकी पत्नी लीलावती के माध्यम से इस कथा में बताया है कि ब्रह्माण्ड का अस्तित्व कई स्तरों में विभाजित है। इस कथा में इन स्तरों को मनुष्य की अंतर्चेतना की परतों से जोड़कर वर्णन किया गया है। जिस तरह से केले के तने के भीतर एक के बाद एक परतों का सिलसिला मौजूद रहता है, उसी अनुरूप प्रत्येक सृष्टि के भीतर सृष्टियों का क्रमिक सिलसिला विद्यमान रहता है। संसार में व्याप्त चेतना के प्रत्येक परमाणु में जिस प्रकार से स्वप्न-लोक उपस्थित है, उसी सृष्टि या जगत में अनंत द्रव्य के अनंत परमाणुओं के भीतर अनेक प्रकार के जीव और उनके जगत उपलब्ध हैं।

जगत के विकास की प्रक्रिया पंच-तत्वों से जीवन की ओर जाती है। जीवन से जैव-मानस, जैव-मानस से मानवीय प्रज्ञा और इसके बाद आध्यत्मिक मुक्ति, यानी शरीर से प्राण या जीवन के अंश निकल जाना। अत: सृष्टि की आरंभिक अवस्था में जो जल था, वह कोई साधारण जल नहीं था, बल्कि इस जल में ऐसे सर्वव्यापी विलक्षण तत्व मौजूद थे, जो सृष्टि के निर्माण और मातृत्व की क्षमता रखते थे। उस समय जल, अग्नि, वायु आकाश और पृथ्वी तत्व परस्पर घुले-मिले थे। यानी ये तत्व जब सागर की विपुल जल-राशि में समवेत थे, तब यह जल-राशि दैवीय चमक की विलक्षण ऊर्जा से अभिभूत थी।