ग्वालियर के डॉ एनके शाह ने हैदराबाद विश्व विद्यालय की डॉ. शर्मिष्ठा बनर्जी और सैयद हुसैन के साथ मिलकर जीव व वनस्पति विज्ञान की आधुनिक तकनीकों का उपयोग करते हुए सिलेजिनेला ब्रायोप्टेरिस पर प्रयोग किए और इनमें पुनर्जीवन के आधारभूत तत्व पाए। इन्हें पता चला कि जो अवयव आॅक्सीकरण यानी प्राणवायु संबंधी क्षति व पराबैंगनी क्षति से चूहों और कीटों की कोशिकाओं की रक्षा करते हैं, उनकी मरम्मत में यह बूटी मदद करती है।
जीवनी विद्या या बूटी के प्रभाव से मृत्यु को प्राप्त व्यक्ति को पुनर्जीवित करने के तीन प्रसंग प्राचीन ग्रंथों में प्रमुखता से मिलते हैं। पहला प्रसंग कच-देवयानी का है। कच बृहस्पति का पुत्र और देवयानी शुक्राचार्य की पुत्री थी। देवासुर संग्राम में देवों ने बृहस्पति और दानवों ने शुक्राचार्य को पुरोहित बनाया। देवता युद्ध में जिन असुरों को मारते, शुक्राचार्य उन्हें संजीवनी विद्या से पुनर्जीवित कर देते। फलत: देवताओं की पराजय हुई। किंतु युद्ध की अगली रणनीति के अंतर्गत देवताओं ने कच को शुक्राचार्य के पास संजीवनी विद्या सीखने भेज दिया। कच ने मृतसंजीवनी विद्या सीख ली। भेद खुलने पर दानवों ने कच की वन में गाएँ चराते हुए हत्या कर दी। पुत्री देवयानी के कहने पर शुक्राचार्य ने उसे जीवित कर दिया। इस बीच देवयानी कच को प्रेम करने लगी थी। देवयानी ने कच के सामने पाणिग्रहण का प्रस्ताव रखा, कच ने देवयानी को बहन माना और प्रस्ताव ठुकरा दिया।
दूसरा प्रसंग परशुराम द्वारा पिता जमदग्नि के कहने पर अपनी माँ और भाइयों को मार देने और फिर जमदग्नि द्वारा संजीवनी विद्या से पुनर्जीवित करने का है। तीसरी कथा रावण-पुत्र मेघनाद द्वारा लक्ष्मण को अमोघ शक्ति से मूर्च्छित करने की है। लंका के वैद्य सुषेण ने इसके उपचार का उपाय द्रोणगिरी पर्वत से मृत संजीवनी बूटी लाकर खिलाना बताया। हनुमान जी इस बूटी को लाए और लक्ष्मण के प्राण बचाए। इन तीनों प्रसंगों से स्पष्ट है कि संजीवनी प्राचीन युग में मृतकों को पुनर्जीवन देने वाली अद्भुत बूटी थी।
अब इस बूटी की वैज्ञानिकता अनुसंधानों से सिद्ध करते हैं। प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में मृत-संजीवनी बूटी अर्थात मृत और मूर्च्छित व्यक्ति में नए सिरे से प्राण डालने वाले औषधीय पौधों के रस का वर्णन है। मृत-संजीवनी अर्थात मरे हुए की जिलाने वाली बूटी। इसकी गंध-मात्र से मृत व्यक्ति जी उठता था। विशाल्यकरणी, यानी बाण निकालने वाली बूटी। इस बूटी से शरीर में धंसे बाण निकाले जाते थे। व्रणरोपणी के लेप से घाव सूख जाते थे। सवर्ण्यकरणी (संरोहिणी) त्वचा पर आए घाव के निशान मिटाने वाली वनस्पति थी। 25 अगस्त 2009 के ‘करंट साइंस’ में एक शोध लेख छपा है। जिसे कृषि विज्ञान विश्व-विद्यालय बैंग्लुरू और वानिकी महाविद्यालय सिरसी के डॉ केएन गणेशैया, डॉ आर वासुदेव और डॉ. आर उमाशंकर के संयुक्त अनुसंधान के फलरूवरूप तैयार किया है।
इसी का सार विज्ञान लेखक डॉ. डी. बाल सुब्रमण्यन ने भोपाल से प्रकाशित स्रोत पत्रिका में दिया है। इन तीनों संजीवनी की सच्चाई जानने के लिए ‘भारतीय जैव संसाधन डाटाबेस लायब्रेरी’ में 80 भाषाओं व बोलियों में अधिकतम भारतीय पौधों के बोल-चाल के नामों की खोज की और पाया कि तीन प्रजातियां ऐसी हैं, जो संजीवनी से एकरूपता रखती हैं। ये हैं, क्रेसा क्रेटिका, सिलेजिनेला ब्रायोप्टेरिस और डेस्मोट्रायकमफिम्ब्रिएटम। इनके हिंदी नाम हैं, रुवन्ती, संजीवनी और जीविका हैं। इनमें सिलोजिनेला ब्रायोप्टेरिस अर्थात संजीवनी-बूटी ऐसी वनस्पति है, जो कई महीनों तक शुष्क व सूखी अवस्था में पड़ी रहती है। इस मृत व निष्क्रिय पड़ी रहने वाली वनस्पति की विलक्षणता यह है कि इसे पानी से भिगो दिए जाने पर यह आश्चर्यजनक ढंग से पुनर्जीवित व हरी-भरी हो उठती है।
ग्वालियर के डॉ एनके शाह ने हैदराबाद विश्व विद्यालय की डॉ. शर्मिष्ठा बनर्जी और सैयद हुसैन के साथ मिलकर जीव व वनस्पति विज्ञान की आधुनिक तकनीकों का उपयोग करते हुए सिलेजिनेला ब्रायोप्टेरिस पर प्रयोग किए और इनमें पुनर्जीवन के आधारभूत तत्व पाए। इन्हें पता चला कि जो अवयव आॅक्सीकरण यानी प्राणवायु संबंधी क्षति व पराबैंगनी क्षति से चूहों और कीटों की कोशिकाओं की रक्षा करते हैं, उनकी मरम्मत में यह बूटी मदद करती है। गोया, मानना पड़ेगा कि संजीवनी-बूटी थी ?
लेह-लद्दाख क्षेत्र में प्रतिरोधात्मक क्षमता को बढ़ाने वाले ‘सोलो’ पौधे को गुरुनानक देव विश्वविद्यालय के जैव-प्रौद्योगिकी विभाग ने नया जीवन दिया है। इस विभाग ने सोलो नामक पौधे का ‘टिश्यू प्लांट’ (बेबी ट्यूब प्लांट) तैयार किया है। इसका वैज्ञानिक नाम ‘रोडियोला’ है। इसके गुणों के कारण और प्रायोगिक परीक्षणों से ज्ञात हुआ है कि संभवत: यही त्रेता युग की वह संजीवनी बूटी है, जिसका उल्लेख ‘रामायण’ में है। इसका उपयोग आॅक्सीजन अर्थात प्राणवायु बढ़ाने, बढ़ती उम्र के प्रभाव को कम करने, निम्न वायु दबाव वाले क्षेत्रों में रहने और बम या जैव रसायन से पैदा हुए विकीरण के प्रभाव को खत्म करने के लिए किया जाता है। यह बूटी शरीर को सीधे आॅक्सीजन देती है। इसकी तीन प्रजातियों की पहचान हुई है। ये हैं, सोलो कारपो (सफेद), सोलो मारपो (लाल) और सोलो सेरपो (पीला) हैं। सफेद सोलो का मुख्य रूप से औषधीय उद्देश्य से प्रयोग किया जाता है। जीएनडीयू के जैव तकनीक के विभागाध्यक्ष डॉ प्रताप कुमार इन बूटियों पर शोध कर रहे हैं।
-प्रमोद भार्गव
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